
मोदी सरनेम मामले में कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी को उच्चतम न्यायालय में तीन सदस्यीय पीठ से मिली राहत अपेक्षा के अनुरूप है। हर विवेकशील आदमी जानता था कि अदालतें भी कहीं न कही राजनीति से प्रेरित हो गयी थीं जिसके कारण राहुल गांधी को पहले ट्रायल कोर्ट से दोष सिद्ध करार दिया गया और इसके बाद कानूनी चक्रव्यूह से उन्हें ऊपर की अदालत तक नहीं उबरने दिया गया। इस कुचक्र के चलते लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी की अदाणी मुद्दे पर राहुल गांधी ने जिस आक्रामक अंदाज में घेराबंदी की थी उसका सबक उन्हें सिखाया जा सका। आनन फानन उन्हें लोकसभा की सदस्यता से वंचित कर दिया गया। इसके बाद तत्काल उनका बंगला छीन लिया गया जबकि कई और नेता हैं जो संसद के किसी सदन के सदस्य नहीं रहे फिर भी उन्हें सरकारी बंगलों से बेदखल करने की कोई फिक्र नहीं की जा रही है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों ने सुनवाई के दौरान यह कमेंट किया कि राहुल गांधी के भाषण में अपमानजनक जैसा तो कुछ नहीं है। जजों ने यह भी कहा कि ट्राॅयल कोर्ट ने अगर उन्हें दोषी भी माना था तो अधिकतम सजा क्यों दी यह उसके फैसले से स्पष्ट नहीं है।

देश की आजादी जब अपेक्षाकृत बहुत पुरानी नहीं हुयी थी और कई मामलों में देश आगे बढ़ने के लिये जबरदस्त जद्दोजहद कर रहा था उस समय हमारे यहां की अदालतों ने बड़ी साख बना रखी थी जिसकी मिसाल विकसित देशों तक में दी जाती थी। देश के संस्थानों में जिस ढंग से गरिमा का निर्वाहन करने की कोशिश होती थी उससे देश का गौरव शिखर को प्राप्त था। लेकिन अब जबकि भारत एक महाशक्ति के रूप में स्थापित होता जा रहा है तो लगता है कि उसके संस्थान यह आदर खोने के लिये अभिशप्त हो रहे हैं। कई बार ऐसे मुद्दे सामने आये जैसे कि मण्डल आयोग की रिपोर्ट के परीक्षण, 2002 के गुजरात के दंगों की सुनवाई जबकि न्यायपालिका में जज वर्गमोह से पीड़ित होकर भटक सकते थे लेकिन उन्होंने निरपेक्ष रहकर आदेश पारित करने की क्षमता का शानदार प्रदर्शन किया और अपनी विश्वसनीयता को बुलंदी पर पहुंचाया। लेकिन क्या आज गुजरात में अदालतें जिस ढंग से काम कर रहीं हैं उसके बाद यह कहा जा सकता है कि वे बाहरी कारकों से परे रहकर फैसले करने की सलाहयित रखतीं हैं। 2002 के दंगे की खूंरेजी के मामले में जिसमें कई लोगों की हत्या हो गयी थी और महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था सारे अभियुक्त बेदाग बरी कर दिये गये। नाबालिग के साथ संबन्ध बनाने के एक मामले में हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट के एक जज ने जो बातें कहीं उससे कानून के जानकारों को माथा पकड़कर रह जाना पड़ा। इस संदर्भ में रेप के दोषी बने अभियुक्त की जमानत के बारे में कोई कानून आधारित निर्णय करने की बजाय जज साहब वकील साहब को कहीं गीता का ज्ञान प्राप्त करने की और कहीं मनुस्मृति को जानने की बेतुकी सलाह देते हुये पाये गये। देश में न्यायपालिका की यह हो रही स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। सूरत की सीजेएम अदालत ने जब मोदी सरनेम मामले में राहुल गांधी को दोषी साबित करने का फैसला सुनाया था तो किसी विवेकशील व्यक्ति को यह फैसला हजम नहीं हो सका था। इस फैसले के बाद संबन्धित जज को लगातार दो पदोन्नतियां मिलीं हो सकता है कि यह सिर्फ एक संयोग हो। इसके बाद जब राहुल गांधी ने गुजरात हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो हर कोई अनुमान कर रहा था कि उन्हें सजा पर स्टे मिल जायेगा लेकिन एक समय अमित शाह के वकील रह चुके राहुल की सुनवाई कर रहे हाईकोर्ट जज ने उन्हें आदतन कानून तोड़ने वाला गुनहगार जाहिर करते हुये उनकी अपील को रद्द कर दिया।

आज जो परम्परायें शुरू की जा रहीं हैं वे लोकतंत्र के खुले माहौल की दृष्टि से बहुत घातक है। लोकतंत्र में पक्ष प्रतिपक्ष के नेता एक दूसरे पर सभाओं में जमकर हमला बोलते रहते हैं। यह रिवाज शुरू से चला आ रहा है। कभी यह नहीं सोचा गया कि नेता कोई कटाक्ष या शाब्दिक चोट करने के पहले बहुत सोचने की जरूरत महसूस करें। ऐसी बंदिश तो लोकतंत्र का गला घोंटने वाली होगी। पहले विरोधी पार्टी के नेता चाहे जितने कटु प्रहार करें दूसरा पक्ष अदालत की शरण में नहीं पहुंचता था। वह राजनैतिक तरीके से जबाव देता था। इन्दिरा गांधी के समय में विरोधी दल के कार्यकर्ता नारे लगाते थे वाह री इन्दिरा तेरे खेल, खा गई शक्कर पी गयी तेल। इसे लेकर किसी कांग्रेसी के दिमाग में यह बात नहीं आयी कि वह अदालत में दूसरे दल के कार्यकर्ता को घसीटे कि तुमने हमारी नेता के लिये ये शब्द कैसे कहे। साबित करो कि इन्दिरा गांधी ने किसकी शक्कर खा ली और किसका तेल पी गयी। अगर छिद्रान्वेषण होता तो विरोधी अपने इस जुमले को साबित नहीं कर पाता और न जाने कितने विरोधी कार्यकर्ता जेल पहुंच जाते। विरोध की तो दुकान ही बंद हो जाती। लेकिन आज सत्तारूढ़ पार्टी बहुत असहिष्णु हो गयी है। विरोध के स्वरों को दबाने के लिये उसने अदालतों को अपना हथियार बना लिया है। राहुल गांधी को गुजरात की अदालतों में मिली सजा इसकी मिसाल है। होना यह चाहिये कि विरोधी पक्ष में भय पैदा करने की बजाय सरकार लंबी लकीर खींचकर उसे पीछे छोड़ती रहे। कहने को तो यह सरकार हर बात में कहती है कि उसने अपने कार्यकाल में चमत्कार कर दिया और भारत को विश्व बिरादरी में चोटी पर बिठा दिया है लेकिन अगर ऐसा है तो उसका आत्मविश्वास बलंद होना चाहिये कि विरोधी दलों के हमले इन स्थितियों में जनमानस के बीच उनकी भड़ास बनकर प्रस्तुत होते रहेंगे जिससे वे उसकी सेहत पर कोई बुरा असर नहीं कर पायेंगे। लेकिन स्थिति दूसरी दिखाई दे रही है। विरोधी नेताओं के आरोप सत्ता पक्ष में बैठे लोगों को इतना विचलित कर देते हैं कि उनका प्रतिशोध संतुलन खोकर उबाल मारने लगता है। क्या इससे यह नहीं लगता कि सरकार के दावे खोखले हैं और विरोधी पक्ष के आरोप दमदार जिन्हें साम दाम दण्ड भेद हर तरीके से रोका न गया तो तख्तापलट हो जायेगा। सरकार खुद ही अपनी छवि का सत्यानाश कर रही है लेकिन उसे इसका ऐहसास नहीं है। सरकार में बैठे लोगों को जानना होगा कि तात्कालिक माहौल संचारी होता है लेकिन जिम्मेदार लोगों की नजर इतिहास के भावी फैसले पर होनी चाहिये। किसी भी दीवानगी का भूत एक न एक दिन उतरता ही है। इसके बाद यथार्थ आकलन की नौबत जब आती है तो सारा मूल्यांकन बदल सकता है।

राहुल गांधी को 134 दिन अदालती लड़ाई में घिसटना पड़ा तब उन्हें निजात मिली। अगर सरकार ने यह सोचा था कि इससे राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन का अंत किया जा सकेगा तो उसे मानना चाहिये कि वह बहुत बड़ी गलतफहमी में थी। इस मामले ने राहुल गांधी को जन सहानुभूति का हकदार बना दिया। कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को मिली सफलता के पीछे यह भी एक कारक रहा। इस कानूनी झटके से राहुल गांधी एक भी दिन हताश नहीं हुये और दिलेरी के साथ राजनैतिक मोर्चे पर डटे रहे। इससे एक दृढ़ संकल्पित नेता के रूप में उन्होंने अपनी छवि बनायी है। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें राहत मिलने के बाद कांग्रेसी जोश में हैं और सन्निकट लोकसभा चुनाव में सत्ता पक्ष को करारी टक्कर देने के लिये उनकी मुस्तैदी मे इजाफा हुआ है। राजनीतिक परिस्थितियों में यह घटनाक्रम सत्ता पक्ष के लिये प्रतिकूल कारक साबित होने वाला है। कांग्रेस इस अवसर को कैसे कैश कराती है यह बात देखने वाली होगी।







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