–विशाल सिंह

इस पलायन को #घर_वापसी कहकर Glorify किया गया। सबसे पहले मीडिया ने एक कटपीस कटवी को स्कूटर पे बैठाकर, अपने लौंडें को 1700 किमी. दूर से लाने के तथाकथित बहादुरी और बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य के लिए #हीरोइन बनाकर पेश किया और बस चल पड़ी एक रेलमपेल …
देश मे जब लाॅकडाउन Imposed किया गया , तब कोरोना रोगियों की तादाद पचास भी नहीं थी। लगभग दो महीने के #लाॅकडाउन के बाद , रोगियों की तादाद 85,000 से उपर है। अपनी चिरपरिचित आदत के चलते कुछ सरफिरे चपल सूतिये सरकार को जिम्मेदार बतायेंगे। मगर यहाँ सरकार जिम्मेदार नहीं , वो #एकस्ट्रा_डाॅटेड चमन सूतिये जिम्मेदार हैं , जिन्होंने लाॅकडाउन को मजाक समझकर, अपनी बसंती हरी करवाई है।
१- इन बुद्धिहीन गधों  का पलायन सरकार के #लॉकडाउन_प्रिंसिपल से एकदम उलट प्रतिक्रिया थी। लाॅकडाउन करके संक्रमण की #चेन को तोड़ने की ख्वाहिशमंद सरकार के इरादों पर जूता मार दिया इन जोकरों ने , जिन्हें पहले ही दिन से भूख सताने लगी थी।
२- लॉकडाउन कर देने का मतलब ये था, कि देश के लोग जहाँ कहीं भी हैं, वो सख्ती से अपने घरों, बैरक , डोरमेट्री , कैंप , या फिर अपने कैसी भी स्थायी/अस्थाई ठिकाने  में बंद रहें, ताकि कोरोना के #संक्रमण की चेन को  तोड़ा जा सके।
Migrant workers throng buses amid the nationwide lockdown to stem the spread of coronavirus at Lal Kuan Bus Stand n Ghaziabad, India, on March 29. Ajay Aggarwal/Hindustan Times via Getty Images
३-मगर गधा तो गधा ही रहेगा ना ??
जैसे ही सरकार ने पूरे सिस्टम को ब्रेक लगाया। बसें , हवाई जहाज और रेलगाड़ियां  रुक गईं , उसी समय करोड़ों लोगों ने घरों की ओर पलायन शुरू कर दिया। अब सरकार करे तो क्या करे ?? करोडों लोगों की तथाकथित घर वापिसी का  का इंतजाम  वह किस #नीति और किस मुँह से करे ?? संक्रमण रोकने का उपाय करने वाली सरकार , कैसे करोड़ों लोगों को बसों और ट्रेनों में ठूँसकर घर पहुँचाने जाये ??
४- गालबजाई करना बहुत आसान सी बात है कि सरकार को मज़दूरों की व्यवस्था करने के बाद ही लॉकडाउन घोषित करना चाहिए था। मगर क्या किसी भी तरीके से ये हो पाना संभव थी ?? क्योंकि लॉकडाउन जैसा निर्णय एक #आपातकालीन फैसला था और करोड़ों लोगों का जीवन दांव पर लगा था।
  ५- सरकार एक तरफ़ तो  लॉकडाउन जैसा बड़ा कदम उठा रही थी वहीं दूसरी तरफ इन #ढपोरशंख अहमकों के पलायन को कैसे बढ़ावा दे सकती थी  जिसका सीधा-सीधा मतलब था कि कोरोना के संक्रमण को शहरों से गाँवों की ओर फैला दिया जाये।
ध्यान रहे शहरो मे तो किसी हद तक Medical treatment की सुविधाऐं थीं भी। अतिपिछडे बिहार और #मध्यप्रदेश के गाँवों में इस महामारी से निपटने की कोई कार्ययोजना या फिर चिकित्सा तंत्र मौजूद ही नहीं है।
६- किसी भी पॉलिसी के  क्रियान्वयन के पीछे एक खास मकसद होता है। सरकार ने जैसे ही लॉकडाउन की पॉलिसी को लागू किया फिर वो कैसे किसी पलायन को प्रोत्साहित कर सकती थी ??
ये भी सच है कि सरकार द्वारा घोषित लाॅकडाउन का पालन यदि इस #बुद्धिहीन जोकरों के देश ने पूरी ईमानदारी , तत्परता , और सच्चे मन से किया होता तो हद से हद पाँच हजार मरीज होते पूरे भारत में लेकिन हमें तो अम्मा के हाथ के पराठे खाने हैं । 55 बीघे मे पुदीना बोकर ही तो सूरत , मुंबई , लुधियाना में मजदूरी करने आये थे।
७- लॉकडाउन कहते किसे हैं , वो  चीन से सीखो नाकारा लोगो। उसने #हुबेई प्रांत की पूरी तरह से तालाबंदी कर दी थी।  भाड़ मे गया तुम्हारा #मानवाधिकार, भाड़ मे गई तुम्हारी #भूख, भाड मे गये #व्हिसलब्लोअर्स । ये सब कर पाना चीन के ही बस का रोग था। चीन #कम्युनिस्ट तंत्र है। लोहे के दस्ताने पहनकर स्टेट पॉवर काम करती है, जिसमें को-लैटरल डैमेज तो होगा ही, यह वो मानकर चलते हैं। भारत जैसे लिजलिजे , बनाना रिपब्लिक टाईप लोकतंत्र की औकात से बाहर की चीज है लाॅकडाउन…
८- भारत एक लोकतंत्र है और  लोकतंत्र का अर्थ है- बहुत सारी आवाज़ें, बहुत सारे ऊल जूलूल तर्क ,भरपूर #कन्फ्यूजन और ढेर सारा सूतियापा।
भारत में आज लोकतंत्र का अर्थ है- बहुत सारे #विधवा विलाप, बहुत सारा #रंडी रोना, बहुत सारे #तर्क_वितर्क , बहुत सारे #हक की बात, बहुत सारा #ह्यूमनराईट , बहुत सारे #ओपिनियन, और बहुत सारे #आँसू, ढेर सारे #ईमोशन, छातियो मे #दूध उतर जाना, दो एक्सट्रा #थन भी उग आते हैं।
   ९-  भारत में चाहे मेनस्ट्रीम मीडिया हो या फिर सोशल मीडिया हर जगह रांड वाला स्यापा ही छाया था कि कोरोना से डर नहीं लगता भूख से लगता है, अब खा लो #छप्पनभोग।
लाॅकडाउन के बावजूद , जल्द ही एक लाख मरीजों का जादुई आँकडा प्राप्त करने वाले हो। तुम वह सब करने की सोच भी नहीं सकते जो जो चीन कर सकता  है। उसने कोरोना #वुहान के बाहर फैलने नहीं दिया और तुमने अपने सूतियापे के चलते भारत के कोने-कोने मे पहुँचा दिया है।
१०-  24 मार्च को जब लॉकडाउन की घोषणा हुई तो नीति निर्धारकों के भी कलेजे काँप रहे थे। उनको भी तो पता है कि इन दुधारू पशुओं के देश में , ना तो इन जोकरों  को आसानी से ताले में बंद किया जा सकता है, और ना ही इन गधों पर #तालाबंदी इस तरीके से थोपी जा सकती है।
हर हाल मे ये नाटक रच ही देंगें, उसी का परिणाम है कि संपूर्ण लाॅकडाउन के बाद भी , एक लाख की सीमा को बस छूने ही वाले हैं।
११- अगले ही दिन से पलायन शुरू हुआ, होना ही था। सरकार ने अपनी आंखों के सामने अपने “लॉकडाउन- प्रिंसिपल” की #धज्जियां उड़ते देखीं, किंतु पलायन में सहयोग करने का मतलब था, दो नावों पर सवार होना और एक साथ करोड़ों की देखभाल की ज़िम्मेदारी लेने का मतलब था, पहले से  ही कोढ़ बन चुकी #एमरजेंसी  में एक और हिमालय का बोझ अपने कंधों पर उठाकर  कोढ़ को खुजलाना।
१२- महाविकट स्थिति पैदा हो गई। लोकतंत्र की पहली विशेषता ये है कि यहाँ सरकार का हर फैसला #लोकलुभावन होना चाहिये। इसीलिए निर्णय लेने में देरी हुई और दरम्यान  में पुलिस की लाठियां चलीं। लाठियां चलीं तो #ज़ालिम_हुकूमत का चित्र निर्मित हुआ। उसके सामने #करुणाजनित दृश्यों का काफ़िला था। घर बैठे जनमत ने चलचित्र की तरह इन्हें देखा है और दर्शक की तरह टिप्पणी की है किंतु सच कहूं तो उत्तर और समाधान किसी के पास नहीं है।
१३-  क्या ये सब होने से रोका जा सकता था ??
जवाब है नहीं । कम से कम किसी लोकतंत्र टाईप सर्कस मे तो बिल्कुल भी नहीं क्योंकि किसी सरकार के लिए ये संभव ही नहीं है कि आठ करोड मजदूरों को उनके दरवाजे पर जाकर , सुबह शाम छप्पनभोग खिला सके। इतनी बड़ी आबादी की निशानदेही करना और उस तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये भोजन उपलब्ध कराना, ये सब बिना किसी #पॉलिसी_फ्रेमवर्क के कैसे होता ??
और फ्रेमवर्क बनाने का समय किसके पास था ??
१४- कोरोना  दबे पांव आया, #दुर्भाग्य की तरह और बहुत ही तेज़ी से आया। कोई इसके लिए तैयार नहीं था। ना देश में, ना दुनिया में। बेमौसम बारिश की तरह कोरोना-संकट आया है। जिनके सिर पर छत थी, वे अभी बच गए हैं। जो रास्ते में थे, वो उसकी चपेट में हैं। उनके सिर पर #आफ़त टूटी है। बचने का रास्ता नहीं मिला है।
 “हर एक त्रासदी सबसे पहले कमज़ोर-वर्ग का शिकार किया करती हैं।”
१५-  ऐसे वज्रमूर्खो की कमी नहीं है ,जो गाल बजा रहे है कि “अमीरों को #एयरलिफ़्ट करा लिया गया, ग़रीबों को मरने को छोड़ दिया गया।
इन सूतियम सल्फेटों को पता भी नहीं है कि आईडी, पासपोर्ट, वीज़ा की प्रणाली के चलते इन कुछ हज़ार लोगों की निशानदेही आसान थी। उन्हें आराम से चिन्हित किया जा सकता था। उन्हें एक सोची समझी नीति के तहत देश लाना #सुविधाजनक था जबकि देश के कोने-कोने में फैले #असंख्य मज़दूरों को घर भेजने की प्रणाली विकसित करना संभव ही नहीं था। इसमें भी सत्तर प्रतिशत मज़दूर या तो दिहाड़ी मजदूर हैं या फिर  असंगठित क्षेत्र के हैं।
१६- . सरकार ग़रीब-विरोधी है, यह मानना राजनीतिक अर्थों में कठिन लगता है। भारत में किसी भी दल की, कोई भी सरकार ग़रीब-विरोधी नहीं हो सकती। ग़रीब तो उलटे भारत में “राजनीतिक-पूंजी” हैं। भारत गांवों और ग़रीबों का देश है। कौन सरकार इस बहुसंख्य-वर्ग को चोट पहुंचाएगी ? बशर्ते उसे चुनाव हारने का शौक़ ना हो।
इसीलिए , सरकारें मजबूरी मे ही सही, आधे-अधूरे मन से पलक पाँवड़े भी बिछा रही हैं और दूसरी ओर लाॅकडाउन की #विफलता पर खून के आँसू भी रो रही हैं।
 लाॅकडाउन ही कोरोना के Community spread को रोक पाने का एकमात्र तरीका था। मगर बुद्धिहीन लोगों , और दुधारू किस्म के पगलेट बुद्धिजीवियों और टुच्चे किस्म की #संवेदनशीलता के चलते यह देश खुद के पैरों में कुल्हाडी मार बैठा है। बल्कि यूँ कहना चाहिये , कि खुद अपने पैर कुल्हाडी में दे मारे हैं।
 इन दो महीनों में  तथाकथित भूखे नंगे , बेचारे किस्म के लोगों की भूख के चलते तो शायद कोई मौत नहीं हुई । मगर इस चसूतियापे भरे पलायन के फलस्वरूप देश भी डूब गया है और अगले कुछ महीनों मे मौत का आँकड़ा भी एक लाख से ऊपर होगा।
लिख के रख लो…

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