क्विट इण्डिया की प्रासंगिकता के लिये तो लोगों को पहले राहुल को सत्ता में लाना पड़ेगा


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विपक्ष के गठबंधन इण्डिया को काउंटर करने के लिये 1942 के स्वतंत्रता संग्राम के आवाहन के हवाले से देश की राजनीति में वंशवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ एक और क्विट इण्डिया आंदोलन का आगाज करने की घोषणा लोगों से की है। प्रधानमंत्री के स्लोगन कुछ महीनों पहले तक बहुत हिट रहते थे। चुनाव में उनके स्लोगन ने बाजियां पलटी हैं। मणिशंकर अय्यर ने एक इंटरव्यू में अंग्रेजी में उन्हें ओछेपन का कुसूरवार ठहराया था जिसका अपने ढंग से हिन्दी तर्जुमा नीच करके उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया कि उन्हें कांग्रेस नीच कह रही है क्योंकि वे पिछड़ी जाति के हैं। उनके इस रोने ने ऐसा गुल खिलाया कि कांग्रेस बैकफुट पर पहंुच गयी। उनका यह स्यापा ट्रम्प कार्ड बन गया था और उनके पक्ष में सहानुभूति की जबर्दस्त लहर पैदा हो गयी थी जो कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी। इसी तरह राहुल गांधी ने अपने भाषण में उन्हें लक्ष्य करके यह कहा कि प्रधानमंत्री अपने को चैकीदार कहते हैं लेकिन राफेल लड़ाकू विमान की फ्रांस से खरीद में घपलेबाजी करके उन्होंने यह जाहिर किया है कि अगर वे अपने को चैकीदार कहते हैं तो उनका कहना है कि चैकीदार चोर है। इसे प्रधानमंत्री ने चैकीदारों की अस्मिता का सवाल बनाकर राजनैतिक तूफान खड़ा कर दिया। हर किसी ने उनके कथन पर अपने को चैकीदार कहना शुरू कर दिया और राहुल गांधी को सबक सिखाने पर लोग उतारू हो गये जिससे 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की मट्टी पलीत हो गयी लेकिन क्या अब मोदी की इस बाजीगरी में कोई दम रह गया है।
देखने में आ रहा है कि मोदी के स्लोगनों का जादू अब ढलने पर है। पहले की तरह लोग उनके किसी जुमले पर संवेदित नहीं होते हैं। उनके कई शब्द वाण इस बीच बेकाम साबित हो गये। राहुल गांधी ने एक इंटरव्यू में मुस्लिम लीग को केरल में अपनी सहयोगी होने के संदर्भ में धर्मनिरपेक्ष दल बता दिया था तो मोदी और कोशिश हुयी कि देश के बटवारे के लिये जिम्मेदार रही मुस्लिम लीग की राहुल गांधी द्वारा तारीफ के रूप में इस मुद्दे को पेश करके उनपर हमला बोला जाये। उनके इशारे पर भाजपा के सूरमाओं ने इसकी आजमाइश की लेकिन लोगों को पहले की तरह भड़काया नहीं जा सका जिससे भाजपा को खामोश होना पड़ा। प्रधानमंत्री ने भी इस मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिये खुद न बोलने में ही गनीमत समझी।
क्विट इण्डिया का एक राजनैतिक संदर्भ है। तत्कालीन सत्ता को खदेड़ने के लिये गांधी जी ने यह नारा गुजाया था। आज मोदी जी द्वारा यह नारा लगाया जाता है तो यह उन्हीं पर उल्टा वार करने वाला हो जायेगा। राहुल गांधी ने एक बार कहा था कि वंशवाद भारतीय राजनीति की फितरत में है तो गलत नहीं कहा था। भले ही पहले वंशवाद विरोधी तेवर दिखाकर मोदी जी ने इसे अपने पक्ष में कैश कराया हो लेकिन उनके कार्यकाल में भी उन्हीं की पार्टी तक वंशवाद से दूर नहीं रह सकी। केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह का बेटा राजनीति में आगे आया तो क्या यह हकीकत नहीं है कि उसकी स्वीकृति वंशवाद के आधार पर ही है। उत्तर प्रदेश में कई दिग्गज नेताओं के वंशज अपने पूर्वजों की कमाई पर राजनीति में फल फूल रहे हैं और वह भी मोदी जी के आशीर्वाद से। दिवंगत हो चुके उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह सांसद हैं तो पौत्र संदीप सिंह प्रदेश सरकार में मंत्री। लालजी टंडन के कारण ही उनके पुत्र आशुतोष टंडन को राजनीति में आगे आने का मौका भाजपा दे सकी है। स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य भी वंशवाद के कारण ही रातोंरात राजनीति में स्थापित हुये और उनसे भी मोदी को कोई परहेज नहीं है। वंशवाद तो विदेशों में भी है। जूनियर बुश और सीनियर बुश दोनों बाप बेटे अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके हैं।
सिद्धांत रूप में यह सही है कि लोकतंत्र की सुचारू गति के लिये हर पार्टी यथा संभव वंशवाद से बचाव करती रहे लेकिन इसका कोई नियम नहीं बनाया जा सकता। किसी सक्षम नेता के चुनाव में इसलिये नहीं हिचका जा सकता कि उसके पिता या दादा स्थापित राजनीतिज्ञ थे। कई बार किसी चर्चित नेता के पुत्र को राजनीति में अवसर समाज के लिये लाभदायक बन जाता है। जहां तक नेहरू गांधी परिवार का प्रश्न है। अगर नेहरू जी को देखा जाये तो उनकी बेटी इन्दिरा गांधी तभी राजनीति में कूद पड़ी थीं जब अंग्रेजों को देश से बाहर करने की लड़ाई लड़ी जा रही थी। इसलिये उनका देश के आजाद होने तक अपने आप में राजनीतिक वजूद बन गया था। नेहरू जी के समय वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं तो स्वाभाविक रूप से इसके लिये वंशवाद को आरोपित किया गया था लेकिन वे नेहरू जी के बाद प्रधानमंत्री नहीं बनी। नेहरू जी दिवंगत हो गये तो लाल बहादुर शास्त्री को कांग्रेस पार्टी ने प्रधानमंत्री चुना। दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री का असमय निधन हो गया जिससे उस वक्त नया प्रधानमंत्री चुनने का मौका आ पड़ा। इस दौरान कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं के काकस ने उन्हें अपनी सुविधा के लिये प्रधानमंत्री चुनवा दिया था न कि नेहरू जी उनपर स्वर्ग में बैठकर मेहरबानी कर रहे थे इसलिये वे प्रधानमंत्री बन सकीं थीं। बड़े नेताओं में आपस में शास्त्री जी का उत्तराधिकारी चुनने के लिये सहमति नहीं बन पा रही थी। ऐसे में उन्होंने यह सोचकर तत्काल के लिये इन्दिरा गांधी को प्रधानमंत्री चुन लिया कि वे उनकी कठपुतली बनकर रहेंगी। लेकिन इन्दिरा गांधी ने सत्ता हाथ में आने के बाद उनके इस विश्वास को झटक दिया जिससे सारे दिग्गज उनके खिलाफ हो गये और कांग्रेस का बटवारा हो गया। बाद में भारी जन समर्थन इन्दिरा गांधी के पक्ष में आ गया जिससे इन्दिरा गांधी जम गयीं। इसी तरह उन्होंने पहले अपने छोटे बेटे संजय गांधी को राजनीति में प्रोजेक्ट किया तो यह वंशवाद था। हवाई दुर्घटना में उनकी मौत के बाद इन्दिरा गांधी अपने बड़े बेटे राजीव गांधी को पायलट की नौकरी छुड़वाकर राजनीति में लायीं जिसके पीछे निश्चित रूप से उनकी वंशवादी मानसिकता थी। लेकिन वे राजीव गांधी को देश की सत्ता पर थोप पातीं इसके पहले ही उनकी हत्या कर दी गयी। उस समय राजीव गांधी देश से बाहर सोवियत संघ में थे। राष्ट्रपति के पद पर ज्ञानी जैल सिंह बैठे हुये थे। उन्होंने राजीव गांधी के लिये 9 घण्टे तक इन्दिरा गांधी के मौत की घोषणा रोके रखी ताकि प्रधानमंत्री का पद रिक्त होने से बचाने के लिये तुरंत किसी और को प्रधानमंत्री की शपथ के लिये बुलाने की संवैधानिक बाध्यता उनके सामने न आ सके। जब राजीव गांधी स्वदेश आ गये उसके बाद इन्दिरा गांधी की मौत घोषित हुयी और फौरन ज्ञानी जैल सिंह ने उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। इस तरह सीधे तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि राजीव गांधी अपनी प्रधानमंत्री मां के कारण उत्तराधिकार में यह पद हासिल कर सके थे। राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने वंशवादी आधार पर प्रधानमंत्री पद पर अपनी शपथ को मंजूर नहीं किया। नरसिंहा राव प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष बने। सोनिया गांधी कई वर्ष राजनीति से बाहर रहीं। नरसिंहा राव सक्षम और योग्य प्रधानमंत्री थे लेकिन जनता में अपनी पकड़ नहीं बना पाये। इसलिये 1996 के चुनाव में कांग्रेस को सत्ता गवानी पड़ी और कांग्रेस खासतौर से उत्तर भारत में नेहरू गांधी परिवार के ग्लैमर के अभाव में लोगों की नजरों से उतर गये। राजनीति में उसे पीछे हो जाना पड़ा। इस बीच सीताराम केशरी अध्यक्ष हुये। लेकिन वे भी न तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं को स्वीकार्य हुये और न आम जनता को। तब कांग्रेस को बचाने के लिये कांग्रेसियों ने सोनिया गांधी के सामने राजनीति में आने के लिये आर्तनाद किया। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस में फिर प्राण फूंके गये जिससे 8 साल बाद 2004 में फिर कांग्रेस की सत्ता में वापिसी हुयी। लोगों ने कांग्रेस को सोनिया के चेहरे पर वोट दिये थे लेकिन सोनिया गांधी ने खुद प्रधानमंत्री बनना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने मनमोहन सिंह का मनोनयन कर दिया। चूंकि पर्दे के पीछे सोनिया गांधी काम कर रहीं थी इसलिये मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री पद पर बैठने में सफल हुये। लोगों को उम्मीद थी कि दूसरी बार सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को कार्यकाल के बीच में विदा करके अपने पुत्र राहुल गांधी को मौका दे देंगी। शायद सोनिया गांधी का वश चलता तो ऐसा ही होता पर राहुल गांधी को बिना पूरी ट्रेनिंग और संघर्ष के कुर्सी पर बैठना गवारा नहीं हुआ। आज भी वे प्रधानमंत्री पद के इच्छुक नहीं दिख रहे हैं लेकिन अगर अब वे प्रधानमंत्री बन जाते हैं तो इसे वंशवाद को थोपना नहीं कहा जायेगा। राहुल गांधी ने जमीनी स्तर पर स्वयं को अपनी दम पर जमाने की चेष्टा की है और उन्हें अब कोई भी पद मिलना स्वतंत्र रूप से अपनी मेहनत और स्वीकार्यता का पुरस्कार होगा। अगर क्विट इण्डिया का मतलब वंशवाद के सिलसिले को बाहर करना है तो पहले राहुल गांधी को सत्ता में बैठने का मौका मिले तब उन्हें हटाने के लिये ऐसा कोई आवाहन प्रासंगिक बन सके। मजेदार बात यह है कि यह नारा अगर इसलिये लगाया गया है कि लोगों को राहुल गांधी को सत्ता में आने से रोकने के लिये मानसिक रूप से तैयार किया जा सके तो यह भी विचित्र है। सारे सर्वे अभी तो यह बता रहे हैं कि भले ही मोदी जी की लोकप्रियता कम हो रही हो लेकिन अभी भी चुनाव में उन्हीं की सरकार बनने के आसार हैं। फिर लोग राहुल को सत्ता में आने से रोकने की मशक्कत में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने की उत्सुकता क्यों दिखायें।

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