लाॅकडाउन ने सरकार की हालत खस्ता कर दी है। उत्तर प्रदेश में लाॅकडाउन न होता तो उसकी मियाद में 12141 करोड़ रूपये की आमद होनी थी जबकि इसके कारण अब केवल 1178 करोड़ रूपये जमा हो पाये हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि आमदनी खत्म हो जाने से सरकार के संचालन में कितनी बड़ी चुनौती पैदा हो सकती है। इसलिए लाजिमी है कि सरकार आमदनी बटोरने के लिए ज्यादा इंतजाम करे। इसी के तहत उ0प्र0 सरकार ने राज्य में पेट्रोल पर 2 रूपये प्रति लीटर और डीजल पर 1 रूपये प्रति लीटर का टैक्स बड़ा दिया है। उधर केन्द्र सरकार ने पेट्रोल पर प्रति लीटर 10 रूपये व डीजल पर 13 रूपये उत्पाद शुल्क बढ़ाया है। डीजल पेट्रोल पर भारत में उत्पाद शुल्क बढ़कर 69 प्रतिशत हो गया है जो विश्व में सर्वाधिक बताया गया है। दरअसल इस मामले में भारत में अंधेर नगरी चैपट राजा के उसूल अपनाये जा रहे हैं जहां टका सेर भाजी और टका सेर खाजा बिकने की कथा है।
कराधान के मामले में भारत सरकार का रवैया बहुत ही अमानवीय है। लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना से भले ही सरकार ने छुटकारा पा लिया हो लेकिन उसका धर्म है कि वह बहुजन हिताय के सिद्धांत के अंतर्गत काम करे जबकि ऐसा नहीं किया जा रहा है। सरकार टैक्स उगाही के लिए ऐसे क्षेत्रों को चुनती है जिनमें समर्थ और आम लोग एक ही डंडे से हांके जा सकें। पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ाना जीविका के लिए संघर्ष कर रहे वर्ग के मेहनताने पर डकैती डालने जैसा है। उदाहरण के तौर पर एक एलआईसी का नया एजेंट ज्यादा से ज्यादा लोगों से संपर्क करने के लिए वाहन का इस्तेमाल करेगा। इसके बावजूद वह जीने लायक कमीशन बना पायेगा। पेट्रोल डीजल की कीमतें बढ़ी तो उसके घर की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जायेगी। जहां उपभोग का संबंध ऐश्वर्य से है उन सौभाग्यशालियों से आम लोगों की तुलना नहीं हो सकती। शब्द के अर्थ अलग-अलग समूहों कें संदर्भ में बदल जाते हैं। इसलिए उपभोग की परिभाषा भी हर वर्ग को देखकर तय की जानी चाहिए।
आपदाकालीन स्थिति में अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का सुझाव देने वाले आईआरएस अधिकारियों का प्रताड़नात्मक तबादला करके सरकार ने अपना जो नजरिया स्पष्ट किया है वह कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद कर नहीं वैभव कर लगना चाहिए। तर्क संगत यह होगा कि 10 लाख रूपये से अधिक महंगी निजी गाड़ियों पर सरकार हर महीने उनका मीटर देखकर वैभव कर वसूले जबकि सामान्यतया उसे पेट्रोल या डीजल पर या तो कोई टैक्स ही नहीं लेना चाहिए या आम लोगों से इन पर मात्र प्रतीकात्मक टैक्स वसूलना चाहिए। इसी क्रम में टोलटैक्स वसूली की भी बात आती है। सरकार फोरलेन और एक्सप्रेसवे बनाकर आम लोगों पर एहसान डालती है कि तुम लोगों की सुविधाये बढ़ा दी गई हैं जबकि इनका काम आम लोगों के लिए नहीं बड़ी कंपनियांे को माल ढुलाई में सहूलियत देने और डेढ़ सौ किलोमीटर से अधिक की स्पीड की दसियों लाख रूपये की लग्जरी गाड़ियां रखने वालों के लिए किया गया है फिर भी अगर सरकार इसमें आम लोगों को थोड़ी सहूलियत देना चाहती है तो उसको टोल टैक्स की प्रथा खत्म कर देनी चाहिए। इसके बजाय लग्जरी गाड़ियों पर खरीद के समय ही पर्याप्त टैक्स की वसूली का प्रावधान होना चाहिए। ऐसी गाड़ियों पर रोड टैक्स भी उसी अनुपात में बढ़ा दिया जाना चाहिए पर सरकार है कि उसे अमीरों पर टैक्स बढ़ाने में दर्द होता है। इसलिए टैक्स बढ़ाने की बारी आती है तो वह गरीबों को उनका भार हल्का रखने के लिए बेजरूरत बलि का बकरा बना देती है।
धर्म आधारित राज्य के लिए मुग्ध रहने वाले लोग आज सत्ता में हैं। लेकिन एक धार्मिक सरकार की जो विशेषताएं होती हैं उनसे इसका कोई लेना देना नहीं है। पाप के प्रति कठोर आग्रह के कारण धार्मिक उसूलों पर चलने वाली सरकार नैतिक व्यवस्था को सुदृढ़ रखने के लिए निर्ममता की हद तक प्रावधान बनाती है। पर जर्जर होती नैतिक व्यवस्था के ताबूत में और कीलें ठोकने के अलावा इस मामले में यह सरकार कुछ नहीं कर रही। उदाहरण कालाधन के मामले में है जिसके लिए सत्तारूढ़ पार्टी ने निजाम संभालने के पहले बड़ी-बड़ी डींगे हांकी थी। कुछ वर्ष पहले सऊदी अरब में वर्तमान प्रिंस क्राउन को यह दर्जा मिला था तो सरकार का खजाना भरने के लिए उन्होंने सऊदी मंत्रिमंडल के सदस्यों और अन्य पदाधिकारियों की बेशुमार दौलत का पता लगाने के लिए सर्वे कराया और उन्हें मजबूर किया कि वे या तो यह धन सरकारी खजाने में जमा करा दें या दंड भुगतने को तैयार रहें। ऐसे समय जब देश वित्तीय संकट में है सरकार आम आदमी पर बोझ डालने के बजाय अरबपति खरबपति बने नौकरशाहों और नेताओं के काले धन को पता लगाकर उसे जब्त करने का अभियान चलाने से क्यों मुकर रही है। सरकार का भ्रष्टाचार के प्रति नरम रवैया बहुत साफ है जबकि इसके कारण गुड गवर्नेंस की अवधारणा पानी मांग रही है। लोग भ्रष्टाचार को सुविधा शुल्क कहते हैं जबकि अब यह असुविधा शुल्क बन चुका है। सुविधा शुल्क तब था जब काम कराने वाला लगभग स्वेच्छा से अधिकारी और कर्मचारी की कुछ सेवा कर देता था। आज हालत यह है कि अधिकारी कहता है मुझे तो इतनी रकम चाहिए चाहे कुछ भी करो। इसलिए निर्माण, सप्लाई आदि में गुणवत्ता का महत्व नहीं रह गया है। पुलिस में थाने अधिकारी की पेट पूर्ति के लिए क्राइम करवाने को मजबूर रहते हैं। यह ढ़र्रा आखिर क्यों नहीं बदला जा रहा है।
संकट की स्थिति के कारण सरकार ने कर्मचारियों के भत्ते काटने की घोषणा की थी लेकिन चूंकि सरकारों में अब हुकूमत का ताब नहीं रह गया है, उनके लिए मैनेज करने की कला का महत्व सर्वोपरि हो गया है। इसलिए सरकार को घोषणा करनी पड़ी कि मंहगाई भत्ता की अदायगी स्थगित की गई है इस पर रोक नहीं लगाई गई है। चर्चा होती है देश में नये सिरे से चरित्र निर्माण की जिसके बिना यहां की समाज व्यवस्था खोखली होती जा रही है। पर चर्चा के अलावा इस दिशा में ठोस कदम भी तो उठाये जाने चाहिए। समाज में जब तक त्याग की भावना पैदा नहीं होगी तब तक उसका चारित्रिक गठन कैसे संभव है। सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को पर्याप्त से अधिक वेतन मिलता है। इसके अलावा एक हकीकत तो यह है कि बहुत से सरकारी पदाधिकारी वर्षो अपनी तनख्वाह नहीं निकालते जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जरूरत से कितनी ज्यादा आमदनी उनको है। अगर देश को संकट से उबारने के लिए उन्हें कुछ वर्ष महंगाई भत्ता त्यागना पड़ जाये तो उन पर कोई आफत नहीं टूटेगी। उन लोगों की कल्पना करिये जो करोड़ों में हैं और छोटी मोटी नौकरी या धंधा करते हैं फिर भी 15-20 हजार रूपये में गुजारा चला लेते हैं। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को गौरव भाव से अपने महंगाई भत्ते के त्याग के लिए प्रेरित किया जा सके तो देश के नैतिक पुनरूत्थान की दिशा में यह एक बहुत बड़ा कदम होगा। कोरोना के कारण देश में वित्तीय संकट एक वास्तविकता है और संकटों में ही लोग नैतिकता के सबक को सीखते हैं। कहा जाता है कि विपत्ति में ही भगवान का स्मरण आता है। यह विपत्ति सदबुद्धि कारक बने तो सार्थक भी हो सकती है। क्या सरकार इसके अनुरूप अपनी कार्ययोजना तैयार करने को तत्पर है।    

 

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