20 सैनिकों के शहीद होने के बाद सारे देश में चीन के खिलाफ तेज गुस्सा भड़क रहा है जो लाजमी है। कहा जा रहा है कि चीन ने हमारे साथ एक बार फिर धोखा किया। लेकिन सवाल यह है कि हमारा नेतृत्व इतना मासूम क्यों है कि चीन जैसे देश को नही समझ पाया। चीन ने पहले भी कौन सा ऐसा काम किया जिससे यह विश्वास किया जा सके कि वह भारत का हमदर्द हो सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को स्थाई सदस्यता देने का प्रस्ताव जब भी आया चीन ने अड़ंगा डालने में कोई कसर नही छोड़ी। मसूद अजहर को उसने भारत के लाख सिर पटकने के बाद भी अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित नही होने दिया। लब्बोलुआब यह है कि भारत के प्रति रंजिश की उसकी नीति हमेशा स्पष्ट रही है लेकिन फिर भी हम चीनी नेताओं के स्वागत में पलक पावड़े बिछाते रहे।
शत्रु के लिए क्यों तुड़ाते रहे खूंटा
चीन के प्रति इस बेतुकी अनुरक्ति की परतें खोली जायें तो कई ऐसे तथ्य सामने आ सकते हैं जो हमारे नेतृत्व की राष्ट्रीय निष्ठा को ढुलमुल साबित करने वाले होगें। चीन को साधे रहने के पीछे केवल कूटनीतिक मजबूरियां नही रहीं और भी कई कारण हैं। सरकार अपने चहेते उद्योगपतियों के कारोबारी हितों के मुताबिक विदेश नीति तय करती है। हमारे प्रधानमंत्री जब मियां नवाज शरीफ के घर बिना बुलाये पहुंच गये थे तो यह चर्चा सामने आई थी कि अपने एक उद्योगपति मित्र के कहने से उन्हें जग हसाई का यह काम करना पड़ा था जिसके कारोबारी हित पाकिस्तान में दांव पर लगे हुए थे। इस पर तत्काल ही खबरें छपी भी थी लेकिन इसके बाद इसका फालोअप रोक दिया गया। चीनी नेताओं के प्रति जो सदभाव उसके शत्रुतापूर्ण रुख के बावजूद उफान मारता रहा उसके पीछे भी सरकार के नजदीकी उद्योगपतियों की कोंचना मानी जाती है। सभी जानते है कि अंबानी के जियो का किस कदर चीनी कंपनियों से घालमेल है। अकेले दूरसंचार के क्षेत्र में ही नही अन्य कई क्षेत्रों में भी रिलायंस के उपक्रमों के चीन प्रायोजित होने की बात छुपी नही है।
आत्म निर्भरता का आसमानी राग
कोरोना दौर में आत्म निर्भर भारत का पुराना शगूफा मंत्र मुग्ध करने वाले नये अंदाज में गुंजाया गया था। हालांकि यह सरकार शुरू से ही इसका राग लोगों के राष्ट्रीय स्वाभिमान को सहलाने के लिए छेड़ती रही थी। पर भाषणों में यह सरकार जिन मुददों को लच्छेदार ढंग से उठाती है उन्हें अमल में लाने की कोई कार्ययोजना नही बनाती। अगर शुरू से आत्म निर्भर भारत की कटिबद्धता दिखाई जाती तो यह संभव नही था कि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत खड़ा नही हो पाता। यहां के उद्यमियों में कौशल, जीवट सब कुछ है बशर्ते उन्हें प्रोत्साहन मिले। घड़ी छाप साबुन जैसी अदनी कोशिश इसका उदाहरण है। जिसकी बदौलत साबुन, डिटर्जेंट के क्षेत्र में लीवर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का साम्राज्य हिल गया था। पर स्टार्टअप के दौर में कोई ऐसा स्टार्टअप नही कराया जा सका तो उसके कारण हैं अंबानी, अडानी की खातिर ऐसी कोशिशों की बलि चढ़ाई जाती रही तांकि उद्योग व्यापार में ऊपर से नीचे तक एकाधिकार के उनके मंसूबे पूरे हो सकें। अंबानी साहब की विशेषता यह है कि वे कुछ बनाते नही हैं उनका काम चीन से पुर्जे मंगवाकर असेम्बल करके अपना ठप्पा लगा देना है। इन हालातों में आत्म निर्भर भारत कैसे बने यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में आत्म निर्भर होने की बजाय देश चीन का मोहताज होता रहा। न केवल देश का बाजार चीन के माल से पट गया बल्कि हर बड़े प्रोजेक्ट का ठेका चीन के हाथों चला गया। आज भारत में चीन का व्यापारिक प्रभुत्व इतने जबर्दस्त तरीके से कायम हो चुका है कि उसके आर्थिक बहिष्कार की डींग हास्यास्पद लगने लगी है।
लोगों की आदतें बदलने की चुनौती की नजरअंदाज
समाज की आदतें बदलने के लिए संकल्पों को चरितार्थ करने की पद्धति निर्धारित करनी पड़ती है। भारतीय समाज में गुलामी के लंबे दौर के कारण विदेशी चीजों और संस्कृति के प्रति लोगों का आकर्षण बौरायेपन की हद तक है। ऐसे समाज में अपनी पहचान और हितों के लिए किसी भी कीमत पर कटिबद्ध रहने का जुनून भरने की जो जरूरत थी राष्ट्रवादी सरकार ने उसके लिए कोई यथार्थ संकल्प नही दिखाया। मसलन क्या उसने कोशिश की कि सोशल मीडिया के क्षेत्र में ही जो कि अच्छा खासा कारोबारी क्षेत्र बन चुका है किसी देशी विकल्प को मजबूत किया जाये। भारतीय जनता पार्टी अपने को दुनियां की सबसे बड़ी पार्टी बता रही है उसका दावा है कि उसकी सदस्य संख्या 10 करोड़ तक पहुंच चुकी है। अगर वह घोषित कर देती कि अमुक सोशल प्लेटफार्म पर ही भारतीय जनता पार्टी के सदस्य आपस में संवाद करेंगे तो वह प्लेटफार्म देश के अंदर फेसबुक, टविटर और व्हाटसएप से आगे निकल जाता। जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनके मुताबिक फेसबुक में भी आज के समय सबसे बड़ा निवेश चीन का है और इसकी सेवा करके हम अपने शत्रु को पोस रहे हैं। बिडंबना यह है कि हमारा नेतृत्व हीन भावना का शिकार है। जिसके कारण लोगों में अपने प्रति सच्ची आस्था पर उसे विश्वास ही नही होता। इस कारण उसका झुकाव ब्राडिंग के हथकंडों की ओर है जो लोगों में तात्कालिक और नकली दीवानापन भरती है। इस चक्कर में सोशल मीडिया के विदेशी मंचों पर अपनी उपस्थिति के लिए वह सबसे आगे लोलुपता दिखाता है। भारतीय संस्कृति मर्यादाओं और शील की संस्कृति है। टिकटाक जैसे लंपट चायनीज प्लेटफार्म दूसरी पार्टियों के शासन में प्रोत्साहित होते तो समझा जा सकता था लेकिन संस्कृति का डंका पीटने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार खासतौर से बच्चों के संस्कार बिगाड़ने वाले इस प्लेटफार्म को पोसे यह बहुत चुभता है।
बना दी चुनावबाज पार्टी
अब लगता है कि अटल-आडवाणी युग तक सचमुच भारतीय जनता पार्टी में औरों से अलग हटकर छवि बनाने की तड़प थी। उसका मॉडल आदर्श समाज का निर्माण था। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी आज केवल चुनावबाज पार्टी बनकर रह गई है। इसे प्रचार के चकाचौंध में पानी की तरह पैसा बहाने, अप्रत्यक्ष चुनाव और विपक्षियों की सरकार बिगाड़ने के लिए उनके लोगों की खरीद-फरोख्त हेतु बहुत बड़ा फंड चाहिए। इसलिए उद्योगपतियों के हाथों खेलना उसकी नियति बन गया है। देश भक्ति के नाटकीय करतबों से देश मजबूत नही होता। उसके लिए हर स्तर पर ठोस कार्रवाइयों की जरूरत पड़ती है। राष्ट्रीय नेतृत्व को इस मामले में गंभीरता दिखानी होगी वरना देश का बड़ा नुकसान हो जायेगा।






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