-डा0 अरूण कुमार श्रीवास्तव
डी0 वी0 कॉलेज उरई (रिटा0

130 करोड़ वाले भारत को जब 1947 में स्वतंत्रता मिली थी उसी दिन से जनतंत्र अथवा लोकतंत्र के आधार पर षासन चलाने का निर्णय तत्कालीन राजनेताओं ने लिया और 1950 में अपने संविधान का निर्माण करके पूर्ण गणतंत्र की स्थापना कर ली गई। भारतीय संविधान के मूल उद्वेष्यों में लोक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना का समावेष किया गया था ”लोक कल्याणकारी राज्य” की प्रकृति जानने केे पूर्व “लोक” का अर्थ जानना अत्यंत आवष्यक है। सामान्य अर्थो में लोक का अभिप्राय जनसाधारण से हैं चाहे वह गॉव का हो या षहर का। सिर्फ विषेशता इतनी ही होती है कि वह षिक्षा-दीक्षा, रहन-सहन, खान-पान, आचार विचार, संस्कार व्यवहार आदि में उस देष या राश्ट्र की संस्कृति का प्रतीक हो। भारत का वास्तविक लोक गॉवों में ही निवास करता हैं जिसकी संख्या षहरों से अधिक हैं। भारत बर्श विभिन्न संस्कृतियों के महामिलन के बाद ही अखन्ड़ भारत बना है। संबिधान लागू होने की तिथि से ही ”लोक कल्याणकारी राज्य“ की स्थापना करने का निर्णय इस उद्वेष्य से हुआ था कि सम्पूर्ण जनमानस अथवा जनसाधारण के मौलिक अधिकारों और कल्याण की रक्षा हो सकें। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हम सबके मघ्य “स्वराज्य“ की भावना जाग्रत हुई थी ताकि लोकतंत्र जिनमें जनसाधारण के सम्पूर्ण हित सुरक्षित हो सकें भारत में केन्द्र सरकार के संघीय रूप की स्थापना भी जनकल्याण के उद्वेष्य से ही की गई थी इसी फलस्वरूप राज्यों को भी उनके अधिकार प्रदत्त किये गये थे। सभी को जनसाधारण के कल्याण का क्रियान्वयन अपनी नीतियों से करना था
बदलतें परिवेष में “लोकतंत्र” दलगत राजनीति का षिकार हो गया हैं। अपने अपने अहम की टकराहट से केंन्द्र सरकार और राज्य सरकारों में कभी कभी सामंजस्य का अभाव हो जाता हैं लोक अथवा जनकल्याण भटक जाता हैं। वर्तमान समय में हम अत्यंत अकल्पनीय स्थिति से गुजर रहें हैं और वह कोविड 19 (कोरोना) नामक महामारी का वैष्विक स्तर पर अचानक फैल जाना, भारत बर्श में भी इससे निपटने के व्यापक प्रबन्ध किये जा रहे हैं और ”लॉकडाउन” अथवा कर्फ्यू का सहारा लेकर जनजागरण किया जा रहा हैं। ”नीति निर्माता“ और योजना कार अपने अपने कार्यो में लगे है फिर भी केन्द्र और राज्य सरकारों का ध्यान नीतियों एवं योजनायें बनाते वक्त किसानों, मजदूरों, दैनिक श्रमिकों जों अपने अपनें घरों से निकलकर अन्य राज्यों में प्रवासी मजदूर बन गये उनके व्यापक हितों की ओर क्यों नही गया। घोशणायें ंतो बहुत हुई। “लॉकडाउन” में भी भीड कम करने के उद्वेष्य से सब कुछ ठप्प कर दिया तथा ”जहॉ हो वही रहो“ की योजना लागू की गई लेकिन आर्थिक युग के इस काल में यह ध्यान क्यों नही दिया गया कि जब मजदूर रोजगार विहीन हो जायगें तो क्या होगा। क्या टोकन मात्र के अनुदान से इन गरीब मजदूरों का जीवन चल जायेगा जिन अस्थाई घरों में वो किराये पर रह रहे थे उसके किराये का भुगतान वे कैसे करेगें यह सब ऐसे बिन्दु हैं जिसके भयानक परिणाम हमें रोज मिल रहें हैं सरकारें घोशणा कर रही हैं, मजदूर और तकनीकी श्रमिको,ं संगठित असंगठित श्रमिकों आदि को भरोसा नही हैं वे सडकों पर उतर आये है और अपने राज्य अथवा ग्रह जनपद जाने को आतुर हैं। केंन्द्र सरकार को विदेषो मे फसें भारतीयों की याद आई तो जहाज भेज दिये गये, छात्रों की याद आई तो बसें भेज दी गई लेकिन लाखों मजदूरों जो असल जनसाधारण हैं का ध्यान सरकारों को कयों नही आया। स्थिति अब अनियंत्रित हो गई तब श्रमिक टेªने चलाई गई। श्रमिकों और मजदूरों का विष्वास टूट रहा हैं वे अपने अपने बच्चों के साथ पैदल ही निकल पडे हैं कुछ वाहन की व्यवस्था करके छिपते हुये जा रहें हैं उनसे वाहन मालिक जम के बसूली कर रहे हैं वे भूखे है और जोर जोर से चिल्ला रहे हैं और सरकारें प्रतिदिन प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी रिपोर्ट दे रही हैं।
”लोक कल्याण राज्य“ की स्थापना के आदर्ष प्रहरी के रूप में मर्यादा पुरूशोत्तम श्रीराम का नाम लिया जाता हैं एक साधारण व्यक्ति के कहने पर ही वह अपनी पत्नी का परित्याग कर बैठे। मैं उनके इस कृत्य को अच्छा तो नही मानता लेकिन सामान्यजन की भावना को गंभीरता से लेना महत्वपूर्ण बात हैं यही जनतंत्र या लोकतंत्र कहलाता हैं जहॉ साधारण से साधारण व्यक्ति की भावनाओं एवं इच्छाओं का पालन हो।
वर्तमान परिवेष में इस महामारी ने वो दुर्दिन दिखायें है जिसकी व्याख्या षब्दों में संभव नही हैं। भारत के एक बडें़ भूभाग ’गॉव’ का निवासी तड़प रहा हैं दुर्द्यटना ग्रस्त हो रहा हैं। आये दिन बिभिन्न राज्यों से मजदूरों के मृत्यु के समाचार आ रहे हैं आखिर इस स्थिति के लिये जिम्मेदार कौन है? कदाचित सरकारों ने व्यक्ति विषेश ’लोगों’ की अपेक्षा इन गरीब मजदूरों श्रमिकों और अन्नदाताओं की चिंता व्यापक रूप से की होती तो वास्तविक लोकतंत्र स्थापित हो पाता। इस आपात स्थिति में कतिपय लोग तो असुरक्षित हो गये लेकिन भारत का ”लोक“ हादसे का षिकार हो रहा है क्या वर्तमान युग इसे मजबूत “लोकतंत्र” कहेगा






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