संघ -सिफर से शिखर तक का सफर


1925 में दशहरे के दिन जब डा. केशव बलराम हैडगेवार ने नागपुर शहर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का बीज रोपा था उस समय कहा जाता है कि बैठक में केवल पांच लोग मौजूद थे। आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ दुनियां का सबसे बड़ा संगठन बन चुका है। अनुमान लगाया जा सकता है कि डा. हैडगेवार और उनके साथ शामिल चंद लोग कितने जीवट वाले होगें जिसके चलते उनके द्वारा रखी गई नीव पर इतना बड़ा महल खड़ा होना संभव हो गया है अन्यथा पहली बैठक में नाम मात्र के लोगों के आ जाने से उन्हे बुरी तरह हतोत्साहित होकर घर बैठ जाना चाहिए था। कम्युनिष्ट पार्टी की नीव भी भारत में इसी साल पड़ी थी जिसमें अपने समय के धुरंधर बौद्धिक शामिल थे जिन्हें ज्ञान के मामले में पूरी दुनियां के इतिहास का विश्व कोष माना जा सकता था लेकिन वे आज कम्युनिष्ट आंदोलन कहां है और आरएसएस कहां है। यह सब संघ के शुरूआती गुरुओं के समर्पण और अपराजेय लगन का परिणाम है जो अपने आप में किसी चमत्कार से कम नही है। गांधी जी के सामने व्यापक स्वीकार्यता बनाना संघ के लिए कितना दुष्कर रहा होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। संघ केवल उदारवादियों जिनकी उस समय जनता में जबर्दस्त पैठ थी, के द्वारा ही तिरस्कृत नही था उसे अपनों का भी यानी हिंदूवादी संगठनों का विरोध भी झेलना पड़ा। हिंदू महासभा से लेकर बाद में बनी रामराज्य परिषद तक संघ को पीछे धकेलने का काम करते रहे। लेकिन उसके वैचारिक लक्ष्य में कुछ तो ऐसी बात थी जिसके चलते उसकी विचारधारा अंततोगत्वा सर्वोपरि हो गई। लेकिन यहां तक आने के लिए उसे काफी धैर्य दिखाना पड़ा, बेहद परिश्रम करना पड़ा। संसाधनों का अभाव रहा तो भी मंजिल की ओर उसकी अग्रसरता में कोई रुकावट नही आई। वजह थी संघ के लोगों के पास नैतिकता, त्याग और बलिदान की पूंजी। संघ भले ही अपने को सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन भर बताता हो लेकिन इस सच को झुठलाया नही जा सकता कि कल का जनसंघ और आज की भाजपा उसी के मोर्चा संगठन हैं। संघ की रणनीति बहुत कमाल की रही। उसने धीरे-धीरे अपने कदम आगे बढ़ाये। देश के आजाद होते ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद उस पर प्रतिबंध लग गया था। लेकिन उसने साहस से विपरीत परिस्थितियों का सामना किया और अपना कारवां की रफ्तार थमने नही दी। जब जनसंघ की जड़े जनमानस में कुछ जम गईं तो संघ को अपनी रफ्तार और बढ़ाने के लिए अटल बिहारी बाजपेयी के रूप में अचानक बहुत उर्वरा चेहरा मिल गया। लेकिन अटल जी में एक बात और थी कि वे मनमौजी थी। कई बार उनकी सोच संघ को असहज करने वाली होती थी लेकिन उनकी अत्यंत लाभकारी उपयोगिता के मददेनजर संघ ने संगठन के हित में सब्र बनाये रखा और यह गुण अपने आप में बहुत बड़ी साधना और तपस्या का द्योतक है। जनसंघ जब विलीन होकर जनता पार्टी का हिस्सा बन गया था और उसकी सरकार गठित हो रही थी तो अपने कोटे से अटल जी ने कैबिनेट के लिए जो चार नाम दिये उनमें दो मुसलमान सिकंदर बख्त और आरिफ बेग थे। मुसलमानों के लिए कांग्रेस से भी बड़ा दिल दिखाने का अटल जी का उत्साह संघ की लाइन पर ब्रेक लगाने वाला कदम था लेकिन उसने आपा नही खोया तांकि अटल जी को सहेजे रखा जा सके। इसी तरह अटल जी ने अपनी विदेश नीति में अरब देशों को वरीयता की कांग्रेसी सोच को बरकरार रखा था जो संघ के लिए कष्टप्रद था। इसे भी संघ ने नजरअंदाज किया। यहा तक हुआ कि अटल जी ने इण्डियन एक्सप्रेस में संघ के खिलाफ एक लेख लिख मारा फिर भी संघ ने झेला। पर संघ अपने तरीके से उस समय भी अपने उददेश्य के लिए काम करता रहा। पुराने समय के लोगों को याद होगी तत्कालीन सर संघ संचालक बाला साहब देवरस की भोपाल की बैठक की जिसमें उन्होंने गोपनीय रूप से जनसंघ घटक के विधायक बुलाये थे और उनसे कहा था कि जनता पार्टी की सरकार हमारी अंतरिम व्यवस्था है जिसका फायदा उठाकर हमें पूरी तरह सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी। उन्होंने कहा था कि इसकी तैयारी चल रही है। यूएनआई के उस समय के संवाददाता जोल खंबाटा ने इस बैठक की टोह लेकर पूरी खबर सबके सामने परोस दी और इसी की परिणति आगे चलकर जनता पार्टी के सरकार के असमय समापन के रूप में हुई। इस घटनाक्रम ने संघ की षणयंत्रकारी छवि जनमानस में बना दी थी जो उसके लिए बहुत आघातकारी थी। इस बीच में अटल जी ने दो और ऐसे फैसले कर डाले जिससे संघ की दरकती जमीन खाई में धंस गई। इसमें एक फैसला तो था 1980 के लोकसभा चुनाव में उनके द्वारा जगजीवन राम को प्रधानमंत्री का चेहरा घोषित करते हुए चुनाव मैदान में उतरना जिससे उस समय तक भाजपा की सवर्णों में जो मुख्य पूंजी थी उसका मोह भंग हुआ। दूसरे जब उन्होंने जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी के नाम से पुनर्जीवित किया तो उसके संविधान में गांधीवादी समाजवाद के लक्ष्य को जुड़वा दिया जबकि समाजवाद नाम से संघ के लोगों को पैदाइशी वितृष्णा रहती है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की परिस्थितियों के चलते हिंदू भावनाओं का पूरा सैलाब कांग्रेस के प्रति उमड़ पड़ा था जिसे रोकने की कोशिश रणनीतिक तौर पर बहुत बड़ी चूंक साबित होती। वक्त को पहचानने की संघ की सूझ-बूझ कितनी प्रखर है कि उसने तात्कालिक तौर पर उस समय खुद भी कांग्रेस का साथ देने का फैसला किया। कांग्रेस समर्थन के इस तूफान में भाजपा के पास लोक सभा में केवल 2 सीटे रह गई थीं, खुद अटल बिहारी बाजपेयी चुनाव हार गये थे। संघ को फिर शून्य से अपनी गिनती शुरू करनी पड़ी थी। लेकिन वाह रे उसके कर्ता-धर्ताओं का जीवट और उनकी लक्ष्य निष्ठा 1989 में वीपी सिंह के साथ संघ के मार्गदर्शन में भाजपा फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी राख से फिर उभर कर 86 सीटों के साथ ऊपर आ गई। उस समय अटल जी नेपथ्य में जा चुके थे और आडवाणी 1990 की रथ यात्रा के बाद हिंदुत्व की राजनीति के हीरो बन चुके थे। लेकिन जब भाजपा के सामने सरकार में पहुंचने का अवसर आया तो संघ ने फिर बहुत दूरदर्शिता दिखाते हुए प्रधानमंत्री पद के लिए अटल जी को आगे किया और आडवाणी से कहा कि आप उनकी टीम के रूप में कार्य करिये। संघ जो संस्कार देता है उसमें निजी महत्वाकांक्षा के लिए अवज्ञा के भाव का कोई स्थान नही रह जाता। अटल जी की बेरुखी हुई तो संघ ने अपने सबसे सशक्त रणनीतिकार गोविंदाचार्य से उनका बलिदान मांग लिया और गोविंदाचार्य ने उफ नही की। आडवाणी और गोविंदाचार्य की तरह ही संजय जोशी का भी किस्सा है। नरेंद्र मोदी में संघ को अटल जी के बाद राजनीतिक फ्रंट पर सबसे कारगर निवेश समझ में आया तो उसने संजय जोशी से उनके कैरियर की दक्षिणा मांग ली और संजय जोशी ने भी उफ नही किया। नरेंद्र मोदी ने भी अपनी शुरूआत संघ के प्रचारक के रूप में की थी लेकिन संघ की परवरिश में क्या कमी रह गई जो उनमें इन संस्कारों का उचाट देखना पड़ गया। संघ ने एक बार फिर अदभुत संयम के कौशल का परिचय दिया। अपने एजेंडे को फलीभूत करने के सबसे उपयुक्त उपकरण के रूप में मोदी का इस्तेमाल करने के लिए यह आवश्यक था लेकिन संघ सबका समय तय रखता है। डैड लाइन करीब आते ही उसने मोदी को एहसास करा दिया है कि उसे अर्दब में लेने का उनका मुगालता बेकाम का है। इसलिए जेपी नडडा के मुंह से भाजपा के लिए संघ की कोई जरूरत न रह जाने का बयान दिलवाने वाले मोदी स्वाधीनता दिवस के संबोधन में संघ की इस कदर खुशामद करते पाये गये।

बाक्स-
मोदी की अलग तान की कीमत कई बार संघ ने चुकाई


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे की उपयोगिता तभी तक रही है जब तक वह उनको महामानव के रूप में इतिहास में दर्ज कराने के लिए साधक हो अन्यथा वे हिन्दुत्व के एजेंडे की बलि भी अपने अरमानों की वेदी पर चढ़ाने से नही चूंकते रहे। यह बात भी संघ के नोटिस में है। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने पूर्ण बहुमत होते हुए भी व्यक्तिगत प्रसिद्धि के लिए पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुला लिया था जो संघ को बिल्कुल रास नही आया था। फिर वे एक बार बिना बुलाए पाकिस्तान में नवाज शरीफ की पोती की शादी की मुबारकवाद देने तोहफे लेकर पहुंच गये थे और इस दौरान उन्होंने नवाज शरीफ की अम्मी के पैर छूने की भावुकता भी दिखा डाली थी। लोगों के विमर्श में संघ को उनका यह कौतुक कितना भारी पड़ा था यह संघ के कर्ता-धर्ता ही जानते हैं। उन्होंने पहले कार्यकाल में गौरक्षकों के लिए कह दिया था कि वे जो घटनाएं गौरक्षा की आड़ में कर रहे हैं वे गौ भक्ति में नही गुंडागर्दी में आती हैं। इससे कुछ समय के लिए संघ का रायता बुरी तरह फैल गया था। रामभक्तों पर गोली चलवाने वाले मुलायम सिंह को उन्होंनें सिर्फ इसलिए पदमभूषण दिलवा दिया क्योंकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से उनको दोबारा प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद दे दिया था। व्यक्तिगत खुशामद से उनका इतना रीझ जाना कि अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारने लगे संघ को बहुत अखरा था। चक्रवर्ती सम्राट की फैन्टेन्सी हावी रहने के कारण विपक्ष के प्रभाव वाले राज्यों को छीनने के उत्साह में जो काम मोदी जी ने किये वे भी संघ को हजम नही हुए। जैसे महाराष्ट्र में इस खेल के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री रह चुके देवेंन्द्र फणनवीस को एकनाथ शिंदे के साथ उप मुख्यमंत्री के रूप में काम करने के लिए बाध्य किया जो अत्यंत अपमानजनक था। पार्टी को वरीयता देने की बजाय निजी भक्तों की टीम तैयार करने के लिए उनका उतावलापन भी संघ और भाजपा की फजीहत का कारण बन चुका है। उदाहरण स्मृति ईरानी है और सबसे ताजा दृष्टांत जगदीप धनखड़ हैं। जिन्होंने खुद मोदी के ही गले में हडडी अटका दी थी। संघ चाहता है कि भाजपा के नेता यह समझे कि यह उनका स्वर्णिम काल है इसमें गैरों पर करम अपनों पर सितम करने की बजाय पार्टी के परखे हुए लोगों को ही प्रभाव वाले अधिकारपूर्ण पद दिये जायें।

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