बसपा की एकला चलो की नीति किस गठबंधन के लिये होगी घातक साबित


हालांकि अभी भी इस बात की अटकलें गर्म हैं कि कांग्रेस मायावती के साथ गठजोड़ की कोशिशों में जुटी है लेकिन दूसरी ओर यह जाहिर किया जा रहा है कि कांग्रेस ने मायावती को लेकर अपनी उम्मीदें त्याग दीं हैं। कर्नाटक की सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में मायावती को न बुलाकर उनके प्रति विरक्ति का परिचय देने की कोशिश कांग्रेस की ओर से पहले ही की जा चुकी थी। इसके बाद बैंगलुरू में हुयी प्रमुख गैर विपक्षी दलों की बैठक में भी उसने मायावती की चर्चा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी जबकि तमाम राजनीतिक प्रेक्षक यह मान रहे हैं कि मायावती को अलग छोड़ने से विपक्ष का नुकसान होगा। भले ही उत्तर प्रदेश विधान सभा के पिछले चुनाव में मायावती की काफी भद पिट गयी हो। उन्हें केवल 12.6 प्रतिशत मतों में सिमट जाना पड़ा हो उनके हाथ में एक अदद सीट भर आयी हो लेकिन उनके पास फिर भी अभी काफी मत हैं और जातीय समीकरण पर आधारित टिकट बांटने की उनकी नीति विपक्ष के लिये घातक सिद्ध हो सकती है। इसका उदाहरण हाल ही में नगर निगम चुनाव देखने में आ चुका है जिसमें 17 निगमों में से 11 निगमों में अध्यक्ष पद के लिये मुस्लिम उम्मीदवार बनाकर उन्होंने हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी ले डूबेंगे की कहावत सपा के साथ चरितार्थ कर दी थी।


मायावती अभी तक तीन बार भाजपा से, एक बार कांग्रेस से और दो बार समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर चुकी हैं। मायावती पहली बार भाजपा के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बनीं थीं। लेकिन उन्होंने अपना गठबंधन पूरे समय नहीं चलने दिया। उनको अपने दम पर बहुमत की तलाश पहले दिन से ही रही। जिसे सैद्धांतिक जामा पहनाने के लिये मान्यवर कांशीराम कहते रहे थे कि बार-बार चुनाव होने से हर बार बसपा की ताकत बढ़ती है और उनकी यह बात उस समय सही भी साबित हो रही थी। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनतीं रहीं कि बार-बार रूसबा होने के बाद भी 1995 के बाद 1997 में और फिर 2002 में बसपा ने मुख्यमंत्री बनाने के लिये उन्हें समर्थन देने को अपने को मजबूर पाया जबकि बसपा को समर्थन देना भाजपा के लिये हर बार भारी पड़ा। उसके कार्यकर्ता खिन्न होकर उससे दूर चले जाते रहे। यह इसलिए हुआ कि सवर्ण वर्चस्ववादी समाज व्यवस्था की पक्षधर भाजपा 1993 में सपा, बसपा गठबंधन के फलीभूत होने से बेहद आतंकित हो गयी थी और वह नहीं चाहती थी कि फिर कभी ये दोनों पार्टियां एक दूसरे के नजदीक आ सकें। अपने इस उद्देश्य में वह काफी हद तक सफल भी रही लेकिन अंतिम बार 2019 के लोकसभा चुनाव में जब फिर इन दोनों पार्टियों के एक मंच पर आने का मुहूर्त आया तब तक लखनऊ में गोमती में पानी बहुत बह चुका था और यह गठबंधन कोई भी जादू दिखा पाने में नाकामयाब बन चुका था। इसलिये भाजपा उन्हें लेकर आश्वस्त और निश्चिंत हो गयी।


मायावती अपने गठबंधन पार्टनरों के साथ सम्मान पूर्ण व्यवहार की कायल कभी नहीं रहीं। मुलायम सिंह ने जब पहली बार बसपा के साथ गठबंधन करके 1993 में अपनी सरकार बनायी थी। उस समय भी यही हुआ था। मायावती मुलायम सिंह को बेइज्जत करने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी। उनके कान भरने से कांशीराम गेस्ट हाउस में अपने सामने मुलायम सिंह को तलब करते थे और उन्हें मीडिया को सामने बुलाकर खरी खोटी सुनाते थे। फोटो सेसन होता था जिसमें मुलायम सिंह उनके पांवते स्टूल पर बैठे उनकी लताड़ सुन रहे दिखते थे। इस तरह जब अपमान की इंतहा हो गयी तब मुलायम सिंह ने बसपा के विधायकों को तोड़कर वैकल्पिक बहुमत जुटाने का प्रयास किया था जिसकी परिणति गेस्ट हाउस कांड में सामने आयी थी। गेस्ट हाउस कांड की सच्चाई क्या थी यह अलग चर्चा का विषय है।
इसके बाद उन्होंने 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया। इस मामले में हो सकता है कि उनकी शिकायत सही हो कि कांगे्रस को उनके वोट मिल गये थे लेकिन कांग्रेस का आभिजात्य वोटर उन्हें नहीं पचा सका था इसलिये विधान सभा चुनाव संपन्न होते ही यह गठजोड़ टूट गया। भाजपा का तो उनके साथ गठबंधन का तीनों बार का तजुर्बा बेहद दुखदायी रहा। उन्होंने पहले लालजी टंडन से राखी बंधवाकर उनके साथ निजी रिश्ता बनाया और इसके बाद जब भाजपा से मुंह मोड़ा तो उनका नाम लालची टंडन रखकर उन्हें जमकर जलील किया।


2019 के लोक सभा चुनाव में अखिलेश के साथ उन्होंने जो गठबंधन किया उसमें अखिलेश से उन्हें बहुत आदर मिला। उस समय मायावती का रिस्पांस भी ऐसा था कि लोग अनुमान कर बैठे थे कि चुनाव नतीजे कुछ भी हों पर अब अखिलेश के साथ उनके संबंध काफी दूर तक जायेंगे। पर उन्होंने लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के कुछ ही समय बाद समाजवादी पार्टी को बुरी तरह कोसते हुये इकतरफा तौर पर गठबंधन तोड़ दिया। उन्होंने समाजवादी पार्टी पर ठीकरा फोड़ते हुये यह आरोप मढ़ डाला कि उसने हमारा वोट तो ले लिया लेकिन अपना वोट ट्रांसफर नहीं होने दिया। जबकि यह आरोप सच्चाई के विपरीत था। यह बात सही है कि मैनपुरी की सभा में जब अखिलेश ने अपनी पत्नी डिंपल यादव से मंच पर उन्हें चरणस्पर्श करा दिया था तो उनके यादव वोटर बौखला गये थे और यादव वोटरों के एक वर्ग ने इसकी प्रतिक्रिया में सपा, बसपा गठबंधन को सबक सिखाने के लिये भाजपा को वोट दे दिया था। किंतु मुसलमानों का अविकल एकजुट वोट गठबंधन के कारण ही मायावती को मिला। इसके अलावा जमीनी स्तर पर कांग्रेस की तरह सभी जातियों में सपा का जो आधार था वह भी गठबंधन में बसपा से विमुख नहीं रहा। इसीलिये बसपा लोकसभा की 10 सीटें हासिल कर पायी थी। जबकि सपा तो गठबंधन के कारण 5 सीटों पर ही रह गयी थी। इसलिये यह बहुत स्पष्ट है कि गठबंधन से किसको फायदा हुआ और किसको नुकसान और फिर भी मायावती ने सपा को इतना ज्यादा आरोपित कर दिया। समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता इससे बेहद आहत हैं और भविष्य में दोनों में किसी तरह के सहयोग की गुंजायश खत्म हो गयी है।


दूसरी ओर मायावती को मोदी-योगी की भाजपा के साथ अन्यों की तरह व्यवहार महंगा पड़ गया और स्थिति यह हो गयी है कि पहले जो मायावती हावी होकर गठबंधन हर किसी को उसके नुकसान की कीमत पर इस्तेमाल कर लेती थी आज वे भाजपा के लिये इस्तेमाल होने को विवश हो रहीं हैं। अटल युग में भाजपा के साथ बेअदब व्यवहार करके मायावती कामयाब रहतीं थीं। इसी मुगालते में उन्होंने शुरूआत में मोदीयुगीन भाजपा को भी अपने अर्दब में लेना चाहा तो उन्हें भरपूर सबक सिखा दिया गया। दयाशंकर सिंह जो कि अब योगी सरकार में परिवहन मंत्री हैं, उनके स्लिप आॅफ टंग से मायावती के लिये कुछ गलत शब्द निकल गये थे जिसे आधार बनाकर मायावती भाजपा पर बरस पड़ी। पहले तो भाजपा का नेतृत्व इससे विचलित हुआ और दयाशंकर सिंह को पार्टी से 6 वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया पर मायावती इसके बावजूद भी यह अलापती रहीं कि दलित की बेटी को अपमानित किया गया है। भाजपा को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसके बाद भाजपा का नेतृत्व बजाय दबाव में आने के मायावती को सबक सिखाने पर उतर आया। इसके चलते दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाती सिंह को जो घरेलू महिला थीं, विधानसभा का टिकट दे दिया गया और जब वे जीत गयीं तो उन्हें मंत्री बना दिया गया। दयाशंकर सिंह का निष्कासन समाप्त कर पार्टी में वापिस ले लिया गया। मायावती के मामलों की जांच शुरू करा दी गयी। इससे मायावती की बोलती बंद हो गयी। खास तौर से जब जांच एजेंसियां उनके भतीजे को भी निशाना बनाने लगीं तो मायावती बेहद डर गयीं और उन्होंने राजनीति में भाजपा का उपकरण बनाने की अपनी नियति को स्वीकार कर लिया। अब तो प्रत्यक्ष रूप से दयाशंकर सिंह को ही विधानसभा का टिकट दिया जा चुका है और प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया जा चुका है। मायावती भी अब अपना उक्त प्रकरण भुलाने में ही गनीमत मानने लगीं हैं। इसके साथ ही केंद्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से सबसे ज्यादा लाभान्वित होने के कारण मायावती का वोटर भाजपा के प्रति अपने को अनुग्रहीत अनुभव करके उसकी ओर खिंचने लगा है जिससे मायावती अंदर ही अंदर जनाधार में खोखली होतीं जा रहीं हैं पर उनके साथ जबरा मारे रोन न दे की कहावत भाजपा को नेतृत्व चरितार्थ कर रहा है।


इसके बावजूद कि आज भी कांग्रेस मायावती के प्रति हमदर्दी के दिखावे को छोड़ना नहीं चाहतीं लेकिन वास्तविक रूप से शायद वह बसपा से गठबंधन जैसा कोई रिश्ता बनाने के पक्ष में नहीं हैं क्योंकि उसे बसपा के साथ के दुखदायी अनुभव याद हैं। इसके साथ साथ बसपा के प्रति अनुराग दिखाने से समाजवादी पार्टी भी बिदक सकती है जिसके मन में मायावती के एहसान फरामोशी के घाव बहुत गहरे हैं। समाजवादी पार्टी को अपने गणित का भी ख्याल है जिसके कारण वह मायावती के लिये उत्सुक नहीं है। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव मेें जब बसपा बहुत कमजोर दिख रही थी तो उसके वोटरों ने अपना वोट बर्बाद होने से बचाने के लिये विकल्प के रूप मेें सपा को अपनाने के बजाय भाजपा की झोली में गिरने को वरीयता दी थी। इसलिये सपा को आशंका है कि अगर उसने बसपा के साथ गठजोड़ किया तो कहीं भाजपा को फायदा न होने लगे। जहां उसके उम्मीदवार होंगे वहां पर बसपा का मूल वोटर भाजपा की ओर मुखातिब हो जायेगा। इसलिये उसे बसपा से दूरी ही मुनासिब लगती है।
बहरहाल ऐसा लगता है कि बसपा 2007 में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी जिसके बाद से वह विसर्जित होने की प्रक्रिया में अग्रसर है। 2007 में सपा से छुटकारा पाने के लिये जनरल कास्ट के मतदाताओं ने विकल्प के अभाव में मायावती को बड़े पैमाने पर चुना था। लेकिन अब विकल्प के लिये इस वर्ग के मतदाताओं के सामने भाजपा जैसी मजबूत पार्टी है और जनरल कास्ट के जो मतदाता बदलाव के हामी हैं वे कांग्रेस का मुंह ताकने लगे हैं। लोकसभा चुनाव में देशभर में उनका रूझान कांग्रेस की तरफ है तो समय समय पर भाजपा की नीतियों को बल देने वाले बसपा सुप्रीमो के बयानों से बसपा के प्रति इस वर्ग का वोटर बहुत सशंकित हो चुका है इसलिये अगर बसपा बहुत मुस्लिम उम्मीदवार उतारती है तो भी उसे मुसलमानों का वोट मिलने वाला नहीं है। पिछड़े वर्ग की कीमत पर उसने जनरल कास्ट की ओर रूख दिखाया था जिससे उसकी बहुजन संरचना पहले ही बिखर चुकी थी। अभी भी उसकी नीतियां इससे इतर नहीं जा पा रहीं। सवर्णों के वोट के प्रलोभन में उसने जूता मारो चार जैसे नारों और मिल गये मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्रीराम जैसे नारे से अपने को असंबद्ध करने की चेष्टा की है लेकिन उसकी इस ललक का कोई सार नहीं है। जनरल कास्ट के वोटर को आज भी दलित नेतृत्व के अधीन काम करना स्वीकार्य नहीं है। पहले वह मजबूरी में बसपा का साथ दे रहा था। यही बात उसकी पिछड़ा नेतृत्व के प्रति है इसलिये  2007 में मुलायम सिंह को उखाड़ने के लिये उनकी पार्टी को गुंडागर्दी का दोषी करार देते हुये उसने बसपा को झूमकर समर्थन दिया था और मायावती ने गंुडागर्दी का दमन किया भी था जिससे उन्हें यह विश्वास हो गया था कि उनकी सरकार के संचालन के तौर तरीके से जनरल कास्ट के लोग बहुत प्रभावित हो गये हैं पर उनका यह आकलन 2012 में गलत साबित हुआ। जब जनरल कास्ट के लोगों ने ही उनको सरकार से खदेड़ने के लिये पहले रिजेक्ट की जा चुकी सपा को समर्थन देने में हिचक महसूस नहीं की। फिर भी बसपा जनरल कास्ट के वोटों के लिये इतनी लालायित है जो आश्चर्य का विषय है। बहरहाल जो आसार दिख रहे हैं उनसे यह लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बसपा के विसर्जन की प्रक्रिया की पूर्णाहुति हो जायेगी भले ही इंण्डिया या एनडीए गठबंधन में से किसी एक के खेल को बिगाड़ने में उनकी एकला चलो की नीति काम कर जाये इसका प्रश्न समय के गर्भ में है।

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