
कोरोना संकट ने सारे जीवन व्यापार को अस्त व्यस्त कर दिया है। आवश्यक सेवायें छिन्न भिन्न हो गई हैं। जरूरी चीजों की आपूर्ति लड़खड़ा गई है। कमजोर और लाचार आबादी के अस्तित्व पर बन आयी है। सरकार इन्हें सहारा देने के लिए विशेष पैकेज जारी कर रही है। इस बीच मीडिया को भी विशेष पैकेज देने की मांग उठने लगी है। आज विश्व प्रेस दिवस की बेला में ऐसी मांग के औचित्य पर विचार अत्यंत प्रासंगिक है।
मीडिया को क्यों विशेष पैकेज दिया जाना चाहिए क्या यह जनजीवन की आवश्यकता है। बहुत से लोग ध्यान दिलायेंगे कि तमाम आबादी के दिन की शुरूआत अखबार की खबरें पढ़े बिना या टेलीविजन पर न्यूज सुने बिना नहीं हो पाती। उनकी बात भी सही है लेकिन तथ्य यह है कि ऐसा आवश्यकता के कारण नहीं लत के चलते हो रहा है। उदाहरण के तौर पर आज देश की अधिकांश आबादी को सुबह होते ही सबसे पहले चाय की तलब लगती है अगर चाय न मिले तो उनके सिर में दर्द होने लगता है। बहुत से लोग तो चाय के बिना शौच निवृत नहीं कर पाते। तमाम लोग है जिन्हें शाम ढ़लते ही शराब की दरकार होने लगती है। जिस तरह से चाय और शराब को आवश्यक वस्तु की श्रेणी में नहीं रखा जाता वैसे ही अखबार और टेलीविजन भी तलब बन चुके हैं लेकिन आवश्यक सेवा या वस्तु नहीं हैं।
मीडिया के महिमा बखान में बताया जाता है कि यह लोकतंत्र का चैथा स्तंभ है। इसकी दुहाई लोकतंत्र के महत्व के दृष्टिगत मीडिया की आवश्यकता को निरूपित करने के लिए दी जाती है। प्रेस को डगलस कैटर ने सबसे पहले लोकतंत्र का चैथा स्तंभ बताया था। दरअसल पश्चिम में प्रेस की उत्पत्ति के इतिहास से भारतीय प्रेस के जन्म का इतिहास एकदम अलग-अलग है। पश्चिम में पावर शेयरिंग के लिए प्रेस का जन्म और विकास हुआ। भारत में समाचार पत्र स्वाधीनता की चेतना को उद्दीप्त करने वाले माध्यम थे। अर्थ यह है कि भारत में मीडिया की तात्विकता सूचनाओं के व्यापार से नहीं विचारों में नवीनता और निर्भीकता का पुट भरने से जुड़ी हुई हैं।
आजादी के समय एक अखबार में सम्पादक पद के लिए विज्ञापन निकलता था कि ऐसे विद्वान की जरूरत इसके लिए है जो रूखी सूखी रोटी एक टाइम खाकर अपना पेट भर सके, खरारी खाट पर लेटकर रात की नींद पूरी कर सके और हर समय जेल जाने के लिए तत्पर रह सके, अगर पत्रकारिता से व्यापार की धारणा यहां जुड़ी होती तो कौन ऐसे अखबार में सम्पादक बनने आता। पर इस अखबार में सम्पादक जेल जाते रहे और उनका स्थान लेने के लिए विद्वान आगे आते रहे यह तांता खत्म करने के लिए आखिर में अग्रेजों को उस अखबार को कुर्क करना पड़ा। आजादी के बाद भी इसमें परिवर्तन नहीं हुआ। अपने समय के सबसे प्रतिष्ठित प्रकाशन में मूर्धन्य विद्वान को ही उसके प्रकाशन में सम्पादक बनाने की परंपरा थी जो न तो विज्ञापन मांगने के लिए और न ही सेठ जी के लिए दूसरे किसी तरह की याचना करने सत्ताधारियों के दरवाजे पर जा सकता था। चूंकि उस कंपनी के सेठ को अपने प्रकाशनों का गौरव ज्यादा प्यारा था बल्कि वे तो यह कहते थे कि अपनी पत्र पत्रिकाओं की गरिमा के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे भले ही उनके घाटे को भरने के लिए उन्हें अपने दूसरे धंधों से रूपया लेना पड़े। उस समय के सम्पादक भी वेतन भोगियों से अलग मानसिकता के लोग थे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक रहे राजेन्द्र माथुर जब पहले दैनिक के सम्पादक बने तो अध्यापक की जो नौकरी वे कर रहे थे उससे चार गुना वेतन का प्रस्ताव उन्हें मिला पर उन्होंने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा कर दिया और बोले जब इतने में मेरा काम भली भांति चल सकता है तो मै अधिक वेतन क्यों लूं।
आज की पत्रकारिता में ऐसा वैचारिक तेज कहां है। भारतीय पत्रकारिता को उसकी गर्भनाल से अलग कर दिया गया है। आज का मीडिया विकास पश्चिम से आयातित है लेकिन उसके पतन स्वरूप में। सम्पादकों को वैचारिक पहचान से कोई लेना देना नहीं है बल्कि वैचारिक पहचान वाले विद्वानों की कोई जगह मुख्य धारा की मीडिया में नहीं रह गई है। सामाजिक सरोकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण आज के सम्पादकों के लिए अपना वेतन और कैरियर है। यहां तक कि वे अपने पेशे के बड़प्पन के प्रति भी ईमानदार नहीं हैं। कारपोरेट मीडिया ने जिला संस्करणों तक अपने विस्तार में बहुत अनर्थ किया है। अराजक बेरोजगारों की शरण स्थली बनाकर मीडिया की छवि का सत्यानाश कर दिया है। लोकतंत्र के स्तम्भ के रूप में भी मीडिया की कोई उपयोगिता हो सकती थी अगर इसने अपने स्वतंत्र वजूद के प्रति परवाह दिखाई होती। आज मीडिया की कोई अपनी इयत्ता नहीं है। वह राजनीतिक पार्टियों का बाजा है नेता जैसा बजाना चाहते हैं मीडिया वैसी ही बजती है। ऐसे अनुत्पादक व अनुपयोगी कारोबार के लिए कोई पैकेज देना जनता के उस कोष का दुरूपयोग है। सरकार जिसकी ट्रस्टी मात्र की भूमिका निर्वाह करती है।
महाकवि भूषण का स्मरण भी मीडिया विमर्श में प्रासंगिक है क्योंकि ऐसी विद्वता से भारतीय मीडिया की गर्मनाल जुड़ी रही है। वीर रस के महाकवि भूषण मुगल बादशाह औरंगजेब के दरबारी थे। पर विचारक को कोई हुकूमत पूरी तरह दरबारी बना पाई है। उन्होंने एक दिन औरंगजेब के मुंह पर ही उसकी ज्यादतियों का बखान कर दिया। बादशाह ने उसे हाथी के नीचे कुचलवाने का हुक्म दिया। किसी तरह भूषण बच पाये लेकिन उन्हें देश निकाला झेलना पड़ा। स्वतंत्र अभिव्यक्ति भारतीयों के खून में है जो अखबार और टेलीविजन नहीं था तब भी उनकी तासीर का हिस्सा था। अगर मीडिया को सत्ता की नकेल के रूप में देखने की वजह से लोग इसके अस्तित्व के लिए फिक्रमंद हैं तो उन्हें यह फिक्र नहीं करनी चाहिए। कारपोरेट मीडिया का प्लेटफार्म नहीं भी होगा तब भी सत्ता को अपनी अभिव्यक्ति की तपिश का एहसास कराने वाली नस्ले बनी रहेंगी। जैसा कि आज सोशल मीडिया पर अकिंचन विचारकों की मुद्रायें प्रदर्शित कर रही हैं।






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