–रवि निरंजन

कोरोना की वैश्विक महामारी से पूरी दुनिया समेत भारत मे भी जान और माल (अर्थव्यवस्था) का अभूतपूर्व नुकसान होना सुनिश्चित है। सरकारो के द्वारा दोनों को बचाये रखने के लिये यथासंभव प्रयास किये जा रहे है। इस महामारी का सबसे बुरा प्रभाव हमेशा की तरह गरीबो पर सबसे अधिक पड़ा है | लाखों प्रवासी मजदूर कामगार अभी भी 48 दिन बाद रास्ते पर भूखे प्यासे पैदल घर पहुँचने की आस मे सफर करने को मजबूर है।
इस मानवीय संकट मे जिस प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा श्रमिकों के अधिकारों को 3 साल के लिये स्थगित कर दिया गया है वह ठीक वैसा ही है जैसे किसी घोड़ागाड़ी मे जब सवार सवार लंबी दूरी तय करने के बाद मंजिल दूर देख कर घोड़ो (जानवर) पर चाबुक मारता है। माना कि सरकार के ऊपर अर्थव्यवस्था को सुधारने की जिम्मेदारी है पर श्रमिकों के हितों की सबसे अधिक बलि क्यों। सरकारे उन उद्योगपतियों से भी संकट की कीमत क्यों वसूल नहीं करती है जो सरकार से सस्ती जमीन , लोन के साथ सब्सिडी लेते है और सारे लाभ लेने के बाद विलफुल डिफाल्टर बन कर करोड़ो डकार जाते है क्योकि ऐसे उद्योगपति सरकारी बाबू से लेकर राजनैतिक पार्टियोंतक को चंदे की मोटी रकम देने मे सक्षम है।
1991 के बाद से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ | दुनिया भर की पूंजी के लिये भारत के रास्ते खोल दिये गये| बड़ी बड़ी कंपनी आयी उद्योग लगे और उद्योगों के लिये आवश्यक श्रमिक बेहतर जिंदगी की आस मे गांवो से शहरों की ओर पलायन कर गये। पहले गांवो मे मजदूर किसानों के खेतों पर मजदूरी कर पीढ़ी दर पीढ़ी अपना गुजर बसर करता था | पारिवारिकता के साथ चलते रहने से किसान और मजदूर एक साथ हर दौर को गुजार जाते थे | दोनों में गजब का तालमेल था | मुसीबत मे दोनों एक दूसरे के साथी हो जाते थे | कभी फसल कम हुई तो मजदूर मेहनताना कम ले लेता था और किसान मजदूर के बच्चों की शादी या किसी मुसीबत पर साथ खड़ा रहता था।
यह सिलसिला टूटा किसानों की पीढ़ी बढ़ने से | कम होती जमीन और गिरती आमदनी और दूसरी तरफ मजदूरों का परिवार बढ़ने लगा और बाजारवाद की हवा ने व्यक्तिगत त्याग को खत्म कर दिया जिसका परिणाम आज सामने है| सालों तक शहरों मे मजदूरी करने के बाद मजदूर अपने लिये 1 माह का राशन तक न जुटा पाया। दिल्ली और मुम्बई मे महीना पूरा होते ही मकान मालिक कमरे से बाहर निकालने की धमकी देता है | राशन वाला पिछला हिसाब मांगता है | कहने का मतलब आज शहरों में कोई भी मजदूरों के साथ वह हमदर्दी नही रखता जो किसान रखता था।
आज समय की आवश्यकता है कि किसान और मजदूर यह बात समझे और अपनी जड़ों की ओर लौटे जहा पर किसानों को मजदूरों की जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता है | भारत मे 10 करोड़ प्रवासी मजदूर है जो शहरों मे 8000 रूपये प्रति माह खर्च करता है जो 80 हजार करोड़ मासिक और 9 लाख 60 हजार करोड़ वार्षिक होता है जिसका फायदा सिर्फ और सिर्फ शहरों को मिलता है जहाँ पर मजदूरों के लिये मानवीय संवेदनाओं का नितांत अभाव है।
देश की अर्थव्यवस्था को ग्रामोन्मुख सरकार ने कभी नही बनाया | इसका रास्ता गांव के लोगो को ही निकलना होगा जिसकी बुनियाद के लिये यह गठजोड़ समय की मांग है जो मानवीय त्रासदी की सीख है।






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