मुझे ऐसे दरोगा का नाम बताओ जो गालियां न देता हो, जुआ और सटटा न खिलवाता हो, अपराधियों से संपर्क न रखता हो मैं उसी को लालगंज थाने का इंचार्ज बना दूंगा। यह शब्द थे उत्तर प्रदेश के सेवा निवृत्त पुलिस महानिदेशक यशपाल सिंह के जो उन्होनें जनता पार्टी के शासन काल में रायबरेली के पुलिस अधीक्षक रहते हुए लालगंज के थानेदार की शिकायत करने आये व्यापारियों के प्रतिनिधि मंडल से कहे थे और मुंबई से प्रकाशित अपने समय के सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक करंट में जिसका मैं मध्य भारत संवाददाता था उनकी इस सूक्ति को बड़े-बड़े फांट में हैड लाइन बनाकर छापा गया था। जिसके बाद पुलिस प्रशासन में शीर्ष तक तहलका मच गया था।
चार दशक से अधिक समय बाद भी नही बदला मंजर
लेकिन आज चार दशक से अधिक का समय इस वाकये को हुए गुजर जाने के बावजूद भी उत्तर प्रदेश में पुलिस का चरित्र कमोबेश वैसा ही बना हुआ है। बल्कि कई मामलों में पहले से बदतर हो गया है। पोस्टिंग से लेकर प्रमोशन तक में धड़ल्ले से पैसा चल रहा है और सरकारें बदल जाने के बावजूद इसमें कोई फर्क नजर नही आ रहा है। इसलिए आज भी उत्तर प्रदेश में ज्यादातर थानों का चार्ज दागदार इंस्पैक्टर और दरोगाओं के हाथ में है। जो इंस्पैक्टर, दरोगा जिला पुलिस प्रमुख और ऊपर के लोगों को मुंह मांगा पैसा नही दे पाते या वे जमीर जिंदा होने के कारण जो गड़बड़ी भी करते हैं तो दाल में नमक से ज्यादा की दिलेरी नही दिखा पाते वे कितनी भी काबलियत के बावजूद लिखिया मुंशी बने रहने को मजबूर हैं।
बिहार में पुलिस नवाचार की खबरें बनी ध्यानाकर्षण का केंद्र
भ्रष्टाचार का यह नासूर कैसे खत्म हो इन चर्चाओं के बीच बिहार से इन दिनों आ रहीं खबरें ध्यानाकर्षित करा रहीं हैं। पुलिस नवाचार के तहत बिहार ने कुछ बिंदु तय करके लगभग डेढ़ हजार थानेदारों का परीक्षण किया गया। जिसमें बहुत बदनाम पाये गये तीन सौ से अधिक थाना प्रभारी एक मुश्त हटा दिये गये। बिहार के डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डेय ने इसके बाद एक और नया कदम उठाया है। जिसके तहत जन साधारण के लिए एक नंबर जारी किया गया है जिस पर व्हाटसएप या फोन करके कोई भी व्यक्ति अपने थानाध्यक्ष की करतूतों के बारे में जानकारी दे सकता है। कहा गया है कि जानकारी देने वाले का नाम गोपनीय रखकर जांच कराई जायेगी। इससे सटटा, जुआ खिलवाने वाले, माफियाओं से संबंध रखने वाले, विवेचनाओं में गड़बड़ी करने वाले थानेदारों में हड़कंप मचा हुआ है। उन्होंने फोन पर बदनाम थानेदारों की ही नही उन थानेदारों की भी जानकारी मांगी है जो ईमानदार, कार्यकुशल और सेवाभावी हैं। गो कि नरक में भी कुछ देवता होते हैं।
बिहार के डीजीपी जो इस्तीफा देने के 9 माह बाद फिर सेवा में वापस लिए गये
खुद डीजीपी की नियुक्ति बिहार में काफी तौल परख कर हुई है। गुप्तेश्वर पाण्डेय एक खास राजनैतिक विचारधारा के मुरीद जरूर हैं लेकिन शत-प्रतिशत ईमानदार हैं। एक बार वे पुलिस सेवा से इस्तीफा दे चुके हैं। लेकिन बाद में उन्होंने फिर सेवा में शामिल होने की इच्छा जताई तो 9 महीने बाद उन्हें वापस ले लिया गया जो अपने ढंग का पहला मामला है। उन्होंने बिहार में शराब बंदी लागू करने में अहम भूमिका निभाई थी और तभी से वे बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की निगाह में चढ़े हुए हैं। ऐसा नही हैं कि गुप्तेश्वर पाण्डेय ने बिहार में जो पहल की है वह उत्तर प्रदेश में न हुई हो।
पाण्डेय की पहल ने बीएल यादव की याद दिलाई
स्व. बीएल यादव 2004 में जब कानपुर में जोन के पुलिस महानिरीक्षक थे उस समय उन्होंने थानाध्यक्षों की नियुक्ति के परंपरागत पैटर्न को झटका देकर नये प्रयोग से ताजगी लाने की कोशिश की थी। उन्होंने अमर उजाला और दैनिक जागरण में लगभग दो दर्जन बिंदुओं पर एक प्रश्न तालिका विज्ञापन के माध्यम से जारी की जिसमें लोगों का आवाहन किया गया कि वे इनका उत्तर देते हुए आईजी कार्यालय को अपनी सम्मति भेजें। उनका नाम गोपनीय रखने की गारंटी रहेगी। उन दिनों आगरा जोन अस्तित्व में नही आया था और कानपुर जोन की सीमा हाथरस तक विस्तारित थी। विज्ञापन छपते ही उनके पास पत्रों का तांता लग गया। जिसमें जुआ, सटटा को संरक्षण देने वाले, अवैध शराब बिकवाने वाले, जमीन-जायदाद पर कब्जा कराने वाले, व्यापारियों से नाजायज उगाही के लिए अभद्रता करने वाले और काम न करके शहंशाही में चूर रहने वाले थाना प्रभारियों में हड़कंप मच गया। उस समय राजनीतिक परिस्थितियां अधिकारियों के स्वतंत्र रूप से कार्य करने के अनुकूल नही थीं। फिर भी आईजी की इस पहल का थाना इंचार्जों में व्यापक मनोवैज्ञानिक प्रभाव हुआ जो दागदारों की कार्यशैली के बदलाव के रूप में नजर आया। बाद में दैनिक जागरण में रहते हुए अच्छी पहल करने वाले अधिकारियों पर नियोजन को लेकर स्व. बीएल यादव की इस कोशिश पर मैने स्टोरी तैयार की तो कानपुर की संपादकीय टीम जिसको व्यक्तिगत रूप से उनके विषय में कोई जानकारी भी नही थी। यह कहते हुए स्टोरी को छापने के विरोध में उतर आई कि कोई यादव अच्छा कार्य कैसे कर सकता है। भारतीय पत्रकारिता का सच यही है जो समाज को जागरूक करने का दंभ भरती है लेकिन अपनी जातिवादी मानसिकता के कारण उसकी खुद की जागरूकता संशय ग्रस्त बनी हुई है।
पाण्डेय की तरह उत्तर प्रदेश में भी डीजीपी की कुर्सी डेड ऑनेस्ट अफसर के पास
यह संयोग है कि बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी एक डेड ऑनेस्ट अधिकारी डीजीपी की कुर्सी पर है। हितेश चंद्र अवस्थी जैसी शख्सियत का यहां डीजीपी बन पाना वैसे मुश्किल था। लेकिन एक टीवी इंटरव्यू में मुख्यमंत्री से सजातियों को ही प्रशासन में बढ़ावा देने के बारे में गाइडेड सवाल पूंछ लिया गया। जिसके बाद वे इतने दबाव में आ गये कि ब्राहमणों को संतुष्ट करना उनकी मजबूरी बन गया और इसके चलते मुख्य सचिव व डीजीपी के पद पर साफ-सुथरी इमेज के अधिकारियों को अवसर मिल गया।
दुर्भाग्य यह है कि हितेश चंद्र अवस्थी के चार्ज संभालने के कुछ ही दिन बाद कोरोना का कहर टूट पड़ा। जिसमें व्यस्त हो जाने के कारण उन्हें अपने हिसाब से टीम गठित करने का मौका नही मिल पाया। यह तय है कि अगर अवस्थी को जिला पुलिस प्रमुखों की तैनाती में स्वतंत्रता पूर्वक निर्णय लेने का अवसर दिया गया तो ज्यादातर पुलिस कप्तान नप जायेगें। क्योंकि इन कुर्सियों पर अधिकांश ऐसे अफसर बैठे हुए हैं जो थाना देने के लिए अधिकतम कीमत वसूलते हैं। नोयडा से निलंबित हुए एसएसपी वैभव कृष्ण ने पांच आईपीएस अफसरों को मय सबूत के बेनकाब करके यह तस्वीर पटल पर ला दी थी जिसके बाद उन अफसरों को हाशिए पर फेंककर उनकी जांच तो शुरू करा दी गई लेकिन साथ में वैभव कृष्ण को भी नाप दिया गया और स्थिति को बदलने का कोई व्यापक प्रयास नही हुआ।
उत्तर प्रदेश सरकार का अपना आरक्षण सुधार में बाधा
इसकी वजह यह है कि संविधान ने तो दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिया है जबकि योगी सरकार का स्वयंभू आरक्षण जनरल कास्ट के पक्ष में है। जिला पुलिस प्रमुखों से लेकर थानेदारों तक में अधिकतम नियुक्तियां जनरल कास्ट के लोगों की करने के अघोषित आदेश हैं। जिससे यहां विकल्प बहुत सीमित हो जा रहे हैं। अगर अधिकारियों और थानेदारों को सर्वे बिहार की तर्ज पर यहां कराने की कोशिश की जाये तो जनरल कास्ट के लोग सिमट जायेगें क्योंकि अभी मुख्य पदों पर उनका ही बर्चस्व है तो सर्वे में उन्हीं की बदनामियां सामने आयेगीं। बहरहाल जो भी हो लेकिन सुशासन की पहचान को वर्तमान राज्य सरकार भी अपने गौरव के लिए आवश्यक मानती है तो उसे यह जोखिम मोल लेना ही पड़ेगा।






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