एक ओर अमेरिका में अफ्रीकी मूल के नागरिक 46 वर्षीय जार्ज फ्लाइड की पुलिस दमन के दौरान हुई मौत के कारण वहां कई शहरों में भड़के बेकाबू दंगों को देखकर भारत के बौद्धिक क्रांतिकारी तत्वों की बाजुएं सोशल मीडिया पर ऐसा ही अपने देश में होने की नौबत आ जाने का दिवास्वप्न देखते हुए फड़क उठी हैं दूसरी ओर आईएएनएस-सी का सर्वे सामने आया है जिसमें खुलासा हुआ है कि लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों को चाहे जितनी दर्दनाक स्थितियां झेलनी पड़ी हों लेकिन अभी भी देश की बहुसंख्यक जनता के मसीहा के तौर पर अपनी छवि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रतिद्वंदियों से बहुत आगे हैं बल्कि इस सर्वे का निष्कर्ष यह है कि उनको टक्कर देने वाला कोई नेता अब इस देश में नही है।
यूपी में 60 प्रतिशत से अधिक लोगों की पसंद पर अभी भी बरकरार मोदी
उत्तर प्रदेश और बिहार में उनकी लोकप्रियता इस समय भी 60 प्रतिशत से अधिक आवाम में बरकरार है। बहुत से लोगों को यह सर्वे प्रायोजित लग सकता है लेकिन उन्हें किसी गलत फहमी में नही रहना चाहिए। मोदी अपना सिक्का जिस तरह देश के जनमानस में गहराइयों तक जमा चुके हैं उसके पीछे निश्चित रूप से बाजीगरी और सम्मोहन से जुड़ी हुई रणनीतियां भी हैं। जिनके सामने तर्क संगतता का कोई औचित्य नही रह गया है। दूसरी ओर उनके प्रतिद्वंदी नेता लगातार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में हैं क्योंकि वे कितनी भी सटीक आलोचना करें लेकिन लोगों के बीच असर डालना तो दूर खिल्ली के पात्र बन जाते हैं।
भारत में दम तोड़ गई मानवाधिकारों की वैश्विक लहर
राजनीति के केंद्र में मानवाधिकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता पर स्थापित किया जाना पिछली सदी में परिवर्तन की नैसर्गिक गति के अनुरूप होने की वजह से विश्वव्यापी लहर बन गया था और सामाजिक बहुलता व विविधता वाले देशों में विशेष अवसर का सिद्धांत कमजोर वर्गों के लिए स्त्री-पुरुष समानता अधिकार, मजदूरों को शोषण के विरुद्ध अधिकार आदि के साथ अनिवार्य हो गया था। आजादी के बाद इसी लहर के कारण कांग्रेस की सत्ता के विरुद्ध वैकल्पिक राजनीति को मजबूत करने के क्रम में जोरशोर से उठाने के लिए इन्ही मुददों को पहचाना गया। 90 का दशक आते-आते संयुक्त मोर्चा, वाम मोर्चा का युग इसका चर्मोत्कर्ष था।
घुसपैठिये ही बन गये थे बौद्धिक अभिभावक
लेकिन यह युग अपनी तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही स्खलित हो गया। इसे किसी और ने ठिकाने नही लगाया घर को लगी आग घर के ही चिराग से अपने ही विभीषण इसके लिए जिम्मेदार रहे। इस आंदोलन की कमान फासिस्ट, व्यवस्था विरोधी और सामंती मानसिकता के उन लोगों के हाथ में चली गई थी जो हासिए पर रहने के दौरान खुद ही सामंतवाद से पीड़ित रहे थे। दूसरी ओर सामाजिक न्याय की राजनीति में बहुत पहले से ऐसे बौद्धिकों ने घुसपैठ बनाना शुरू कर दी थी जो इसका दिखावा भर करते थे और पांडित्य से भरपूर होने के कारण इस मामले में उनकी महानता को सर्वोच्च आंका जाता था लेकिन शातिरपना यह था कि वास्तविकता में वे सामाजिक यथास्थिति में कोई बदलाव नही होना देना चाहते थे। यही लोग सामाजिक न्याय की लड़ाई के चैम्पियनों के अभिभावक बन चुके थे। इसलिए उन्होंने लोकतंत्र के मानवाधिकार वादी एजेंडे को अपने मुकाम पर पहुंचते देखा तो उनकी वर्ग चेतना उभर आई और उन्होंने अपनी ही लंका में आग लगा दी।
मानवाधिकार वाद ही एजेंडे के विरुद्ध हैं भारतीय संस्कार
भारतीय समाज में शासक वर्ग की कल्पना का जो राष्ट्र है उसमें न लोकतंत्र के लिए और न ही मानवाधिकार वादी एजेंडे के लिए दिखावे से अधिक कुछ करने की गुंजाइश है। इस राष्ट्र में पद और अधिकार कुछ वर्गों का पेटेंट हैं। इसलिए इनके विकेंद्रीकरण से देश बेहतर बनता हो तो इनकी बला से। भाजपा के सत्ता में आने के बाद जितनी घृणा पूर्ण पोस्ट मुसलमानों के खिलाफ सोशल मीडिया पर गिरतीं हैं उससे ज्यादा आरक्षण की परिधि में आने वाले तबकों के खिलाफ पड़ती हैं। उन्हें गधा और वायरस की उपाधियों से नवाजा जाना तो आम बात है मां-बहन की गालियां के इस्तेमाल से भी नही बख्शा जाता। कोई और देश हो तो लोगों का स्वाभिमान खौल जाये लेकिन यहां कुछ वर्षों से हर चुनाव का रिजल्ट बता रहा है कि पीड़ितों को ही अपनी यह अवमानना शिरोधार्य है। केंद्रीय मंत्रिमंडल, राज्यों के मंत्रिमंडल, प्रशासन सभी जगह महत्वपूर्ण पदों पर पिछड़ों, दलितों की उपस्थिति न्यूनतम होते जाने की खबरें लगातार छपतीं हैं, भाजपा के वंचित वर्ग के नेताओं का सब्र भी इसकी वजह से टूट रहा है। फिर भी भाजपा को व्यापक तौर पर कहीं कुछ खोना नही पड़ रहा है।
उन्हें तो मंजूर है हाशिए पर ही रहना
जब खुद हाशिए पर पड़े बहुसंख्यक वर्ग की वर्चस्ववादी व्यवस्था में स्वीकृति हो तो यहां अमेरिका जैसे उद्वेलन की पुनरावृत्ति कैसे संभव है। प्रवासी मजदूरों में पुश्तैनीपना पर गौर करना चाहिए यानि वे भी पीढ़ियों से हाशिए पर रहते आये वर्गों में से ही हैं। उनकी चेतना में जब प्रतिरोध है ही नही तो उन्हें कितनी भी तकलीफ क्यों न हो लेकिन वे चलेगें अपनी ही राह पर जिस पर चलने का अभ्यास उन्हें सदियों से है। वह राह जो उन्हें देश में कुर्सी के ईश्वरीय अधिकार से लैस लोगों के कदमों में बैठने का मौका मिलने पर ही धन्य होने का अनुभव कराती है।

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