विश्व बाजार की निगाह में दुनियां का सबसे बड़ा चारागाह बने भारत में राष्ट्रवाद के चरम पर दिख रहे उन्माद की तासीर को समझने की जरूरत है। प्रायोजित राष्ट्रवाद अर्थ का अनर्थ करने वाला है। यह अपनी प्रकृति और परिणाम में राष्ट्रवाद की मूल परिभाषा से अलग है।
द्वितीय विश्व युद्ध में तबाह होकर भी बहुत जल्द ही उठ खड़े होने वाले और अपनी इच्छा शक्ति से सारे नुकसानों की भरपाई कर दुनियां की बड़ी औद्योगिक महाशक्ति बन जाने वाले जापान का उदाहरण राष्ट्रवाद की चर्चा में दिया जाता है। भारत में एक बड़े वर्ग के लिए जापान राष्ट्रवादी भावनाओं की प्रेरणा का स्रोत रहा है।
जापान में बच्चे-बच्चे ने उत्पादन के लिए जिस लगन और परिश्रम से काम किया राष्ट्रवाद उसमें निहित था। चीन का राष्ट्रवाद दूसरे किस्म का है। साम्यवाद जैसी अंतर्राष्ट्रीयतावादी विचारधारा को अपनाने के बावजूद उसने राष्ट्रवाद को इसलिए चुना क्योंकि इसकी बदौलत वह दुनियां के बाजार को अपने माल से पाट देने में सक्षम बना।
भारत की स्थितियां अलग हैं। विश्व व्यापार में प्रतिस्पर्धा के लिए वह अपने को खड़ा तक नही कर पाया। दूसरी ओर समाज के रूपांतरण के कारण यहां उत्पादों की खपत की गुंजाइश सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रही है।
भारत के राष्ट्रवाद के उत्प्रेरक सोशल मीडिया के विदेशी प्लेटफार्म हैं। उन्हें ज्यादा से ज्यादा यूजर्स की यहां जरूरत थी तांकि दुनियां भर की कंपनियों के उत्पादों के लिए वे विज्ञापनों के जरिये यहां के लोगों को लुभाने में कारगर भूमिका अदा कर सकें। इस मामले में उन्हें जनमत को विकृत करने के नुस्खे से बहुत ज्यादा बढ़त मिली। सोशल मीडिया के ये प्लेटफार्म संकीर्ण और कटटरवादी भावनाओं के केंद्र बना दिये गये। विषवमन यहां तक कि अश्लील और अमर्यादित भाषा इन मंचों पर अभिव्यक्ति की पहचान बन गयी है। जिसके द्वारा लोगों का जोश अपने साथ जुड़ने के लिए बढ़ाने में इन मंचों को बहुत सहयोग मिला है।
इससे राष्ट्रवाद का अर्थ ही बदल गया है क्योंकि अब यह सोचने वाली बात है कि ऐसे राष्ट्रवाद से राष्ट्र का क्या भला हो रहा है। यदि स्वाभाविक राष्ट्रवादी उफान आता तो सबसे पहले तो सोशल मीडिया के देशी प्लेटफार्म तैयार करने और मजबूत करने की भावना दिखाई जाती। समाज में और भी बहुत परिवर्तन होते। डॉक्टर बीमारों के सही इलाज के लिए हर तरह के लालच से ऊपर उठकर जुट पड़ते तांकि दुनियां में भारत की चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाओं की विश्वसनीयता को सबसे ऊपर कर सकें। शिक्षक नई पीढ़ी को गढ़ने के लिए जान लगा देने में निष्ठा पूर्वक दौड़ जाते, नौकरशाही कारगर प्रशासन देकर यहां की गवर्नेंस को पूरी दुनियां के लिए मानक बना देने का जुनून दिखाती, इंजीनियर कमीशन के लिए ढांचागत विकास की नींव को खोखला करने से बाज आते।
पर यहां जिम्मेदार जो कर रहे हैं वह राष्ट्र को बर्बादी की ओर ले जाने में सहायक सिद्ध हो रहा है। कर्तव्यहीनता की पराकाष्ठा हो चुकी है। उस पर तुर्रा यह है कि जापान में तो एक ही नस्ल के लोग हों पर भारत में जहां जाति, धर्म, नस्ल, संस्कृति को लेकर इतनी विभिन्नताएं हैं वहां राष्ट्र को सुगठित करने की चुनौती के लिए सामंजस्य और भाईचारे की भावना को खाद देने की जरूरत है पर हो इसका उलटा रहा है। आपसी सौहार्द को बिगाड़ने में पूरी ऊर्जा खपायी जा रही है। जातिगत संगठनों के जरिये राष्ट्रीय पहचान को गौण करने में कसर नही छोड़ी जा रही है। जबकि यह सब अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। लोगों को यह भी ख्याल नही है कि दमनकारी शासन तंत्र से देश को संगठित रखने की कल्पना कितनी थोथी और खतरनाक है। मीडिया को भी मालूम है कि टीआरपी बढ़ाने के लिए अपने मंच को विषवमन का अखाड़ा बना देने का फार्मूला कितना कारगर है। टीआरपी बढ़ेगी तभी विज्ञापन बढ़ेगें लेकिन इस उपभोक्तावाद के विस्तार से देश को क्या मिलेगा। यह आपाधापी देश के संसाधनों का विदेशी कंपनियों द्वारा अधिकतम दोहन का जरिया साबित हो रहा है। यहां तक कि इस छदम राष्ट्रवाद के दौर में चीनी कंपनियों ने यहां सबसे ज्यादा फायदा उठाया है।
प्रायोजित राष्ट्रवाद के इन परिणामों से देश के लिए दूरगामी तौर पर कितने बड़े खतरे को न्यौता जा रहा है यह समय रहते भांपने की जरूरत है। देश को आत्मनिर्भर और वैश्विक सूचकांको की प्रतिस्पर्धा में ऊंचाई पर बिठाने के लिए संकल्प जगाने वाला राष्ट्रवाद चाहिए जिसकी बुनियाद कर्तव्यबोध और नैतिक मूल्यों में आस्था को मजबूत करने से तैयार होगी।

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