कोरोना के रूप मंे दुनिया के लिए आयी महामारी की दस्तक नयी नहीं है। ईसा पूर्व से ही महामारी के रूप मंे प्रलय के तान्डव की शुरूआत हो गयी थी। चैदहवी शताब्दी के पांचवे व छठे दशक में जिसे ब्लैक डेथ का दौर कहा जाता है प्लेग की महामारी ने यूरोप की एक तिहाई आबादी को निगल लिया था। दसियों लाख लोग इसमें मौत के मुह में समा गये थे। उस तुलना में आज कोरोना का कहर कुछ नहीं है। मौत का यह तूफान भी विदा हुआ था और कोरोना को भी एक दिन विदा होना पडेगा। कोई महामारी ऐसी नहीं है जो दुनिया से मनुष्य की हस्ती को पूरी तरह मिटा सके। कोरोना भी नहीं।
पंद्रहवी शताब्दी में अमेरिका को प्रचण्ड महामारी ने घेर लिया। बताया जाता है कि अमेरिका की आबादी उस समय छै करोड थी जो छटकर एक सदी बाद सिर्फ 60 लाख रह गयी थी। अमेरिका में आयी महामारी के लिए कुदरत नहीं लोग ही जिम्मेदार थे। यूरोपियनो ने अमेरिका में पदार्पण के बाद वहां मूल निवासियों का इतना संहार किया कि अमेरिका के साथ-साथ दुनिया की आबोहवा ही बदल गयी। इसके चलते चेचक,खसरा, हैजा, मलेरिया, प्लेग, काली खांसी, टाइफस आदि का ऐसा प्रकोप हुआ कि लाशों के ढेर लग गये।
तो कई बार आदमी खुद अपने लिए कब्र खोदता है। कोरोना कुदरत की उपज है या इस महामारी को आदमी ने अपनी दुष्टता से न्यौता है कुछ साफ नहीं है। कोरोना वायरस का प्रकोप कैसे हुआ इस पर अभी शोध हो रहा है। इस शोध के कई और दिलचस्प आयाम हो सकते है। कई जगह आज रोबोट काम करने लगे है। आर्टीफिशियल इंटैलीजेन्स के अपने नतीजे है। कम्प्यूटर तकनीक में नये नये वायरसों की उत्पत्ति होती है। क्या नया कोरोना वायरस कम्प्यूटर मानव यानी रोबोट की वजह से पैदा हुआ है। इस सवाल पर भी गौर किया जाना चाहिए।
कुछ वर्ष पहले एलियनों की चर्चायें गर्म थी। खबरें तो यह तक बता रहीं थी कि अमेरिका के अंतरिक्ष संगठन नासा द्धारा एलियन होने की पुष्टि की जा चुकी है। नासा उनसे संवाद करने की स्थिति में पहुच गया है। एलियन में बहुतसो के बारे में कल्पित है कि वे मानव के शुभचिन्तक है और बहुतसो के बारे में है कि वे आदमी के शत्रु है तो क्या कोई शत्रु एलियन बस्ती ने तो मानव पर कोरोना के रूप में जैविक हमला तो नहीं किया है। अनुसंधान इस पर भी होना चाहिए।
इस हवाले को देखते हुए फंतासी की बीमारी के शिकार भारतीयों को सबक लेने की जरूरत है। वे आये दिन नासा के हवाले से बताते रहते है कि किस तरह महाभारत के युद्ध की आवाजों को पकड लिया गया है। जिससे सिद्ध होता है कि महाभारत मिथकीय ग्रन्थ नहीं है बल्कि एतिहासिक किताब है । रामायण के स्थलों और प्रसंगो को पुष्ट करने वाले नासा के हवाले भी चर्चा में आते रहते है। उन्हें मालूम होना चाहिए कि नासा के नाम से गल्प उद्योग भी चलता है। जो कभी उडनतश्तरियां अंतरिक्ष से जमीन पर उतरवा लेता है और कभी अंतरिक्ष मानव को धरती की किसी बस्ती में चहलकदमी करा देता है लेकिन जब इसकी सच्चाई परखने के मौके आते है तो ऐसी चर्चाये उडाने वाले गायब हो जाते है।
अगर कोरोना सिर्फ कुदरती अपद्रव्य है तो उसका अंत भी कुदरती ही होगा । कुछ समय पहले फसलों को पीली भटकटइया की खरपतवार ने बहुत नुकसान पहुचाया था। किसी दवा से उसका सफाया नहीं हो पा रहा था। फिर अचानक यह खरपतवार गायब हो गयी। क्या कोरोना भी अपना समय पूरा करके इसी तरह बिना किसी बडे मानवीय प्रयास के खामोश हो जायेगा ।
कई बार महामारियों ने वरदान की भूमिका अदा की है । यूरोप जो दुनिया में सबसे शक्तिशाली ताकत के रूप में छा गया उसके पीछे महामारियों का बडा योगदान है। ब्लैक डेथ में करोडों की जानें जाने से यूरोप का परिदृश्य बदल गया । खेतो में काम करने के लिए लोग मिलने बन्द हो गये। जिससे जमीदारी व्यवस्था को बडी चुनौती मिली। किसानों की सौदेबाजी की क्षमता बढी। मुद्रा का चलन शुरू हुआ मजदूर वर्ग का उदय हुआ । कम मजदूर मिलने से मशीनीकरण के लिए रूझान बढा। सबसे बडी बात यह हुयी कि लोगों ने बहां मौत से डरना छोड दिया। अपनो की थोक के भाव लाशें देखकर वे जिन्दगी के प्रति इतने बेफ्रिक हो गये कि नये क्षितिज तलाशनें के लिए उन्हें कठिन समुद्री यात्राओं में अपने को झोकने में डर जाता रहा जिससे संसार भर में वे अपने उपनिवेश स्थापित कर सके। क्या कोरोना की चोट भी युग परिवर्तन का निमित्त बनेगी।
एलोपैथी में कोरोना की दवा की ईजाद के लिए मशक्कत हो रहीं है। फिलहाल तो कुनैन की गोली के कारण इस दौर में भारत का हाथ दुनिया के सामने ऊंचा हुआ है। लाॅक डाउन के कुछ दिनों पहले तक बेसहारा गायों के भटकने का मुददा उत्तर प्रदेश में सर्वत्र लोगों को हलकान किये हुए था। सरकार की जिद थी कि वह गौवंश के संरक्षण से पीछे नहीं हटेगी क्योंकि गोवंश में दैवीय शक्तियां होती है जिनसे कई प्रकोपो से इंसानों का बचाव होता है। अच्छा हुआ कि लाॅक डाउन के बाद लोग गायों से जुडी शिकायते भुला चुके है। जिनको खांसी और बुखार की शिकायत हो वे गौवंश के दैवीय प्रभाव का लाभ उठाने की कोशिश नहीं कर रहे। गाय को सहलाने, उसका मूत्र और दूध पीने और उसकी सेवा में खाली समय होने से दिनभर रहने से क्या उन्हें उपचार जैसा कुछ महसूस होता है। गोभक्तों को इस दिशा में प्रैक्टिकल करना चाहिए। हो सकता है कि अभी असाध्य बने कोरोना को भगाने का आसान रास्ता गांेवंश की सेवा के जरिये सूझ जाये। अगर ऐसा सम्भव हुआ तो देशी गाय की दैवीय क्षमता का लोहा दुनिया को मानना पडेगा जिससे यह महामारी दूरगामी तौर पर भारत के लिए वरदान साबित होकर जा सकती है।
भारत मे इस महामारी के कारण बहुत परिवर्तन हो सकते है। परम्परागत भारतीय जीवन पद्धति में प्रत्येक दिन का एक निर्धारित क्रम होता था। अब जबकि लम्बे लाॅक डाउन में बोरियत भारी पड रहीं है, फिर इस तरह का शिड्यूल बनाने की जरूरत लोगों को महसूस होने लगी है ताकि दिन कट सके। इतने बजे जागना, इतने बजे नहाना, इतने बजे ध्यान लगाना, फिर नाश्ता करके कोई शारीरिक श्रम वाला काम करना, खाना खाना, कोई पुस्तक पढना, अल्प विश्राम के बाद शाम को फिर ध्यान लगाना और रात को खाना खाने से पहले खेल के माध्यम से कोई व्यायाम करना। बीच में ही अपने बुजुगों की सेवा के ख्याल और किसी एक आदमी की निस्वार्थ मदद के काम भी होने चाहिए। इस पद्धति पर अगर भारतीय अपना जीवन वापस लौटा सके तो उनका खुशहाली सूचकांक दुनिया में सबसे ऊपर चढ सकता है।
कमाई के लिए दिनभर अपनी जिन्दगी झोंकते रहने से कुछ हासिल नहीं हो रहा। लडकी की जो शादी पहले 2-3 लाख रूपये के दहेज में हो सकती थी। उस पर 25-30 लाख रूपये खर्च करके साबित किया जा रहा है कि कमाई के नाम पर दिन भर पिसकर वह अपने लुटने का इंतजाम करता है। शादी ब्याह की दावत जब लोगों के सहकार से निपटती थी तो चन्द पैसे खर्च होते थे। आज इस कार्य में भी लोग लुट रहे है। उपभोक्तावादी संस्कृति में बाजार के लिए बलिदान होने वाले मोहरे से ज्यादा आदमी की जिन्दगी की अहमियत नहीं रह गयी। बाजार के सारे ताम झाम छदम है। जो लोग इसी छदम में उलझकर अपने गांव जिले को छोडकर महानगरों में धन्धा या मजदूरी करने चले गये थे उन पर कोरोना का भूत क्या इतनी जल्दी उतर जायेगा। निश्चित रूप से कोरोना अभी कमोवेश एक दो साल तक सताता रहेगा तब तक लोगों की हिम्मत नहीं होगी कि वे अपने काम पर महानगर वापस जा सके। आर्थिक विकास दर भी औधेमुंह गिर चुकी होगी जिसके कारण महानगरों में काम का स्कोप भी नहीं रह जायेगा। पृथ्वी गोल है इसे साबित करने के लिए नयी स्थितियां फिर पहले जैसे आत्मनिर्भर गांव, कस्वों की व्यवस्था बहाल करें। जिसमें नगदी लेन देन का चलन नाम मात्र का रह जाये। ऐसी व्यवस्था का आधार पहले भी संतोष धन सबसे बडा धन का सूत्र था आगे भी इसी सूत्र को व्यवस्था का आधार बनाना पडेगा।

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