बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे पर 1 अगस्त से टोल वसूली शुरू हो गयी है। पहली बार यहां एक काम हुआ है कि दुपहिया वाहनों से भी टोल वसूला जायेगा और वह भी प्रतीकात्मक नहीं। दुपहिया वाहनों से एक रूपये प्रति किलोमीटर की दर से भरपूर वसूली होगी। इस तरह यह कहना गलत नहीं होगा कि इस मामले में सरकार का फैसला अभूतपूर्व है।
गत वर्ष जुलाई में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कैथेरी के पास आयोजित समारोह में इस एक्सप्रेसवे का लोकार्पण करके गये थे। चूंकि यह उद्घाटन जल्दबाजी में कराया गया था क्योंकि इस एक्सप्रेसवे को बनाने वाली एजेंसी यूपीडा के चेयरमेन अवनीश अवस्थी कुछ महीनों बाद सेवानिवृत्त होने वाले थे और चाहते थे कि उनके कार्यकाल में ही इसकी कार्रवाई समाप्त हो जाये ताकि एक्सप्रेसवे के कमीशन के हिसाब किताब में विघ्न न आये। जल्दबाजी इतनी रही कि एक्सप्रेसवे का बहुत काम बाकी रह गया जो आगे भी चलता रहा। अब अगर अधूरे एक्सप्रेसवे पर टोल वसूली की जाती तो कोई अदालत जा सकता था इसलिये मेहरबानी की गयी और तत्काल टोल वसूली शुरू नहीं हो पायी। इस वर्ष जनवरी में बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे पर टोल वसूली का टेंडर निकाला गया था तो केवल एक निविदा पड़ी। वजह यह थी कि हाईवे और एक्सप्रेसवे निर्माण के लिये यह ध्यान रखा जाता है कि आर्थिक रूप से यह कितना लाभकारी है जबकि योगी सरकार धार्मिक भावनाओं को मजबूत करने को विकास कार्याें में वरीयता देती है भले ही उसमें राजस्व का घाटा झेलना पड़े। बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे में भी इस कारण आर्थिक पहलू को अनदेखा कर दिया गया। लक्ष्य चित्रकूट धाम की महिमा को बढ़ाना था इसलिये इसका मूल्यांकन नहीं कराया गया कि इस एक्सप्रेसवे पर पर्याप्त ट्रैफिक निकलेगा या नहीं। चूंकि बुुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे पर ट्रैफिक नहीं है इस कारण यहां टोल वसूली के मंहगे ठेके के लिये कौन बिड डाले। मात्र एक टेंडर पड़ने की यही वजह रही। सरकार इंतजार करती रही कि और निविदायें आये। आखिरकार तब काम बना जब टोल वसूली करने वाली कंपनी को सरकार ने दुपहिया वाहनों से भी वसूली का अधिकार देने का ऑफर किया। इस टोल पर पहली बार बाइक चालकों से भी टोल वसूली शुरू की जाने का यही रहस्य है।
बुंदेलखण्ड एक्सप्रेसवे का ज्यादातर इलाका बीहड़ी है जिसमें इतनी ज्यादा गरीबी है कि लोगों के पास आने जाने के लिये बस का किराया चुकाने की भी क्षमता नहीं है। इस कारण यहां रिवाज रहा है कि लोग बाइक पर पांच छह लोगों का पूरा परिवार बैठाकर चलते हैं ताकि कम से कम खर्चे में काम चला सकें। ऐसे में उनसे टोल वसूलना उन पर गाज गिराने जैसा है। उनका सारा हिसाब किताब गड़बड़ा कर रह जा रहा है। जितने का पेट्रोल खर्च नहीं होगा उससे ज्यादा टोल अदा करने की नौबत है।
अब सरकार भी क्या करे। एक्सप्रेसवे के निर्माण में इतना संसाधन व्यय होता है कि सरकार अपने नियमित बजट से उनका खर्चा नहीं उठा सकती। इसलिये उसे कर्ज पर एक्सप्रेसवे के निर्माण की लागत के लिये व्यवस्था करनी पड़ती है जिसे चुकता करने के लिये बाद में लंबे समय तक टोल वसूलना अनिवार्य है। लेकिन यह सिर्फ एक पहलू है। दूसरा पहलू है विकास के साथ भ्रष्टाचार बढ़ने का।
1972-73 में भ्रष्टाचार बढ़ने की शिकायत बहुत होती थी। बाद में इसी के कारण लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने सरकार के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था जिसके प्रभाव में देशभर के युवा और छात्र उनके आवाहन पर सड़कों पर उतर आये थे। बहरहाल उस समय इन्दिरा जी ने कहा था कि भ्रष्टाचार एक अन्तर्राष्ट्रीय परिघटना है। दुनिया भर में जहां विकास कार्य होते हैं तो भ्रष्टाचार का होना एक अनिवार्य बुराई की तरह सामने आता है। यह दलील आज भी प्रासंगिक है लेकिन उस समय जब इन्दिरा जी ने यह कहा था तो कमीशन की एक सीमा होती थी। आज जबकि कस्बों और ग्राम पंचायतों तक को स्वशासन की अवधारणा के तहत फंड दिया जाने लगा है तो भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं रह गयी। पहले लोक निर्माण विभाग में कुल मिलाकर 10 प्रतिशत से ज्यादा कमीशन खोरी नहीं हो पाती थी। आज हालत यह है कि इन पंक्तियों के लेखक को एक नगर पालिका के ठेकेदार ने बताया कि उसने लगभग 1 करोड़ रूपये की सप्लाई दी थी जिसके भुगतान के लिये अधिशासी अधिकारी 51 प्रतिशत कमीशन मांग रहे है। ग्राम पंचायत सचिव जिनकी गृहस्थी चलने तक के लाले 1996 के पहले रहते थे आज कुछ ही वर्षों की नौकरी में करोड़ों की हैसियत बना ले रहे हैं। जाहिर है कि विकास के फंड का अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार के परनाले में गर्क होने के लिये अभिशप्त है। ऐसे में तय है कि विकास मंहगा होता चला जायेगा जिसके फंड की व्यवस्था के लिये सरकार लोगों से टैक्स बढ़ाकर ज्यादा से ज्यादा वसूली के लिये प्रेरित होगी। क्या सरकार में बैठे लोगों को यह दिखाई नहीं देता कि सीमित आय के बावजूद पंचायत सचिव या नगर निकाय के अधिशासी अधिकारियों को बड़े स्थानीय उद्योगपतियों को भी मात करने वाले ऐशोआराम के साधन मुहैया हो रहे हैं। अगर उन्हें दृष्टि विकार नहीं है तो उक्त कार्मिकों के ठाट बाट देखकर तो सरकार में बैठे लोगों को चिंता में पड़ जाना चाहिये कि किस कदर लूटमार हो रही है और अगर यह सिलसिला जारी रहता है तो देश और समाज का क्या हश्र हो जाने वाला है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार में बैठे लोग इस स्थिति को काबू में न कर सकें। लेकिन लगता है कि सार्वजनिक खजाने की लूट का एक हिस्सा अधिकारियों और कर्मचारियोें के जरिए उनकी जेब में भी पहुंच रहा है इसलिये लोलुपता में वे इसे रोकने के नाम पर कुछ करना नहीं चाहते। सरकार अगर ठान ले कि लोगों का टैक्स बढ़ाकर खून चूसने की बजाय सरकारी अमले द्वारा बेजा तौर पर इकट्ठी की गयी रकम को छीनकर संसाधनों की व्यवस्था करेगी और भविष्य में विकास कार्याें में भ्रष्टाचार की गुंजाइश को न्यूनतम स्तर पर ला देगी तो बिना नया टैक्स लगाये वह पर्याप्त संसाधनों की व्यवस्था कर सकती है और मंहगे विकास को सस्ता बना सकती है। सरकार में बैठे लोगों को मालूम नहीं है कि लोग ज्यादा दिनों तक धर्मोन्माद से बहलने वाले नहीं हैं। बढ़ता कराधान लोगों के लिये अस्तित्व के संकट का कारण बन गया है जिससे लोग हताश हैं और जल्द ही उनकी कुंठा क्वथनांक के स्तर पर पहुंच जाने वाली है। अच्छा यह होगा कि सरकार समय रहते जाग पड़े ताकि अनर्थकारी स्थितियां पैदा न हों।







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