
मणिपुर हिंसा को लेकर सरकार का रवैया शुतुरमुर्गी है। इसकी प्रचंडता को अनदेखा करके अगर उसने सोचा हो कि वह सभी को अंधेरे में धकेले रख सकती है तो यह उसकी गलत फहमी थी। न केवल देश के अंदर सरकार के इस रूख से कोहराम हुआ बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सरकार के रवैये पर उंगलियां उठीं जिससे देश शर्मसार हुआ।
अब विपक्ष ने प्रधानमंत्री का मुह इस मुद्दे पर खुलवाने के लिये अविश्वास प्रस्ताव का पैतरा अपनाया है। इसका नोटिस लोकसभा अध्यक्ष ने मंजूर कर लिया है और इस मामले में फिलहाल इंण्डिया गठबंधन की एक जुटता अटूट रूप में सामने आयी है जबकि सरकार उम्मीद लगाये थी कि बैंग्लुरू में बहुत गाजे बाजे के साथ घोषित किये गये इस गठबंधन में संसद सत्र के दौरान बिखराव के लक्षण उभर आयेंगे।

3 मई से मणिपुर में हिंसा की शुरूआत हो गयी थी। इसके पहले मणिपुर हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार से पूंछा कि मैतई समुदाय को आरक्षण देने की कई वर्षों से विलंबित मांग पर वह अपना इरादा स्पष्ट क्यों नहीं कर रही है। हाईकोर्ट ने केन्द्र से भी इस मामले में रिपोर्ट मांग ली। अगर मैतई समुदाय को भी अनुसूचित जाति का दर्जा मिल गया तो उसे भी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिलने लगेगा। मैतई पहाड़ी इलाके में जमीन खरीदने के पात्र बन जायेंगे जो अभी नहीं हैं। इससे कुकियों और नगाओं में कई आशंकायें पैदा हो गयीं। वे अभी अनुसूचित जाति के तहत सूचीबद्ध हैं जिससे उन्हें ये सारे लाभ मिलते हैं। उन्हें लगा कि अगर मैतई समुदाय भी जन जाति के रूप में वैधानिक मान्यता हासिल कर पाया तो उनके अस्तित्व के लिये कई समस्यायें पैदा हो जायेंगी। कोढ में खाज की स्थिति यह रही कि मणिपुर हाईकोर्ट ने न अभी मैतई समुदाय को जन जाति घोषित करने के निर्देश दिये हैं और न ही उन्हें नौकरियों में आरक्षण घोषित किया है। लेकिन उसके केन्द्र और राज्य से इस पर रिपोर्ट मांगने का संदेश यह चला गया कि मैतई को अनुसूचित जाति का दर्जा घोषित हो गया है। 3 मई को इसके विरोध में आॅल ट्राइबल स्टूडेंट एसोसियेशन ने जनजाति एक जुटता की जो रैली बुलाई उसके बाद हिंसा शुरू हुयी जिसमें जबरदस्त मारकाट होने लगी जो अभी भी जारी है। केन्द्रीय मंत्री का घर जला दिया गया। मुख्यमंत्री दफ्तर पर भी हमला हुआ। हजारों लोग विस्थापन के लिये मजबूर हो गये जो शरणार्थी शिविरों में रह रहें हैं। अभी भी मारकाट बंद नहीं हुयी है।

अगर ऐसी भयानक स्थिति के लिये विपक्ष यह सवाल उठा रहा था कि प्रधानमंत्री ने अभी तक वहां के लिये शांति की अपील क्यों नहीं की है तो यह असंगत सवाल नहीं था। ऐसी संवेदनशील स्थिति पर खुद प्रधानमंत्री को किसी के कहने के पहले शांति की अपील करनी ही चाहिये थी। पर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और जैसे कह रहे हों कि देखो कौन उससे बुलवा पाता है।
उन्हें याद नहीं आया कि जब उनके गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बाद गोदरा कांड के चलते वहां भीषण दंगे हुये थे तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उनके लिये कहा था कि राज धर्म निभाना चाहिये। बाजपेयी भी हिंदुत्ववादी विचारधारा के बड़े हामी थे पर उन्होंने वे ऐसे मुद्दों को शासक की कुर्सी पर बैठने के बाद हिंदू मुसलमान के चश्मे से देखने के कायल नहीं थे। मणिपुर मामले में उनका अनुकरण न करके इससे दुराव के पीछे मोदी की शायद कोई तंग नजरी रही जिससे वे देश की राजनीति में शिखर पर पहुंच जाने के बाद भी उबर नहीं पा रहे हैं। उनकी सोशल मीडिया सेना और ट्रोल सेना में अगर उनके इरादों को प्रतिबिम्व देखा जाये तो यह बहुत स्पष्ट है कि उन्हें यहां की स्थितियों से पूरे देश में हिंदू ध्रुवीकरण की बहुत संभावनायें नजर आ रहीं हैं इसलिये यहां की हिंसा रोकने में उन्होंने दिलचस्पी नहीं ली। उनकी सोशल मीडिया सेना ने मणिपुर की स्थिति को लेकर कैसे कैसे जमीन आसमांन के कुलाबे जोड़े, व्हाटसप यूनीवर्सिटी से तमाम दंत कथायें प्रसारित की गयीं जिनमें बताया गया था कि मणिपुर में चर्च संगठन किस तरह हिंदुओं के विरूद्ध कुचक्र रच रहे हैं जिससे सारे देश में हिंदू समाज को खतरा पैदा हो रहा है। किस तरह इसके चलते राष्ट्रीय अखंडता के लिये भी खतरा पैदा किया जा रहा है। सरकार की कर्तव्यहीनता को जायज ठहराने के लिये सोशल मीडिया सेना सारी ताकत झोंके हुये है।

लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सरकार को आड़े हाथ लिया तो प्रधानमंत्री को मजबूरन इस पर दो शब्द बोलने पड़े। लेकिन फिर उन्होंने हेकड़ी दिखाई। संसद सत्र चल रहा था लेकिन संसद के भीतर बयान देने की बजाय प्रधानमंत्री ने सदन के बाहर आकर मीडिया के सामने इस पर कुछ सेंकण्ड के बोल बोले। इसके साथ ही उन्होंने इससे राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में महिलाओं के साथ हुयी घटनाओं को बेतुके ढंग से जोड़ दिया। आश्चर्य इस बात का है कि अगर वे अन्य राज्यों में महिलाओं के प्रति होने वाले यौन अपराधों को मणिपुर की घटनाओं के समकक्ष खड़ा करना चाहते हैं तो उन्हें यह सोचना चाहिये कि उन्हीं के आपराधिक अभिलेख ब्यूरो के मुताबिक इस मामले में सबसे आगे तो उत्तर प्रदेश को ठहराता है और इसके बाद महाराष्ट्र को। इनके बाद भी भाजपा के राज्य ही इस मामले में आगे दर्ज हैं लेकिन सवाल यह नहीं है कि महिला हिंसा को रोकने के मामले में कौन से पक्ष की सरकारें ज्यादा विफल हैं। सवाल तो संसद की मर्यादा की है।
जब संसद सत्र चल रहा हो तो किसी ज्वलंत मुद्दे पर सदन के अंदर बोलने से इंकार और सदन के बाहर उस पर बयान देना संसद की तौहीन करना नहीं तो क्या है। पता नहीं क्यों प्रधानमंत्री अपने को किसी भी जबावदेही से परे साबित करने पर आमादा हैं जबकि लोकतंत्र में यह कदापि मान्य नहीं है। अगर प्रधानमंत्री को यह वहम हो गया है कि उनके सामने कोई भी तंत्र तुच्छ है, वे परम सत्ता के सदृश्य हैं तो उन्हें संसद का सत्र बुलाना ही बंद कर देना चाहिये। जैसे कि उन्होंने पत्रकार वार्ता बुलाने से परहेज कर लिया है जबकि पूरी दुनिया में किसी भी लोकतांत्रिक देश का शासक मीडिया से ऐसा दुराव नहीं बरतता।
यह नहीं कहा जा सकता कि प्रधानमंत्री के पास किसी चीज का जबाव नहीं है या वे हर चीज में गलत हैं इसलिये हेकड़ी दिखाना उनकी मजबूरी बन गया है। प्रधानमंत्री के पक्ष में कई सकारात्मक तर्क हैं जो दिये जा सकते हैं बशर्ते वे अपने सामने हर संस्था को हीन न समझते हों। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री किसी मनोविकार का शिकार होकर इस मामले में गलती पर गलती करने के लिये अपने को मजबूर महसूस करने लगे हैं। राहुल गांधी ने जब अदाणी को लेकर संसद में उन पर प्रहार किये तो उन्होंने इसका जबाव देने की बजाय दूसरी और बातें राहुल गांधी का खिल्ली उड़ाने के लिये कहीं। इस तरह राहुल गांधी ने उनके और अदाणी के संबन्धों को लेकर जो शक शुबहा पैदा किये थे वे पुष्ट होते गये। जबकि वे दो टू कहते कि उन्हें क्या लालच है कि जो अदाणी पर मेहरबान होंगे। उन्होंने राजनीति में न तो खुद कोई संपत्ति बनायी है और न अपने परिवार को बनाने दी है। अगर वे जबाव देते तो ज्यादा वजनदार हो सकता था। लेकिन उन्होंने किसी को जबाव देना खामख्वाह अपनी नाक के सवाल से जोड़ रखा है। बृजभूषण शरण सिंह के मामले में सारे देश में बेटियों की मातायें अपने को अपमानित महसूस कर रहीं थीं फिर भी उन्हें सफाई में कोई बयान देना गवारा नहीं हुआ। यही दोहराव मणिपुर मामले में हैं। उनके इस रवैये से लोगों में खिन्नता बढ़ रही है बावजूद इसके कि अभी भी नाराज होने के बावजूद लोग मानते हैं कि देश के लिये मोदी ही फिलहाल जरूरी हैं लेकिन अगर उन्होंने अड़ियल रवैया न छोड़ा तो यह खिन्नता विरक्ति के स्तर तक पहुंच सकती है जो उनके लिये और उनकी पार्टी के लिये बाद में पछताने का कारण बन सकता है।

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