पशु पालन विभाग में आटा सप्लाई का ठेका दिलाने के नाम पर एक व्यापारी से 9 करोड़ 72 लाख रुपये हड़प लिये जाने के मामले में एक आईएएस और एक आईपीएस अधिकारी भी एसटीएफ जांच के रडार पर है। यह अलग बात है कि देश के सबसे शक्तिशाली संवर्ग के इन अधिकारियों के रसूख के देखते हुए कहीं इस जांच का पटाक्षेप शुरू होने के पहले ही न कर दिया जाये। वरिष्ठ अधिकारियों के पतन की पराकाष्ठा को दर्शाने वाला यह कोई पहला मामला नही है। पहले से ही आये दिन जिम्मेदार अधिकारियों को लेकर सनसनीखेज आरोप सामने आते रहते हैं फिर भी उच्च नौकरशाही को आदर्श आचारसंहिता में बांधने की किसी गंभीर कोशिश का अभाव बना हुआ है। यह अनदेखी बेहद खेद जनक है। क्योंकि आईएएस और आईपीएस संवर्ग के अधिकारी प्रशासन और विधि व्यवस्था की रीढ़ है। जाहिर है कि जब रीढ़ ही कमजोर हो जायेगी तो दमदार शासन और प्रशासन की कल्पना कैसे की जा सकेगी।
गरिमा भूलकर निर्लज्ज हो गये हैं अधिकारी
आईएएस और आईपीएस संवर्ग अपनी एक गरिमा है लेकिन कुछ दशकों से लालच और गलत शौक उन्हें पथ भ्रष्ट और निर्लज्ज करने के कारण बन गये हैं। 2000 के दशक तक युवा आईएएस अपने सीनियरों की इन करतूतों को आत्मसात करने की बजाय विद्रोह की मुद्रा में रहते थे। कल्याण सिंह के दूसरे मुख्यमंत्रित्व काल में संवर्ग के विवादित वरिष्ठों को शर्मसार करने के लिए युवा आईएएस अधिकारियों ने अपनों के बीच महाभ्रष्ट का चुनाव करा दिया था जिससे खलबली मच गई थी। लेकिन बाद में जो राजनैतिक परिस्थितियां बनी उनमें उसूलों पर टिके रहने पर आदर्शवादी आईएएस अधिकारियों को अस्तित्व के खतरे से घिर जाना पड़ा। अंततोगत्वा पूरे कुएं में भांग पड़ गई। नौकरशाही में सभी प्रैक्टिकल हो गये जिससे आदर्शवादियों की नस्ल ही खत्म हो गई।
अच्छे समाज निर्माण की धुरी बन सकती है अफसरशाही
नौकरशाही को भले ही सेवक का दर्जा दिया जाता हो लेकिन यह केवल मुहावरे की बात है। अपनी भूमिका और प्रभाव की वजह से उच्च प्रशासनिक संवर्ग के अधिकारी समाज के चरित्र निर्माण में भी योगदान करते हैं। पहले जब अधिकारियों को अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा रुपयों से ज्यादा प्यारी थी तब वे इस कर्तव्यबोध के लिए भी सचेत दिखते थे। सत्ता से जुड़े घटिया नेताओं का दबाव उस समय भी अधिकारियों को झेलना पड़ता था लेकिन वे ऐसे लोगों के प्रति ना पसंदगी जताने से नही चूंकते थे। दूसरी ओर उनका प्रयास होता था कि समाज के अच्छे लोगों को संगठित करके निहित स्वार्थों से व्यवस्था की पवित्रता की रक्षा की जाये जिसके कारण जनमानस में अच्छे नेतृत्व को उभारने और बल प्रदान करने के लिए केंद्र बिंदु बन जाते थे। पर अब अधिकारियों का जमीर मर चुका है। वे खुद ही गंदगी के तालाब में तैरना चाहते हैं। घटिया राजनीति के साथ घुलमिल जाना उन्हें रास आ रहा है। उन्हें स्वयं ही ऐसे नेताओं की तलाश रहती है जिनके काम करके वे सरकार में अपना सिक्का मजबूत रख सकें। दूसरी ओर आम लोगों की फरियादों के प्रति उन्होंने निष्ठुरता ओढ़ ली है। जिससे संवेदनशील प्रशासन का नारा बेमानी होकर रह गया है। कैरियर मैनेजमेंट और पुरस्कार बटोरने की कलाबाजियां सफलता का मापदंड बन गईं हैं। इस गिरावट की वजह से प्रशासन ने अपना पौरुष खो दिया है। निहित स्वार्थो से मुकाबला करने की इच्छा शक्ति की बलि चढ़ाकर उन्होंने समाज के निर्माण में सार्थक हस्तक्षेप का अपना असर गंवा दिया है।
बदमाशी के लिए मीडिया का टैग सबसे सुरक्षित
अधिकारियों को अब दलालों और सप्लायरों की सोहबत रास आने लगी है। बिडंबना यह है कि लायजनर अब मीडिया का चोला ओढ़कर काम कर रहे हैं। चूंकि इस देश में कानून केवल निरीह मजदूरों और किसानों पर हेकड़ी दिखाने के लिए रह गया है। जबकि पत्रकार, वकील, डॉक्टर, उद्योगपति इत्यादि कानून से ऊपर मान लिए गये हैं। इसलिए अगर किसी पर मीडिया टैग लगा है तो वह क्या गुल खिलाता है यह जानने के बावजूद भी आम आदमी से लेकर शासन प्रशासन तक उसकी ओर दृष्टिपात करने का साहस नही कर पाते। यह संयोग नही है कि जिला पुलिस प्रमुखों से थानों में इंचार्ज बनवाने के लिए नोयडा में सौदेबाजी करते पकड़े गये दलाल तथाकथित मीडियाकर्मी थे और पशुपालन के फर्जीवाड़े के सूत्रधार भी छदमवेशी मीडियाकर्मी निकले। खबरे आईं हैं कि गिरफ्तार किया गया एक टीवी चैनल का पत्रकार सीनियर आईएएस अधिकारी की गाड़ी का इस्तेमाल करता था तांकि शासन प्रशासन में सेंध लगाने में उसे सुविधा हो सके।
सरकार में कुरीतियों के प्रति सॉफ्टकार्नर क्यों
वर्तमान सत्ताधारी अतीत में राजनैतिज्ञों और अधिकारियों के गठबंधन का नंगनाच देखते रहे थे। उस समय वे यह आभास कराते थे कि उनकी पार्टी जो औरों से अलग है जब पूरे पावर से सत्ता में आयेगी तो नौकरशाहों को अपनी जबावदेही का एहसास करा देगी। लेकिन ऐसी कोई सरगर्मी भाजपा की सरकार अभी तक नही दिखा सकी है। उसने ऐसा संस्थागत प्रयास भी नही किया जिससे नौकरशाही के बहकते कदमों को रोका जा सके। लोकायुक्त, बिजीलेंस, एंटीकरप्शन, ईओडब्ल्यू आदि विभाग उत्तर प्रदेश में शोपीस बने हुए हैं। पिछली सरकारों ने भी उन्हें पंगु बना रखा था और इस सरकार ने तो इनकी रही सही कसर भी निकाल कर रख दी है।
और भी गम हैं जमाने में बदले के सिवा
बेहतर होगा अगर मौजूदा सरकार इतिहास के प्रतिशोध को तृप्त करने के साथ-साथ शासन-प्रशासन के बुनियादी मोर्चे पर भी ध्यान दे। अधिकारियों को लगातार पतन के गर्त में गिरने से रोकने के लिए सरकार की कोशिशें सामने आनी चाहिए। साथ ही कानून के मामले में मुंह देखे व्यवहार की संस्कृति को दूर किया जाना चाहिए। हर व्यक्ति की अगर उसके क्रियाकलाप जरा भी संदिग्ध हों निगरानी की जाये भले ही उस पर कोई भी टैग क्यों न लगा हो।






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