खादी के प्रचार के सिलसिले में महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई के समय उरई आये थे। प्रदेश सरकार में केबिनेट मंत्री रहे उरई के ही राजनेता स्व. चतुर्भुज शर्मा ने अपनी जीवनी में इस प्रसंग का उल्लेख किया है। महात्मा गांधी राजमार्ग स्थित पाण्डेय भवन में ठहरे थे। प्रस्थान के समय पता चला कि उनका गमछा गुम है। महात्मा गांधी बहुत परेशान हो गये। मेजबानों ने बाजार से नया गमछा लाने का प्रस्ताव किया। बापू के साथ बा भी आईं थीं। उन्होंने कहा कि महात्मा जी बाहर का गमछा स्वीकार नही करेगें क्योंकि वे अपने हाथ से बुना गमछा ही प्रयोग करते हैं। अब नये गमछे को बुनने के लिए महात्मा जी रात में देर तक जागकर श्रम करेगें।
क्लर्क मनोज कुमार की फिल्म के दौर से अब तक
स्वाधीनता, स्वदेशी, आत्म निर्भरता इत्यादि एक दृष्टि से पर्यायवाची शब्द हैं। इन लक्ष्यों का संबंध आवश्यकताओं में कमी रखने से है। एक समय था जब सरकारी कर्मचारियों का वेतन बहुत कम था। मनोज कुमार ने क्लर्क के नाम से फिल्म बनाई थी। जिसमें अल्प वेतन भोगी सरकारी कर्मचारियों की दयनीय दशा का चित्रण किया गया था। उस समय कर्मचारियों के भ्रष्टाचार की चर्चाएं गाहे-बगाहे ही सुनने को मिलती थी। फिर विचार किया गया कि अगर कर्मचारियों को भरपूर वेतन की व्यवस्था कर दी जाये तो वे भ्रष्टाचार से भी बचेगें और उनकी कार्य कुशलता भी बढ़ेगी। आज सरकारी तंत्र में काम कर रहे लोगों को मिलने वाला वेतन भत्ता कितना ज्यादा है इसका अंदाजा तब होता है जब उन्हीं स्थितियों में उनसे ज्यादा काम करने को मजबूर निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के मेहनतानें से तुलना की जाती है। लेकिन भ्रष्टाचार के मामले में आज सरकारी तंत्र की हालत इतनी बुलंद हो चुकी है यह सभी को पता है।
सरकारी तंत्र में राक्षसी वायरसों का बसेरा
भ्रष्टाचार के जोर पकड़ने से निष्ठुरता और बर्बरता के राक्षसी वायरस तक सरकारी तंत्र के लोगों में घर बना चुके हैं। किसी के प्रियजन की हत्या हो गई हो तो असीम दुख में डूबे उस व्यक्ति की रिपोर्ट लिखने और जांच करने में भी पुलिस पैसा चाहती है। मौत के मुंह में जा रहे मरीज को बचाने की बजाय और धकेलने में उन सरकारी डाक्टरों को गुरेज नही होता जिन्हें मोटी पगार मिलती है क्योंकि मरीज के तीमारदारों के पास उनसे प्राइवेट में इलाज कराने का पैसा नही है। महत्वपूर्ण पदों पर पोस्टिंग के लिए बोली लगवाई जाती है। जिसकी वजह से भ्रष्ट तत्व सिस्टम के की-सेन्टरों पर छाते जा रहे हैं। जबकि योग्य अधिकारियों और कर्मचारियों को हाशिये पर बिठाये रखा जाता है। सिस्टम के साथ इस विश्वासघात से दूरगामी तौर पर देश कितना कमजोर होता जा रहा है लेकिन इसके बावजूद इसके लिए जिम्मेदार लोग ही राष्ट्रवाद की सबसे ज्यादा दुहाई देते हैं।
उल्टे पैरों के शैतान का नाम है बाजारवाद
सीधे गणित का यह उल्टा जोड़ हतप्रभ करने वाला है जिसकी तह में जाने पर स्पष्ट हो जायेगा कि बाजारवाद के तहत प्रायोजित ढंग से लोगों की तृष्णाएं भड़काकर उनकी आवश्यकताएं बढ़ाई जा रहीं हैं। जिससे वे सत्यानाशी खेल खेलने को उद्यत हो रहे हैं। लोगों की आमदनी कितनी भी कर दो इस माहौल के कारण उन्हें पूर नही पड़ सकती।
कोरोना से आइना में देखी बदसूरती से भी नही ले रहे सबक
कोरोना ने इस मामले में समाज को आइना दिखाया। लाक डाउन में तमाम जरूरतें लोगों को छोड़नी पड़ गईं फिर भी कोई दिक्कत नही हुई क्योंकि वे मूल रूप से जरूरतें थी ही नहीं, उन्हें तो सुविधाभोगी मानसिकता के विस्तार के चलते ओढ़ा गया था। गर्मी का मौसम शुरू हो जाने के बावजूद लोगों को बिना एसी के नींद लेने में सुबीता लगने लगा क्योंकि डर था कि एसी की ठंडक से कहीं फेंफड़े जकड़कर कोरोना न पनपा दें। खुद को संवारने के लिए किसी दिन फेसियल बगैरह के बिना काम नही चल रहा था। लेकिन बिना बाल कटिंग के भी काम चलने लगा। बच्चे पिज्जा, बर्गर व चाऊमीन के बगैर भी जिन्दा रहने लगे। सारी चकाचौंध छोड़कर मात्र पांच लोगों की उपस्थिति में मंदिर में विवाह रचा लेना भी मंजूर हो गया।
क्षण भंगुर साबित हुई पवित्रता की रुमानियत
लेकिन क्या ये बदलाव स्थाई हो गये हैं। लाक डाउन-1 में लगा था कि लोगों में फरिश्तों जैसी मासूमियत उतर आई है। अपनी दिनचर्या को नये सिरे से व्यवस्थित करने, रहन-सहन और खान-पान को अपने परिवेश के अनुरूप ढालने, संगीत कला और साहित्य की शरण में जाने व संयम और सादगी को जीवन शैली का मूलाधार बनाने की प्रतिज्ञाएं की जाने लगी थीं। लेकिन लाक डाउन-4 आते-आते लगता है कि पवित्रता की वह रूमानियत फिर फना होने लगी और लोग घात की मुद्रा में नजर आने लगे हैं। कैसे अवसर मिले और वे फिर अपने पुराने खेल में लग जायें। यहां तक कि शादी-विवाह की फिजूलखर्ची का भी संवरण ठाने रखना मुमकिन नजर नही आ रहा है। उम्मीद थी कि ऐसे संगठन, ऐसे व्यक्ति कोरोना के सबब से उभरेगें। जिनके नेतृत्व में समाज नई धारा का परिवर्तन करेगा। पर नैतिक शून्यता के इस विकराल दौर में ऐसी चीजों के लिए बीज ही बचे नजर नही आ रहे हैं।






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