– डा0 रविकांत चन्दन
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

ब्राह्मणों की नाराजगी से भाजपा का नुकसान होना तय है। भले ही भाजपा की नींव में ब्राह्मण रहा हो। लेकिन आज उ.प्र. में भाजपा सीधे तौर पर दो वर्चस्वशाली जातियों में विभाजित होती दिख रही है। इसका उत्तरदायी सीधे तौर पर योगी आदित्यनाथ को माना जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की राजनीतिक शुरूआत ही ठाकुर बनाम ब्राह्मण वर्चस्ववाद से होती है। पूर्वांचल में अच्छी खासी ताकत और दखल रखने वाले ब्राह्मण बाहुबली नेताओं की ताकत और वर्चस्व को तोड़कर आदित्यनाथ ने ठाकुरवाद के वर्चस्व को स्थापित किया। इसके बाद गोरखपुर और आसपास योगी आदित्यनाथ का एकछत्र दबदबा स्थापित हो गया।
योगी ने दबाव से हासिल की थी कुर्सी
2017 में समाजवादी पार्टी को हराकर दो तिहाई बहुमत के साथ भाजपा ने उ0प्र0 विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। नरेन्द्र मोदी का वन मैन शो बन चुकी भाजपा को उ.प्र. में मुख्यमंत्री चुनने में काफी लंबा वक्त लगा। इसका कारण सिर्फ योगी आदित्यनाथ का दबाव था। कुछ पत्रकारों का दावा है कि योगी ने नरेन्द्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को कड़ा संदेश दिया था कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया तो वे भाजपा को दो फाड़ कर देंगे। योगी आदित्यनाथ की यह धमकी या चेतावनी निराधार नहीं थी। योगी आदित्यनाथ पहले भी भाजपा के समानांतर बतौर युवा हिन्दू वाहिनी अध्यक्ष उ. प्र. में भिड़ चुके थे। योगी आदित्यनाथ भाजपा से भी अधिक कट्टर हिन्दूवादी राजनीति करने वाले माने जाते हैं। उनका भगवा चोला भी कट्टर हिन्दुत्व की राजनीति के लिए अधिक मुफीद है। शायद यही कारण था कि मोदी और शाह ने संभवतया संघ के दबाव में योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार किया। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि मोदी और योगी के बीच भी वर्चस्व को लेकर अंदरूनी तकरार है। लेकिन मोदी की ब्रांडिंग और चतुर रणनीतिक चालों के सामने योगी का सिक्का चलना आसान नहीं है।
मोदी के गुजरातवाद से योगी को लगा झटका
अपने दूसरे कार्यकाल में नरेन्द्र मोदी ने सत्ता और पार्टी में नंबर दो पर अमित शाह को स्थापित करके योगी की महत्वाकांक्षा को झटका दिया है। उग्र राष्ट्रवाद की खुली राजनीति करने वाले नरेन्द्र मोदी का संकीर्ण गुजराती उपराष्ट्रवाद किसी से छिपा नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में दूसरे गुजराती अमित शाह को ब्रांडिंग के लिए मौका दिया है। धारा 370 को खत्म करने से लेकर सीएए और एनआरसी जैसे कानून बनाने और उनका प्रतिनिधित्व करने का पूरा अवसर अमित शाह के हिस्से में जाना इसका पुख्ता सबूत है। भाजपा के भीतर और बाहर लगभग सभी इस बात को जानते हैं कि नरेन्द्र मोदी, अमित शाह के अलावा किसी संघ के नेता पर भी भरोसा नहीं करते। लेकिन मोदी की यही तारीफ है कि दो व्यक्ति केन्द्रित हो गई भाजपा में किसी तीसरे व्यक्ति में मोदी और शाह के किसी भी निर्णय का विरोध करने का साहस नहीं है।
फिर भी योगी मोदी-शाह के लिए साबित हो सकते हैं चुनौती
मोदी और शाह के सामने उत्तर भारत और हिन्दी पट्टी से योगी आदित्यनाथ के रूप में एक चुनौती हो सकती है। हिन्दुत्व और ठाकुरवाद के प्रतीक बन रहे योगी आदित्यनाथ को, ऐसा माना जाता है कि राजनाथ सिंह का समर्थन प्राप्त है। निश्चित तौर पर राजनाथ सिंह के मन में एक कसक अपने उस निर्णय को लेकर होगी जिससे उन्होंने बतौर भाजपा अध्यक्ष चुनाव प्रचार अभियान की कमान 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को सौंपी थी। माना जाता है कि उस मीटिंग में दिवंगत हो चुकी सुषमा स्वराज ने राजनाथ सिंह के इस फैसले का विरोध करते हुए कहा था कि वे बहुत बड़ी भूल करने जा रहे हैं। लेकिन शायद राजनाथ सिंह ने ऐसे चुनावी नतीजों की कल्पना नहीं की होगी। उनका अनुमान रहा होगा कि भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलेगा। ऐसी स्थिति में एनडीए की सरकार बनने पर अपेक्षाकृत उदार छवि के कारण उन्हें प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिलेगा। अपने उस निर्णय पर आज जरूर राजनाथ सिंह को सुषमा स्वराज की टिप्पणी याद आती होगी। मोदी के दूसरे कार्यकाल में राजनाथ सिंह की हैसियत किसी से छिपी नहीं है। संभवतया यही कारण है कि वे योगी के मौन समर्थक बने हुए हैं।
ब्राह्मणों की नाराजगी से बिगड़ रहे समीकरण
यह बात एक मिथ की तरह स्थापित हो चुकी है कि दिल्ली की सत्ता उ.प्र. होकर ही जाती है। गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाने वाले नरेन्द्र मोदी को भी 2014 और 2019 के चुनाव में बनारस आना पड़ा। उ. प्र. ने उन्हें अधिकतम सीटें देकर प्रधानमंत्री बनाने में बड़ी भूमिका अदा की। ऐसे राज्य में योगी आदित्यनाथ की सरकार द्वारा ब्राह्मणों पर अत्याचार होने के आरोप आने वाले चुनावों को जरूर प्रभावित करेंगे। भाजपा को प्रारंभ से ही ब्राह्मण और बनिया जाति की पार्टी माना जाता रहा है। निश्चित तौर पर भाजपा ने पिछले चुनावों में हिन्दुत्व की विचारधारा का दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में विस्तार किया है। ये समुदाय भाजपा के साथ हिन्दुत्व की सांप्रदायिक बैशाखी और लोक लुभावनवाद की राजनीति से जुड़े हुए हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियों के वैचारिक स्खलन और प्रभावहीन नीतियों के कारण इन समुदायों को भाजपा आकर्षित करने में कामयाब रही है। लेकिन भाजपा इस बात को जानती है कि सामाजिक न्याय की राजनीति अगर आगे बढ़ती है तो उसकी राजनीतिक जमीन कमजोर हो जाएगी। इसलिए वह न तो सामाजिक न्याय को राजनीतिक विसात बनने देगी और न ही अपने कोर वोटर को खोना चाहेगी।
सोशल मीडिया की नब्ज बता रही ब्राह्मण मनोदशा की कहानी
सभी जानते हैं कि भाजपा का कोर वोटर सवर्ण जातियां हैं। समाज की वर्चस्वशाली और दबंग जातियों पर मजबूत पकड़ रखने वाली भाजपा की चुनावी जीत का एक बड़ा कारण इन जातियों का मजबूत बंधन है। इसलिए भाजपा उ0प्र0 में ब्राह्मणों के समर्थन को खोने का जोखिम नहीं ले सकती जबकि ऐसा लगता है कि वर्तमान परिस्थितियों और समीकरणों में दूसरे दल उनका साथ और समर्थन पाने को बेचैन हैं। सोशल मीडिया पर जिस तरह से ब्राह्मणों द्वारा योगी की भाजपा सरकार का विरोध हो रहा है, उससे ऐसा लगने लगा है कि ब्राह्मण अब भाजपा के बजाय किसी अन्य दल को समर्थन देना पसंद करेगा। यही कारण है कि अखिलेश यादव से लेकर मायावती और कांग्रेस पार्टी तक ब्राह्मणों को अपने पाले में खींचने के लिए प्रयत्नशील हैं।
जख्मों पर नमक छिड़क रहे प्रतिपक्षी नेता
मायावती ने ट्वीट करके सरकार को चेताया कि वह ब्राह्मण समाज को परेशान न करे। अखिलेश यादव ने मिथकों के सहारे ब्राह्मणों का साथ देने का वादा किया। उन्होंने लिखा कि सुदामा का साथ सिर्फ कृष्ण दे सकते हैं। बाकी उनका सिर्फ उपयोग कर सकते हैं। आश्चर्यजनक रूप से इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा आक्रामक कांग्रेस पार्टी दिखी। हालांकि आजकल उ0प्र0 कांग्रेस भाजपा सरकार की असफलता से जुड़े हर मुद्दे को जोर-शोर से उठा रही है। लेकिन ब्राह्मणों के उत्पीड़न से जुड़े मुद्दे पर कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं और नेताओं ने बेहद आक्रामक रुख अपनाया है। कांग्रेस का आईटी सैल भी इस मुद्दे पर लगातार सक्रिय है। कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास में संभवतया यह पहला मौका है, जब कट्टर ब्राह्मण समर्थक के रूप में पार्टी अपनी छवि बना रही है। कांग्रेस के नीति नियंताओं को ऐसा लगता होगा कि इससे ब्राह्मणों में उनका खोया जनाधार वापस आ सकता है। लेकिन ऐसा समझना और कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी। अलबत्ता, इसका असर उल्टा भी हो सकता है।
90 के दशक से आया टर्निंग प्वाइंट
आजादी के बाद चुनावी राजनीति में कांग्रेस का करीब पचास साल तक बोलबाला रहा। ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित कांग्रेस के मुख्य समर्थक जाति समुदाय माने जाते थे। लेकिन खासकर नब्बे के दशक में ब्राह्मण भाजपा के साथ जुड़ने लगा। बसपा के उभार के चलते दलित मायावती के साथ चले गए। मुलायम सिंह द्वारा भाजपा के मंदिर की सांप्रदायिक राजनीति के विरोध के चलते मुसलमानों का ध्रुवीकरण उनके साथ हो गया। लिहाजा कांग्रेस उ0प्र0 में लगभग जनाधार विहीन पार्टी में तब्दील हो गई। गांधी परिवार ने जरूर अपना विश्वास बरकरार रखा। लेकिन बाकी जगह पार्टी सिमटती चली गई। आज प्रियंका गाँधी और उनके बेहद सक्रिय प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी अपनी खोई जमीन हासिल करने के लिए जद्दोजहद कर रही है। ऐसे में वह अपने परंपरागत जनाधार को वापस लाने की जोर आजमाइश कर रही है। ब्राह्मण समाज द्वारा योगी सरकार के विरोध का लाभ कांग्रेस उठाना चाहती है। इसलिए पूरे ताकत और मिथकीय आडंबरों के साथ कांग्रेस ब्राह्मणों को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है। उसके कई ब्राह्मण नेता बाकायदा जातिवादी मुहिम चलाकर कांग्रेस को ब्राह्मणों के साथ खड़ा करने की कोशिश करते दिख रहे हैं। लेकिन सबसे मौजूं सवाल यह है कि इससे कांग्रेस को नफा होगा या नुकसान।
काग्रेंस की उदार ब्राह्मणवाद की राजनीतिक विरासत
बेशक कांग्रेस आजादी के पहले से ही ब्राह्मण बाहुल्य पार्टी रही है। लेकिन उसकी परंपरागत छवि कट्टर ब्राह्मण समर्थक होने की पहले कभी नहीं रही है। यहां ब्राह्मण एक उदार व्यक्तित्व वाले अभिभावक की भूमिका में रहा है। इसलिए दलित और मुस्लिम समाज कांग्रेस के साथ बेखटके जुड़ा रहा। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की छवि एक ऐसे ब्राह्मण की थी जो एक ही साथ सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता में अगाध विश्वास करते हैं। आरक्षण से लेकर हिन्दू कोड बिल जैसे मुद्दों पर वे डा.अंबेडकर के साथ खड़े रहे। धर्म के मसलों को उन्होंने राज्य और शासन से कतई दूर रखा। यही कारण है कि दलितों और मुसलमानों में उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक कमोबेश कांग्रेस की यह छवि बरकरार रही। राहुल गांधी पर हुए निराधार हमलों ने निश्चित तौर पर उनकी छवि को परंपरागत कांग्रेस से अलग बनाया। देखते ही देखते पिछली तमाम पीढ़ियों पर किए जा रहे हमलों की चपेट में अचानक गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी आ गए। गांधी परिवार की छवि खराब करके कांग्रेस को कमजोर करना संघ और भाजपा की सुनियोजित रणनीति रही है।
वैवाहिक बंधनों में चैहद्दियां तोड़ काग्रेंस ने नापे नये क्षितिज
जवाहरलाल नेहरू के बाद नेहरू गांधी परिवार ने वैवाहिक बंधनों में जाति, धर्म और देश की चैहद्दियों को तोड़ा। इसलिए भी इस परिवार की पारंपरिक ब्राह्मण वाली छवि संरक्षित नहीं रह सकती थी। अव्वल तो एक राष्ट्र और समाज की पारंपरिक चैहद्दियों का टूटना प्रगतिशीलता की निशानी है। लेकिन आगे चलकर इसी प्रगतिशीलता से गांधी परिवार की छवि को कलंकित किया गया। लगातार दो पराजय के बाद लगता है कांग्रेस अपनी पुरानी छवि से छुटकारा पाना चाहती है। इसके लिए पहले कांग्रेस ने एक बहुत सोची समझी रणनीति तैयार की। लोकतांत्रिक राजनीति में ज्यादातर समय कांग्रेस के प्रतिपक्ष में पिछड़ी जातियाँ गोलबंद रही हैं। अब उसने पिछड़ी जातियों पर काम करना शुरू किया है। इसका परिणाम उसे छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश की चुनावी सफलता में हासिल हुआ। इससे प्रोत्साहित होकर कांग्रेस सामाजिक न्याय के मुद्दे को लेकर एक कदम और आगे बढ़ी है। नीट परीक्षा में ओबीसी आरक्षण को दरकिनार करने के विरोध में सोनिया गांधी का नरेन्द्र मोदी को चिट्ठी लिखना इसकी हालिया बानगी है। छत्तीसगढ़ और राजस्थान सरकार द्वारा बहुजन नायकों का महिमामंडन करना और उनके सपनों को साकार करने के लिए नीतियां बनाना यह दिखाता है कि भविष्य में भी कांग्रेस का मुख्य मुद्दा सामाजिक न्याय होगा। खासकर उ0प्र0 में बसपा के सिमटते जनाधार और मायावती का भाजपा की बी टीम की तरह बयान देने के चलते और कांग्रेस की सक्रियता के कारण कमजोर दलित पिछड़े समुदायों में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति पैदा होने लगी है। ऐसे में कट्टर ब्राह्मण वाली राजनीति इस सहानुभूति को खत्म कर सकती है। दरअसल, कमजोर दलित पिछड़े समुदाय भाजपाई कट्टरता का कारण ब्राह्मणवाद और धर्मांधता को ही मानते हैं। ऐसे में कट्टर ब्राह्मणों की पार्टी में भागीदारी देखकर अन्य समुदाय कांग्रेस से दूर होंगे। इसका सीधा फायदा उ0प्र0 में समाजवादी पार्टी को मिलेगा। इसका सबसे बड़ा कारण है कि ब्राह्मण ऐसे राजनीतिक दल के साथ नहीं जा सकता जिसके जीतने की कोई संभावना न हो। अभी उ0प्र0 में कांग्रेस के पास न जमीन है और न जनाधार। समाजवादी पार्टी के पास जनाधार भी है और युवा नेतृत्व भी। इसलिए सपा ही भाजपा को पराजित कर सकती है। इसके संकेत भी मिलने लगे हैं। कई स्थानों पर योगी सरकार का विरोध करते हुए ब्राह्मणों ने अखिलेश यादव जिंदाबाद के नारे लगाए हैं।

Leave a comment

I'm Emily

Welcome to Nook, my cozy corner of the internet dedicated to all things homemade and delightful. Here, I invite you to join me on a journey of creativity, craftsmanship, and all things handmade with a touch of love. Let's get crafty!

Let's connect

Recent posts