भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था किसी भी सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए और यह तब संभव है जब सरकार की गंगोत्री यानि मंत्रिमंडल में शामिल लोग साफ-सुथरे हों। उत्तर प्रदेश की एसटीएफ ने हाल में आटा की आपूर्ति का ठेका दिलाने के लिए हुई 9 करोड़ 79 लाख रुपये की धोखाधड़ी के जिस मामले में कार्रवाई की है उसमें पशुधन राज्य मंत्री रजनीश दीक्षित के निजी सचिव को गिरफ्तार किये जाने से सरकार के अंदरूनी हालातों की झलक मिल गई है।
कैसे हो गया दिया तले अंधेरा
मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने पदभार संभालते ही भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टोलरेंस की नीति की घोषणा की थी। लेकिन तब दिया तले अंधेरे की कहावत चरितार्थ हो गई थी जब उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का निजी स्टॉफ काम कराने के लिए डील करते हुए स्टिंग ऑपरेशन में पकड़ लिया गया। इसके बाद अपने मंत्रिमंडल के पहले पुनर्गठन में योगी ने कुछ मंत्रियों की छुटटी कर दी और कुछ के पर कतर दिये जो बेहद प्रभावशाली थे।
मुख्यमंत्री के क्यों बंधे हैं हाथ
मुख्यमंत्री के इस कठोर रुख से कुछ दिनों तक उनके सहयोगियों में खौफ रहा लेकिन यह स्थिति ज्यादा दिनों तक कायम नही रह सकी। इसके कारणों पर विचार करते हुए यह बात भी सामने आती है कि मुख्यमंत्री के हाथ ऊपरी हस्तक्षेप के चलते पूरी तरह खुले हुए नही हैं। कई दागी मंत्रियों को हटाने में वे इस कारण नाकामयाब हो गये थे क्योंकि उन्हें शीर्ष नेतृत्व का वरदहस्त प्राप्त था।
पटरी से उतरी प्राथमिकताएं
दरअसल मुख्यमंत्री के सामने यह स्पष्ट है कि जन समर्थन जुटाने में विकास, स्वच्छ शासन-प्रशासन और प्रभावी कानून व्यवस्था जैसे मुददे ज्यादा महत्व नही रखते। इसलिए उन्होंने भावनात्मक एजेंडे को आगे बढ़ाया। बसपा का बहुजन फार्मूला बेहद कारगर था लेकिन सत्ता पाने और उसे मुटठी में बनाये रखने की अधीरता में मायावती ने अपना भावनात्मक एजेंडा दरकिनार कर दिया और शासन की स्वाभाविक प्राथमिकताओं में बढ़त लेकर सिक्का जमाने की कोशिश की जिसमें वे बुरी तरह फेल रहीं। मायावती के इस हश्र से योगी ने कहीं न कहीं सबक सीखा है इसलिए उन्होंने ट्रैक बदला और गुड गवर्नेन्स के फेर में पड़ने के बजाय जिलों के नाम बदलकर उन्होंने भावनात्मक मुददों पर आगे बढ़ने की शुरूआत की। संकीर्ण राजनीति को लेकर उनकी आलोचना भी हुई, यहां तक कि केंद्रीय नेतृत्व को भी उनके तौर-तरीके रास नही आये लेकिन वे टस से मस नही हुए। आज हालत यह है कि उनके कटटरवादी रवैये को बड़ी जन स्वीकृति मिल चुकी है और उन्होंने उत्तर प्रदेश में अपनी व्यक्तिगत स्थिति इतनी मजबूत कर ली है कि लखनऊ में मोदी नही योगी चाहिए के पोस्टर तक लग गये हैं।
कैलकुलेटिव योगी की कूटनीति
पर योगी संत होकर भी बहुत ही कैलकुलेटिव हैं। उन्होंने अपनी मंजिल तय कर रखी है। जिसकी ओर आहिस्ते-आहिस्ते आगे बढ़ने की निपुणता दिखा रहे हैं। वे नही चाहते कि केंद्रीय नेतृत्व के प्रतिद्वंदी के रूप में उनकी छवि बने और उनका पहले कौर में ही बिस्मिल्लाह हो जाये। इसकी बजाय उन्हें फिलहाल अनुयायी बने रहकर अपनी जड़ें मजबूत करते जाने की रणनीति पर भरोसा है। खबर है कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन के बड़े पदों पर नियुक्तियां दिल्ली के निर्देशों पर होती हैं। इसलिए कई भ्रष्ट अफसर ऊपर के लोगों के कृपा पात्र होने के कारण प्राइज पोस्टिंग हासिल करने में सफल हो रहे हैं। योगी इसका कोई प्रतिरोध नही करना चाहते। मंत्रियों के मामले मे भी उन्होंने इसी तरह टकराव से बचने की नीति अपना रखी है।
भ्रष्टाचार को लेकर संघ भी क्यों नही है दो-टूक
संघ को भी भ्रष्टाचार रोकने और विकास के मामले में बहुत दिलचस्पी नही है, भले ही संघ प्रमुख कहते हों कि उनका काम व्यक्ति और समाज का निर्माण करना हैं। इसी कारण संघ मंत्रियों और अधिकारियों को लेकर भ्रष्टाचार के आरोपों पर कान नही धर रहा। संघ समाज के उस पुराने मॉडल को पुनर्जीवित करने के लिए प्रतिबद्ध है जो उसका आदर्श है। उसे जो चाहिए योगी कर रहे हैं। इसलिए योगी संघ के और ज्यादा प्रिय बनते जा रहे हैं और वे यही चाहते हैं।
रहस्य जानना नही रहा मुश्किल
बहरहाल मंत्री का निजी स्टॉफ अपने बॉस की बिना जानकारी के गड़बड़ियां करे यह संभव नही है। इसलिए अपने निजी सचिव के कारनामें के छीटों से पशुधन राज्य मंत्री खुद को बचाना चाहें तो यह मुश्किल है। आम धारणा यह है कि अकेले पशुधन राज्य मंत्री ही नही ज्यादातर मंत्री इस सरकार में खुला खेल फर्रुखाबादी खेल रहे हैं। भ्रष्टाचार के मामले में खुद निष्कलंक होते हुए भी योगी व्यापक रूप से इस मोर्चे पर निर्णायक क्यों नही होना चाहते इसका रहस्य जाहिर है कि अबूझ नही है।

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