लोकतंत्र – लोगो के द्वारा लोगों के लिये लोगों का शासन यही परिभाषा हम सबने पdh रखी है। लोकतंत्र मे लोगो को अपना शासन चुनने का अधिकार है जिसकी प्रक्रिया है चुनाव अर्थात मतदान जिसे लोकतंत्र का पर्व और हर मतदाता का कर्तव्य भी कहा गया है।
                  उदाहरण के तौर पर लोकसभा का 2019  का चुनाव जिसमें 4 जून 2019 ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 55 हजार करोड़ रुपये खर्च होता है और जनसत्ता की 10 अप्रैल 2019 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 80000 से 90000 करोड रुपए ख़र्च का आंकड़ा है ।अगर 80 हजार करोड़ भी 2019 में लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों औऱ उनके उम्मीदवारों का, चुनाव आयोग का कुल खर्च मान भी लिया जाए और उसके बाद राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनाव, विधान परिषद के चुनाव ,जिला पंचायत सदस्य, अध्यक्षों के चुनाव नगर पालिका, नगर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव सदस्यों के चुनाव ,ब्लाक प्रमुख ग्राम बीडीसी और ग्राम प्रधानों के समस्त चुनाव का 5 साल का खर्च अगर तीन लाख करोड़ भी जोड़ लिया जाए तो प्रतिवर्ष यह खर्च 60 हजार करोड़ होता है। यह सब खर्चआचार संहिता घोषित  होने के बाद होने वाले चुनाव का होता है। चुनाव से पहले राजनैतिक पार्टियां विभिन्न प्रकार की राजनीतिक गतिविधियां करती रहती है अपने कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी के प्रचार प्रसार के लिए तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित करती रहती विभिन्न दलों के विभिन्न प्रत्याशी जो टिकट की होड़ में लगे रहते हैं अपना पैसा खर्च करते रहते हैं जिससे कि वह मतदाताओं के बीच अपनी पहुंच बना सकें और उनका भरोसा जीत सके। 5 वर्ष सरकार और विपक्ष अपनी नीतियों के प्रचार प्रसार में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रिंट मीडिया और अब तो सोशल मीडिया जैसे समस्त संचार साधनों का यथासंभव उपयोग करता है।
          सवाल यह है कि देश की राजनीति में देश का 5 साल में अनुमानित लगभग 5 लाख करोड़ रुपए कम से कम खर्च होता है और यह पैसा आता कहां से है राजनैतिक पार्टियां उद्योग तो चलाती नहीं है जिससे कि उनकी कोई आमदनी का स्रोत हो राजनेता भी अधिकतर राजनीति ही करते है या उससे कमाये पैसे से व्यापार करते है ,राजनैतिक पार्टियों का कहना होता है कि वह अपने कार्यकर्ताओं और जनता के चंदे से अपनी राजनैतिक गतिविधियों के खर्चे उठाते हैं जोकि इतनी बड़ी रकम जुटाने के लिए भारत जैसे गरीब देश मे किसी भी प्रकार से संभव नहीं। अगर आप खुद को एक पार्टी के अध्यक्ष के तौर पर देखें तो आप पायेंगे कि आपके पास आमदनी जोकि चंदा कहा जाता है बमुश्किल पांच पर्सेंट आपके खर्चे उठा सकती है बाकी के 95% के लिए आपको जोड़तोड़ करनी है यहीं से शुरू होता है लोकतंत्र की मौत का सिलसिला राजनीति में सत्ताधारी दल विभिन्न प्रकार से भ्रष्टाचार करके अपनी पार्टी और नेता दोनों व्यक्तिगत संपत्तियों का निर्माण करते हैं चुनाव के वक्त बड़ी भारी मात्रा में बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स, ठेकेदारऔर कुछ चंदा भी आम जनता का सब कुछ लिया जाता है व्यापारियों को वादा किया जाता है उनके इन्वेस्टमेंट उनको अच्छी नीतियों के माध्यम से ठेकेदारी के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों जो देश में उपलब्ध है उनके माध्यमों से जबरदस्त मुनाफा दिया जाएगा। राजनीतिक दलों के आपसी संघर्ष और राजनीतिक परिस्थिति को देख कर के बाहुबल की भी आवश्यकता पड़ती है जिसके लिए अपराध जगत से जुड़े अपराधियों के साथ गठजोड़ किया जाता है उन्हें प्रशासन की तरफ से सहयोग का वादा किया जाता है और वही अपराधी राजनेता ठेकेदार कॉरपोरेट्स जब परोक्ष रूप से सत्ता के साथी बन जाते है तब देश के सभी प्रकार के संसाधनो को लूटा जाता है अपराधियों की गतिविधियों को नजरअंदाज किया जाता है उदाहरण के तौर पर आज सबसे बड़ा उदाहरण है कानपुर देहात का विकास दुबे नाम का एनकाउंटर में मारा गया अपराधी जिसने अपराध और राजनीतिक सत्ता के सहारे सैकड़ो करोड़ो का अपना काला साम्राज्य स्थापित कर लिया था कमोबेश यही हाल सभी प्रकार के सत्ता और गठजोड़ो का है। कॉरपोरेट्स को इस देश में लगभग 6 लाख करोड़ की सालाना सब्सिडी मिलती है देश में प्रतिवर्ष लगभग 50 लाख करोड़ के प्राकृतिक संसाधनों की खुलेआम लूट की जाती है दोनों तरफ अपराध समान है उनकी प्रकृति बदल जाती है जिससे कि कोई हिंसक अपराधी जितना खतरनाक मालूम पड़ता है उतना खतरा आर्थिक अपराधों में लिप्त बड़ी-बड़ी कंपनियां मालूम नहीं पड़ती है जिनकी मार सबसे अधिक देश के नागरिकों को झेलनी पड़ती है। इस पूरी लूट में शामिल होते हैं राजनेता राजनीतिक पार्टियां कॉरपोरेट्स और हमारे देश की ब्यूरोक्रेसी। अब यह कहना की सत्ता में भ्रष्टाचार होता है पुरानी बात हो गई है अब तो सत्ता भ्रष्टाचार करने के लिए ही बनाई जाती है जुगाड़ की जाती है या उसका सानिध्य प्राप्त किया जाता है बस लूट में शामिल होने की होड़ है,जिसकी कीमत पूरा देश और उस देश के नागरिक गरीबी भुखमरी बेरोजगारी आर्थिक असमानता के रूप में चुकाते हैं लोकतंत्र की मूल अवधारणा बहुसंख्यक लोगों का शासन है पर लोकतंत्र को इस तरह से गढ़ दिया गया है की सत्ता में भागीदारी बमुश्किल देश की कुल जनसंख्या का 1% लोगों की है जोकि किसी भी दल की सत्ता में खुद को समायोजित करने में माहिर हो चुके हैं आम आदमी को भारत जैसे विशाल देश में जहां पर धार्मिक और सामाजिक विषयताएं हैं उन विषमताओं में प्रायोजित प्रोपेगेंडा के माध्यम से उलझा दिया गया है आज देश की जो स्थिति है कोरोना वायरस और भारतीय अर्थव्यवस्था से आम आदमी की आर्थिक कमर टूट चुकी है आने वाले कम से कम 2 से 3 वर्षों तक वह अपनी रोजी-रोटी की जुगत मे ही लगा रहेगा, सत्ता अपने लूट का कार्यक्रम चलाती रहेगी वैसे भी आम आदमी को सत्ता ने छदम लक्ष्य दे कर के उलझा रखा है।आज जो लोग राजनैतिक पार्टियों के सिपाही बनकर अपने अधिकारों और कर्तव्यों के लिये सत्ता से सवाल नही कर रहे है वह अपनी आने वाली पीढ़ियों को तबाह कर रहे है।
      आज की परिस्थिति में कहना कि देश में लोकतंत्र है अपने आप में बहुत सारे सवाल खड़े करता है क्यो कि देश के नागरिकों ने देश में सही अर्थों मे चुनाव रूपी अपने ही हथियार से लोकतंत्र को मार दिया है।

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