25 जून को आपात काल लागू करने की याद में काला दिवस मनाने का रिवाज पिछले कुछ वर्षों से जोश खरोश के साथ चल पड़ा है। इसमें कई दिलचस्प बातें हैं। विपक्ष के वे दल जो एक जमाने में भाजपा को उसकी साम्प्रदायिक नीतियों के कारण सबसे बड़ा शैतान घोषित करते थे इस दिन भाजपा के साथ खड़े नजर आते हैं। वैसे भी लोकतंत्र सेनानी पेंशन की शुरूआत अपने को सबसे बड़ा समाजवादी योद्धा साबित कर चुके मुलायम सिंह यादव ने घोषित की थी। यह जानते हुए भी कि इससे संघ को सबसे ज्यादा बल मिलेगा। चूंकि आपात काल में जेल जाने वालों में संघ के स्वयं सेवक ज्यादा थे। इस तरह आपात काल विरोधी काला दिवस भाजपा के लिए कांग्रेस को विपक्ष में अलग-थलग करने का अस्त्र बन गया है। इस दिन आपात काल में राजनैतिक कार्यकर्ताओं के अमानुषिक उत्पीड़न की गाथाएं दोहराईं जाती हैं जिनकी वजह से पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ। लेकिन इस समय भी बड़ा विरोधाभास है। जहां 1977 के चुनाव में समूचे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था वहीं दक्षिण भारत कांग्रेस के साथ ही खड़ा रहा था। यह एक पहले है कि दक्षिण भारत के लोगों में आपात काल में हुए कथित अत्याचारों को लेकर गुस्सा क्यों नही घुमड़ा।
आपात काल विरोधी काला दिवस मनाकर यह संदेश दिया जाता है कि लोकतंत्र अपने परिणामों में कितना भी दुष्कर क्यों न हो जाये उसे बचाये रखने की प्रतिज्ञा से मुकरा नही जा सकता। ऐसे समय जब लोकतंत्र सिर्फ एक मुखौटा बनकर रह गया है उसके लिए कठोर प्रतिबद्धता का नाटक अजीब लगता है।
आज की स्थितियां देखें तो इस लोकतंत्र से लोक की कितनी सेवा हो पा रही है यह आंकलन अफसोस पैदा कर सकता है। चुनाव लोकतंत्र की आधारशिला है। लेकिन इसमें लोक के सहज विवेक की भूमिका समाप्त होती जा रही है। चुनाव में मंहगा प्रचार युद्ध निर्णायक बनता जा रहा है। जिसके कारण राजनैतिक दल उद्योगपतियों के बंधक होकर रह गये हैं। इसमें कोई आश्चर्य नही है कि देश की अर्थ व्यवस्था गर्त में जा रही है और चंद उद्योगपतियों की हैसियत हजारों गुना की रफ्तार से बढ़ रही है। जाहिर है कि लोकतंत्र देश की यानि लोगों की नही उद्योगपतियों की सेवा कर रहा है। दूसरी ओर सरकारें और कानून निहित स्वार्थों के आगे बेबस हो चुका है। नोटबंदी के समय बैंक के अधिकारियों और कर्मचारियों ने काला धन रखने वालों के नोट जमकर बदलवाये जिससे इस कदम के पीछे सरकार का जो उददेश्य था वह विफल हो गया। लेकिन सरकार कोई कार्रवाई इसलिए नही कर पाई क्योंकि उसमें बैंक कर्मचारियों की यूनियन का सामना करने का साहस नही था। कोरोना की आपदा के कारण देश की अर्थव्यवस्था रसातल में पहुंच गई है। दूसरी ओर राहत कार्यों और व्यवस्था के संचालन के लिए सरकार को फंड जुटाना राजस्व श्रोतों के बंद हो जाने के कारण मुश्किल हो रहा है। इस सरकार में बैठे लोग सत्ता में आने के पहले काला धन बाहर निकालकर देश को मालामाल कर देने का सपना लोगों को दिखाते थे। यह गलत भी नही था। अधिकारियों और नेताओं के पास बेशुमार लूट की वजह से अकूत धन है। अब मौका है कि सरकार पहले से ही निचुड़ी जनता का दोहन फंड के लिए करने की बजाय काले धन को बाहर निकालकर अपनी पूर्ति करने के बारे में सोचे लेकिन निहित स्वार्थों से टकराव मोल लेना उसके बूते में नही है। नतीजतन वह डीजल-पैट्रोल की कीमतें बढ़ाने जैसे उपायों से फंड की व्यवस्था करने में जुटी है। जिसकी मार आम लोगों पर पड़ रही है। इस तरह यह लोकतंत्र अराजकता और जनता के शोषण के तंत्र में बदल चुका है। इसे पटरी पर लाने के लिए आपात काल की कड़वी दवा के इस्तेमाल का अधिकार वर्तमान सरकार को भी अपने पास सुरक्षित रखना चाहिए। वैसे भी लोकतंत्र बिना विपक्ष के अर्थहीन है। इसलिए विपक्ष के सफाये को एक मात्र एजेंडा बनाने की मंशा भी लोकतंत्र के प्रति दुराग्रह को साबित करती है। भले ही इसका प्रकटन आपात काल विरोधी दिवस मनाने की आड़ में किया जाये।






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