
मणिपुर मामले को लेकर संसद में गतिरोध जारी है। मुद्दा यह है कि विपक्ष प्रधानमंत्री के बयान की मांग कर रहा है और प्रधानमंत्री ऐसे तुच्छ मामलों में सामने न आने की कसम खाये बैठे हैं। राज्य सभा के सभापति जगदीप धनकड़ एक तरफा तौर पर सदन बाधित करने के विपक्ष के अनैतिक कदम को कोस रहे हैं पर उन्हें पिछले सत्र में इसी तरह सत्ता पक्ष द्वारा किये गये आचरण की याद करने की जरूरत नहीं महसूस हो रही जबकि सत्ता पक्ष द्वारा कभी सदन को बाधित करने का कोई दृष्टांत नहीं रहा। उसके इस अभूतपूर्व आचरण के लिये धनकड़ के पास भत्र्सना के शब्द नहीं थे। राज्य सभा का हो या लोकसभा का सभापति उसे दलीय राजनीति से ऊपर रहकर अपने को प्रस्तुत करने की कोशिश करनी चाहिये जैसा कि सोमनाथ चटर्जी ने किया था जिसकी मिसाल हमेशा दी जाती रहेगी। पर धनकड़ ने साबित किया है कि वे इस अत्यंत सम्मानीय पद की गरिमा का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। गो कि वे भाजपा के सदस्य पहले हैं, सदन के अभिभावक बाद में। उनका आचरण उन्हें उत्तर प्रदेश विधान सभा के बहुत ही घटिया अध्यक्ष साबित हुये स्वर्गीय धनीराम वर्मा के समकक्ष देखे जाने की जरूरत महसूस होने लगती है। जिन्होंने अध्यक्ष होने के बाद भी कहा था कि वे मुलायम सिंह के सेवक पहले हैं। उसी तरह जैसे कि राष्ट्रपति बन जाने के बाद भी ज्ञानी जैल सिंह कहते थे कि वे मैडम के आज्ञाकारी बने रहेंगे भले ही किसी भी पद पर हों। मैडम आदेश करेंगी तो उन्हें झाड़ू लगाना भी मंजूर है। हालांकि देश की आन पर जब बन आयी तो आॅपरेशन ब्लू स्टार के बाद विचलित होने के बावजूद उन्होंने देश को पहले माना और अन्य सिख पदाधिकारियों की तरह राष्ट्रपति का पद छोड़कर देश के लिये संकट की स्थिति पैदा नहीं होने दी थी।

दरअसल प्रधानमंत्री मोदी यह स्थापित करना चाहते हैं कि वे किसी भी जबावदेही से परे हैं। वे अपने को भगवान के अवतार के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसलिये कोई भी मौका आये वे विपक्ष की अपने से बयान मांगने की गुस्ताखी का परवाह नहीं करते। यहां तक कि अपने को जबावदेही से परे घोषित करने के लिये ही उन्होंने 9 वर्ष से अधिक के अपने प्रधानमंत्री के कार्यकाल में एक बार भी मीडिया कान्फ्रेंस करने की अपनी जरूरत नहीं समझी है। यहां तक कि विदेशी दौरों में भी वे मीडिया का सामना नहीं करने पर अड़ जाते हैं। अमेरिका में उन्हें इसके लिये बाध्य किया गया तो उन्होंने संवाददाताओं को केवल एक प्रश्न पूंछने की छूट दी थी और अमेरिकी पत्रकार के एक ही सवाल पर वे लड़खड़ा गये थे। लोकतंत्र में कोई भी कितने भी ऊंचे पद पर हो जबावदेही के परे नहीं माना जाता। यहां तक कि आदर्श राजशाही में राजा भी अपने को जबावदेही से परे मानने की जिद नहीं करता। इसी कारण तो भगवान श्रीराम प्रजाजनों की अपने बारे में धारणा जानने के लिये रात में वेष बदलकर उनके बीच विचरण करते थे। इसी क्रम में जब उन्हें एक प्रजाजन से मां सीता को लेकर आक्षेप सुनने को मिला तो अत्यंत प्रिय होने के बावजूद उन्होंने मां सीता का परित्याग कर दिया था।

जाहिर है कि राज्य सभा के सभापति को या तो इस मामले में मुह न खोलकर किसी पक्ष को जिम्मेदार ठहराने की कार्रवाई से कतरा जाना चाहिये था अथवा उन्हें देख लेना चाहिये था कि सदन को न चलने देने के लिये कौन सा पक्ष जिम्मेदार है। मणिपुर के मामले को हल्का करने के लिये सत्ता पक्ष ने राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में महिलाओं के साथ हुयी घटनाओं को दोनों सदनों में उठाने की रणनीति तैयार की है जबकि मणिपुर की अभूतपूर्व स्थिति से कुछ राज्यों में होने वाले इक्का दुक्का महिला हिंसा के मामलों की तुलना नहीं हो सकती भले ही वे जघन्य हों। गैर भाजपा राज्यों की वारदातों को उठाने का अधिकार सत्ता पक्ष को वैसे भी है लेकिन प्रतिक्रिया में ऐसा नहीं होना चाहिये। सत्ता पक्ष स्वतंत्र रूप से उक्त राज्यों की वारदातों को संसद के सदनों में उठा सकता था पर यह फैसला तो मणिपुर मुद्दे के काउंटर के लिये लिया गया है जो अनुचित है। मणिपुर में गृह युद्ध जैसे हालात हैं। मई के महीने से दो समुदायों के बीच मारकाट हो रही है। सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं, हजारों लोग अपने घरों से विस्थापित हो चुके हैं। इस महत्वपूर्ण उत्तर पूर्वी राज्य की हिंसा की आंच आस पास भी फैल रही है। मिजोरम में कूकी समुदाय के पूर्व आतंकवादी संगठनों की धमकी के बाद वहां मैतई समुदाय के लोग पलायन को मजबूर होने लगे हैं। विपक्ष तो महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनकी सार्वजनिक परेड का वीडियो सामने आने के पहले भी प्रधानमंत्री को इस पर चुप्पी तोड़ने और कम से कम इस राज्य में शांति की अपील करने की मांग कर रहा था लेकिन प्रधानमंत्री ने गैर बाजिब ढंग से इस पर न बोलने को अपनी शान से जोड़ लिया था। यहां तक कि वे इस हिंसा को अनदेखा करके अमेरिका की यात्रा पर निकल गये थे जिसे संवेदनहीनता की पराकाष्ठा माना गया था। प्रधानमंत्री को यह भी सोचना चाहिये कि उत्तर पूर्व इलाके का अपना सामरिक महत्व है इसलिये समय रहते यहां शांति के लिये लगाम कसी जाना कितना जरूरी है लेकिन इसमें वे और उन्हें निर्देशित करने वाले संगठन को वोट बैंक बढ़ाने के अवसर दिखायी दे रहे हैं। यह निकृष्ट राजनीति की अत्यंत वितृष्णा पैदा करने की बानगी है। प्रधानमंत्री का अहम इतना ज्यादा है कि वे तो संघ के मुखिया मोहन भागवत के पास जाने में भी अपनी तौहीन समझते रहे हैं क्योंकि मोहन भागवत की उम्र उनसे कम है जिससे संघ भी उनके प्रति असहज है। ऐसे ईगो के धनी महामना की नजर में राहुल गांधी की तो हैसियत ही क्या रह जाती है। इसलिये जब राहुल गांधी अदाणी मुद्दे पर लोकसभा में उनके खिलाफ ज्यादा बोले तो उन्होंने राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त करा दी और उन्हें वरिष्ठों का भी कितना लिहाज है यह देखने वाली बात है। अपने पुराने गूरू लाल कृष्ण आडवाणी और अन्य सीनियरों को उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभालते ही मार्गदर्शक मंडल में धकेल दिया था। लेकिन इस मार्गदर्शक मंडल की एक भी बैठक आज तक उन्होंने नहीं होने दी। सवाल वही उनके ईगो का है वे सीनियरों के प्रति भी किसी तरह की जबावदेही क्यों महसूस करें। इस आचरण से उनके अच्छे कार्यों के पुण्य भी मटियामेट हो रहे हैं इसीलिये उनकी लोकप्रियता का ग्राफ उतार पर आने लगा है हालांकि अभी भी वे लोकप्रियता में सब से आगे हैं पर पहले से उनकी स्वीकार्यता कम हुयी है। इसलिये प्रधानमंत्री को अपनी पुर्नसमीक्षा करनी चाहिये और ख्याल रखना चाहिये कि अंत भला होता है तभी सब भला रह पाता है।







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