-अरुण कुमार श्रीवास्तव
पूरा विश्व आज ‘कोरोना’ नामक महामारी की चपेट में है। दिन प्रतिदिन के भयावह समाचार पूरे मानव समुदाय को तो झकझोरे ही हुए है साथ ही पशु पक्षी भी बदले वातावरण की चपेट में है। अब तक ज़िन्दगी में कभी न देखा गया ‘लॉक डाउन’ भी हमारे सामने है जिसने हम सब की दिनचर्या को अनुशासन बद्ध कर दिया है। हम वो देख रहे हैं जो आज तक महसूस नहीं किया गया था।
अपने आवास में बंद रहकर हम तमाम गतिविधियों में संलग्न हो गए हैं। शायद यही समय की मांग के साथ अपने ‘घर’ की आवश्यकता भी हो गयी है। अपने अपने आवास को अभी तक हम ‘आश्रय स्थल’ के रूप में ही जानते थे जहाँ पर अपने काम धंधों को ख़त्म करने के बाद जब हम लौटते थे तो आकर सुकून का अनुभव करते थे। लेकिन बदली परिस्थितियों ने हमारी सोच को भी सकारात्मक दिशा में बदल दिया है। विभिन्न चैनलों एवं सोशल मीडिया के साधनों के बीच यह देखा जा रहा है कि घर का प्रत्येक सदस्य कुछ न कुछ नया करने का प्रयास कर रहा है या कर रहा है। जिन लोगों के बीच आज की भागदौड़ की ज़िन्दगी में समय का आभाव था आज समय ही समय है। शायद इसी कारण हर व्यक्ति चाहे वह महिला हो, पुरुष हो या बच्चा हो अपने अपने ढंग से अपने समय का उपयोग कर रहा है। घर की सफाई और रख रखाव का ढर्रा भी बदल गया है। कोई खाने की तैयारी में रहता है, कोई किचन में हाथ बटाटा है और कोई घर को व्यवस्थित करने में लगा हुआ है। इस मुश्किल घड़ी में हर सदस्य की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है। घर में व्यक्ति घर का सदस्य ही होता है और कुछ नहीं।
चारों ओर से दीवारों के ऊपर डली हुई छत को हम ‘मकान’ या ‘आवास’ का नाम देते हैं, जो व्यस्त जीवन में हमें आश्रय देने का काम करता है। इस ‘आश्रय स्थल’ को संजाने सवारने में प्रत्येक सदस्य की भूमिका होती है लेकिन शायद हम यह समझते थे कि घर के प्रत्येक काम में माँ, बहन या बेटी की मुख्य भूमिका होती है। इस धारणा में अब परिवर्तन हो चला है। इसी कारण घर के पुरुष भी सफ़ाई, धुलाई और खान पान की क्रियाओं में लगे हुए हैं। घर के कोनों में लगे हुए मकड़ी के हल्के से जाले, छत में डला हुआ कबाड़ या ड्रॉइंगरूम से लेकर हमारे प्रत्येक कमरों की सफ़ाई अब अपने परिवर्तित रूप में हमें दिख रही है। इस व्यवस्था में हम सब मिलकर काम कर रहे हैं और अपने समय का सदुपयोग कर रहे हैं। शायद इस आपात स्थिति में इससे ज़्यादा सकारात्मक सोच हमें कभी देखने को नहीं मिली। अपना मकान अब ‘घर’ लगने लगा है और इस घर के प्रति लगाव बढ़ गया है। इस समय एक साथ बैठकर खाना खाना, बातें करना या मनोरंजन करना हमारी दिनचर्या का अंग बन गया है। इसके पहले तमाम व्यस्तताओं के बीच ऐसे काम देखने को मिला है।
बदलती परिस्थितियों में हमें निराश नहीं होना है। समय तो बदलता ही है और एक दिन कोरोना भी जायेगा। विपरीत परिस्थितियों में भी कैसे जीवन चलाना है यह अनुभव हमें सदैव काम आएगा। हमें घर की तो ज़रूरत होती ही है लेकिन घर भी समयानुसार अपनी मांग करता है यह भी समझना हमारे लिए ज़रूरी है।
( डा. ए के श्रीवास्तव उरई के डी वी कालेज में मनोविज्ञान के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं। आप विभिन्न विषयों के स्थापित विद्वान् हैं )






Leave a comment