
सरकार तकनीकी मुददों को लोकतंत्र के सापेक्ष अधिक महत्व देकर मनमानी जारी रखने का हक मांग रही है। राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए उनके सम्मुख आये विधेयकों के बारे में समय सीमा तय करने के पिछले मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना के फैसले पर राष्ट्रपति की चिटठी की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में चल रही है। जिसमें सरकार ने अपना लिखित पक्ष दाखिल करते हुए यह साबित करने की कोशिश की है कि उच्चतम न्यायालय का फैसला कार्यपालिका को अपने मातहत करने का असंवैधानिक प्रयास है क्योंकि इस फैसले में शक्ति संतुलन के सिद्धांत को बदलने की मंशा निहित है। सरकार ने अपने पक्ष में यह भी कहा है कि संविधान में जब राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए किसी समय सीमा का उल्लेख नही है तो उच्चतम न्यायालय का निर्देश नया कानून बनाने जैसा प्रतीत होता है जो उच्चतम न्यायालय की अनाधिकार चेष्टा में आता है।
पर वास्तविकता तो यह है कि शक्ति संतुलन को प्रभावित करने की चेष्टा तो खुद सरकार ने की है। संविधान की मंशा स्पष्ट है कि केंद्र सरकार को राज्यों में चुनी हुई सरकारों के काम को असाधारण स्थितियों के अलावा कदापि बाधित नही करना चाहिए। इसमें भी शक्ति संतुलन कहीं न कहीं निहित है। इसके बावजूद वर्तमान सरकार बाज नही आ रही। दिल्ली में उसने केजरीवाल सरकार को विफल करने के लिए जो कानून बनाये वे संवैधानिक मंशा के साथ विश्वासघात के बराबर थे। सरकारी अधिकारियों की पद स्थापना के मामले में वह पुलिस की नियुक्तियों तक तो सही थी क्योंकि दिल्ली देश की राजधानी है, वहां कई देशों के दूतावास हैं। ऐसी स्थिति में दिल्ली की कानून व्यवस्था राज्य सरकार के भरोसे तय नही हो सकती। लेकिन इसके बाद उसने सभी विभागों में यह फार्मूला लागू कर दिया। इससे दिल्ली सरकार के अधिकारी उप राज्यपाल के आदेशों को सर्वोपरि मानने लगे और केजरीवाल के उन पर नियंत्रण का कोई महत्व नही रह गया। दिल्ली की सरकार द्वारा दिये गये जनादेश को यह कदम रौंदने का काम करने वाला था। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा दिल्ली की जनता को अपने ब्लैकमेल के सामने झुकाने में कामयाब हो गई। लोगों की पसंद भले ही केजरीवाल रहे हों लेकिन जब उनके लिए काम करने का अवसर नही बना था तो तंत्र की पंगुता का खामियाजा दिल्ली की जनता को भोगना पड़ रहा था। इससे निजात पाने के लिए उसने भाजपा को ही अपने सिर पर लादने की मजबूरी मान ली। प्रायः समुदाय क्रांतिकारी नही होता और परिस्थितियां दुरूह होने पर वह समझौतावादी रुख दिखाती है।

इतर पार्टियों की सरकार चुनने वाले अन्य राज्यों की जनता को भी इसी स्थिति में धकेला गया। सुप्रीम कोर्ट में जो मामला पहुंचा वह तमिलनाडु का था। तमिलनाडु में द्रमुक सरकार है। जिसके द्वारा विधानसभा में पारित कराये गये 10 विधेयक तीन साल तक के समय से राजभवन में अटके हुए थे। एक सरकार को पांच वर्ष का समय मिलता है जिसमें चुनाव के दौरान जनता से किये गये वायदे उसे पूरे करने होते हैं। लेकिन जब उसके विधेयक राजभवन में अटके पड़े रहेगें और कार्यकाल पूरा हो जायेगा तो अगले चुनाव में जनता उसे वायदा फरामोश या नाकारा समझकर फिर से वोट करे यह नही हो सकता। इस तरह प्रतिपक्षी दल की राज्य सरकार की अपनी जनता के बीच गैर जिम्मेदार छवि बना देने का यह हथकंडा बहुत घटिया षणयंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए। संवैधानिक संस्थाओं की जिम्मेदार है कि इस तरह की शहजोरी को रोके। पहले तो राष्ट्रपति पर आता है कि वे संबंधित राज्यपाल को सदबुद्धि देने के लिए हस्तक्षेप करें। अगर उन्होंने नही किया तो संसद में यह मुददा उठाये जाने पर विधायिका को कोई निवारक उपचार करना चाहिए। अगर कार्यपालिका और विधायिका दोनों इस षणयंत्र में मिल जाते हैं तो न्यायपालिका भी मूकदर्शक कैसे बन जाये। यह लोकतंत्र को उसके साथ की जा रही गला घोंटने की साजिश से बचाने के दायित्व से जुड़ा मुददा है। इन आपात परिस्थितियों में उसके सामने कर्तव्य की पुकार सुनकर असाधारण कार्रवाई करने की जिम्मेदारी आ जाती है। फिर भी ऐसा नही कहा जा सकता कि उसने किसी भी संवैधानिक सीमा का अतिक्रमण किया है।

अनुच्छेद 200 जिसमें सदन में पारित विधेयकों के बारे में राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियां वर्णित हैं कहा गया है कि या तो राज्यपाल किसी विधेयक को अपनी मंजूरी प्रदान करेगें या उसे वापस लौटा देगें अथवा उसे राष्ट्रपति को संदर्भित कर देगें। इसमें राज्यपाल के किस अधिकार को उच्चतम न्यायालय ने कम किया है। उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति और राज्यपालों के अधिकारों को छुआ तक नही है। इसके लिए समय सीमा तय करना कानून बनाने का काम नही कहा जा सकता। यह मुददा जब उच्चतम न्यायालय ने राज्यों के सदन के उम्मीदवारों और केंद्रीय सदनों के उम्मीदवारों के बारे में उनकी आय, परिसंपत्तियों, शैक्षणिक योग्यता के विवरणों और क्रिमिनल रिकार्ड की जानकारी शपथ पत्र पर नामांकन पत्र के साथ दाखिल किया जाना अनिवार्य किया था तब भी उठा था। उस समय दिवंगत चंद्रशेखर ने कहा था कि उच्चतम न्यायालय ने ऐसा करके विधायिका के अधिकारों को हड़पने की कोशिश की है क्योंकि यह नया कानून बनाने का काम है। तब उच्चतम न्यायालय ने सफाई दी थी कि उसने नया कानून नही बनाया बल्कि पहले से सूचना का जो अधिकार संविधान में वर्णित है उसकी व्याख्या को विस्तार दिया है। आखिर जनता को सही प्रतिनिधि चुनने के लिए उसके सामने दरपेश उम्मीदवारों की व्यक्तिगत कुंडली तो उपस्थित होनी ही चाहिए तांकि वह उम्मीदवारों के बीच मेरिट तय कर सके। इसे मान्य किया गया था। विधेयकों को मंजूरी देने की अनुच्छेद 200 की व्यवस्था में भी यह कहा गया है कि राज्यपाल निष्पक्षता पूर्वक, तार्किक आधार पर उचित समय में विधेयक पर फैसला ले लेगें। अब उचित समय की परिभाषा क्या है। अगर राज्य सरकार के पूरे कार्यकाल तक उसके किसी विधेयक पर अमल न होने देने को राज्यपाल के अनुलंघनीय अधिकार के रूप में शिरोधार्य किया जाये तो तंत्र कैसे चलेगा। इस कारण उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार था कि वह इस संबंध में उचित समय के सुसंगत दायरे को व्याख्यायित करे। उसने ऐसा ही किया। जाहिर है कि उसने कोई नया नियम नही बनाया।

सरकार ने अपने जबावनामें में यह भी कहा है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के पद कोई चूक करते भी है तो उनका समाधान न्यायिक आदेश से नही राजनीतिक तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए। इसका संबंध राजनीतिक सुधारों से हैं जो एक सतत प्रक्रिया है। 1977 में जनता पार्टी जेपी के संपूर्ण क्रांति दस्तावेज के रूप में राजनीतिक सुधारों के पूरे पैकेज को हाथ में लेकर सत्ता में पहुंची थी। इसी के तहत विपक्ष को प्रतिपक्ष का नाम दिया जाना, नेता प्रतिपक्ष को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाना आदि कदम संभव हुए थे। दलबदल रोकने और चुने हुए प्रतिनिधि को कार्यकाल के बीच में वापस बुलाने जैसे क्रांतिकारी अधिकार को दिये जाने के लिए व्यापक विचार मंथन किया गया था। रामो-वामो के दौर में भी न्यूनतम कार्यक्रम में बड़े राजनीतिक सुधारों के चिंतन को स्थान दिया गया था। राजनीति के इन सभी आदर्शवादी चरणों में राष्ट्रपति और राज्यपालों के पद के औचित्य पर विचार हुआ था। एक पक्ष का मत था कि सफेद हाथी के सदृश्य बहुत खर्चीले इन पदों को समाप्त कर दिया जाये। कई नेताओं का मत था कि इन पदों को तो बरकरार रखा जाये लेकिन राष्ट्रपति और राज्यपाल के पद राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों को न देकर उच्चतम न्यायालय के रिटायर जजों और ऐसे ही अन्य अकादमिक, वैज्ञानिक महत्व आदि से जुड़े रहे सेवानिवृत्त लोगों को सौंपे जायें। क्या मोदी सरकार ने जो राजनीतिक तरीकेे की बात करती है अपने पूर्वज नेताओं के इस विचार पर पार्टी के अंदर चर्चा कराने की आवश्यकता समझी है। उनके सर्व सत्तावादी सोच में किसी वास्तविक राजनीतिक सुधार की चर्चा के लिए कोई गुंजाइश नजर नही आती। वे राजनीतिक सुधारों के नाम पर लोगों के अंदर कुलबुलाने वाले मुददों को मूर्त रूप देने में दिमाग नही दौड़ाते। इसकी बजाय निजी महत्वाकांक्षा के एजेंडे को प्लांट करना राजनीति की उनकी सुधारवादी कवायद का मूल तत्व रहता है। जैसे वन नेशन, वन इलेक्शन की कवायद के लिए लोगों के बीच से आवाज आने की प्रतीक्षा उन्होंने नही की। चूंकि धारणा यह है कि अगर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों तो लोग दोनों ही चुनाव के लिए उनके चेहरे को देखकर वोट करेगें और केंद्र के साथ-साथ सभी राज्यों में भाजपा का कब्जा हो जायेगा। इस संकीर्ण लक्ष्य की पूर्ति का नाम है वन नेशन, वन इलेक्शन की कवायद।

समझने वाली बात यह है कि भारत की असाधारण विविधता में राष्ट्रीय अस्मिता और क्षेत्रीय अस्मिता दो स्तरों पर लोगों की चेतना काम करती है। जब लोकसभा के चुनाव होतें हैं तो लोग राष्ट्रीय आधार पर वोट करते हैं। लेकिन वही लोग राज्यों के चुनाव में सोच के दूसरे स्तर पर पहुंच जाते हैं। राज्यों के चुनाव में संदर्भ बदल जाता है और राष्ट्रीय पार्टी की जगह कई राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां बाजी मार ले जाती हैं। जैसे मोदी जी चक्रवर्ती शासन का सपना देखते हैं वैसे ही अतीत में इंदिरा गांधी देखती थीं। उनके समय में पंजाब में बार-बार अकाली दल की सरकार आ जाती थी। जम्मू कश्मीर में भी अनुचर सरकार बनवाने का उनका इरादा चकनाचूर होता रहता था। उन्होंने मोदी की तरह ही इतर राज्य सरकारों को विफल करने के हथकंडे इस्तेमाल किये। नतीजा क्या हुआ दोनों राज्य इन नीतियों से अलगाववाद और आतंकवाद के गर्त में धसक गये। आने वाली सरकारों को इस परिणति से सबक लेना चाहिए। लेकिन चाहे राज्यपालों के विघ्नकारी उपयोग की बात हो या वन नेशन, वन इलेक्शन जैसे विधायी उपायों का कदम मोदी सरकार ऐसी सोच से इंदिरा गांधी की तरह ही आग से खेलने का काम कर रही है।
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