
दाने दाने को मोहताज हैं ड्राइवर, कंडेक्टर व खलासी
जगम्मनपुर। कोरोना संकट काल में समाज के अन्य वर्गों की तुलना में सबसे ज्यादा भुखमरी का दंश झेल रहे प्राइवेट बसों के ड्राइवर, कंडेक्टर व अन्य स्टाफ की हालत बहुत दयनीय है।
भारत सहित पूरे विश्व में कोरोना वायरस संक्रामक बीमारी ने मौत का जो तांडव किया उससे पूरे संसार के बड़े बड़े देशों के राष्ट्राध्यक्ष दहल गए। इस भयानक बीमारी का कोई इलाज न मिल पाने के कारण जनजीवन बचाने के लिए लाक डाउन तथा सोशल डिस्टेंसिंग का सहारा लिया गया। सभी उद्योग, कारखाने, व्यापार, ट्रेन, यात्री परिवहन, सरकारी/प्राइवेट दफ्तर बंद कर दिए गए। इस संकटकाल में सरकार तथा समाजसेवी संस्थाओं व समाजसेवी लोगों ने गरीबों को भूखा न मरने देने का बीड़ा उठाकर समाज के उस हर गरीब परिवार को खाद्यान्न तथा भोजन उपलब्ध कराया जो प्रथम दृष्टया गरीब थे तथा मजदूरी से मिले पारिश्रमिक पर जीवन यापन कर रहे थे लेकिन समाज का एक वर्ग भी एेसा भी है जिस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया जो प्रति सुबह स्नान करके साफसुथरे कपड़े पहनकर समाज में भद्र दिखने का प्रयास करते हुए अपनी बारह घंटे की दैनिक ड्यूटी पर निकल जाता था और शाम को घर वापसी के समय अपने परिवार के बच्चों के लिए कुछ खाने पीने की वस्तुएं लाकर अपनी दिनचर्या पूरी करता था। वह वर्ग है प्राइवेट बसों का स्टाफ जिसमें ड्राइवर कंडेक्टर खलासी (हेल्पर) तथा बस इंचार्ज प्रमुख होते हैं। प्राइवेट बसों का यह स्टाफ दैनिक मजदूरी के हिसाब से काम करता है जिसमें बस मालिक की ओर से चालक, परिचालक, इंचार्ज को सौ सौ रुपए तथा हेल्पर को पचहत्तर रुपए प्रतिदिन मजदूरी मिलती है किंतु प्राइवेट बसों का स्टाफ दांया बांया, इधर उधर करके ड्राइवर, कंडेक्टर, इंचार्ज लगभग दो से ढाई सौ रुपए प्रतिदिन का अपना बजट बना लेते हैं तथा हेल्पर की भी आय लगभग डेढ़ सौ रुपए प्रतिदिन हो जाती है। रास्ते में चाय नाश्ता अलग से हो जाता है। इस दैनिक आय से इन बस संचालकों के परिवार का भरण पोषण होता रहता है। बसों पर चलने के कारण यह लोग न तो जाब कार्डधारक हैं और साफसुथरा रहने के कारण न इनकी गणना गांव के गरीब लोगों में होती है किंतु कोरोना ने इनके चमकते कपड़ों तथा मुस्कुराते चेहरों की पोल खोल दी है। लाक डाउन से यातायात ठप है सभी प्राइवेट/रोडवेज बसें अपने अपने ठिकानों पर टिक गई हैं। इनमें सर्वाधिक प्रभावित होने वाला वर्ग प्राइवेट बसों का स्टाफ जो दैनिक मजदूरी कर अपने परिवार का भरण पोषण करता था आज भुखमरी की कगार पर पहुंच गया है। अपनी झूठी शान एवं अपने को प्रसन्न दिखाने का प्रयास इन लोगों पर भारी पडऩे लगा है। समाज व प्रशासन ने इन्हें गरीब मजदूर की श्रेणी में स्वीकार नहीं किया और लज्जावश इन खुद्दार लोगों ने सरकार अथवा समाजसेवियों द्वारा बांटे जाने वाली खैरात लेने के लिए हाथ आगे नहीं बढ़ाए। परिणाम स्वरूप इनके चमकदार कपड़े गंदे हो गए जिन्हें साफ करने के लिए इनके पास साबुन के भी पैसे नहीं रहे। अपने भूखे परिवार के भरण पोषण के लिए गांव मोहल्लों के अपने मित्रों से यह लोग कर्ज ले रहे हैं। प्रतिदिन स्नान कर दमकते मुस्कुराते चेहरे के साथ अपनी बसों पर जाने वाले स्टाफ के चेहरों पर मुफलिसी स्पष्ट देखी जा सकती है किंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अभी तक किसी सरकारी गैर सरकारी एजेंसी का ध्यान उनके परिवार के संकट पर नहीं गया है।
इनसेट–
गुजारा करना मुश्किल, करें तो क्या करें
ज्ञात हो कि जगम्मनपुर से उरई, औरैया आने जाने वाली चौबीस बसें तथा रामपुरा से बंगरा होकर उरई जाने वाली नौ बसें व रामपुरा से ऊमरी होकर उरई जाने आने वाली चौदह बसों का लगभग एक सौ नब्बे लोगों का स्टाफ अपनी अपने परिवार के बच्चों को देखकर दुखी हो रहा है। बस चालक/ परिचालक रामप्रकाश, गोविंद सिंह, रामजी, ओमप्रकाश, नरेश, लालजी, संतोष शर्मा, विकास, हीरा सिंह, गजेंद्र सिंह, वीर सिंह, अंकित, अंजनी द्विवेदी, शेरू, कल्लू, पप्पू, राधारमण आदि ने बताया कि हम लोग बचपन से ही बसों पर चल रहे हैं। अन्य कोई काम हम लोग नहीं जानते हैं अब समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करें जिससे अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें तथा इन दो माह में जो कर्ज लिया है उसको कैसे चुकता करें।






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