
प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के लिए लाया गया विवादित विधेयक राजनीतिक विरोधियों के सफाये की गाइडेड मिसाइल के तौर पर देखा जा रहा है। प्रायः राजनैतिक सुधार के कदम तब उठाये जाते हैं जब समाज में उनके लिए वैचारिक आंदोलन की स्थिति परिपक्व हो चुकी होती है, जब जनता के बीच से अपेक्षित सुधार की मांग प्रबलता के साथ सामने लाई जाती है। जैसे इस समय राज्यपालों की शक्तियों पर बहस चल रही है। पहले भी केंद्र राज्यपाल नामक संस्था को विपक्षी सरकारों के संहार का उपकरण बनाता रहा। उस समय जिस पार्टी की सरकार सत्ता में थी वह आज विपक्ष में है। तत्कालीन सत्तारूढ दल भी अपनी दुर्नीतियों को मुंहजोरी करके जायज साबित करने की कोशिश करता था। लेकिन उसके अडिग निश्चय की सीमा तय रहती थी। उसे इस सीमा के बाद नैतिक मान्यताओं के लिहाज में झुक जाने में ही गनीमत नजर आने लगती थी। लेकिन क्या वर्तमान निजाम की आंखों में शर्म का वह पानी रह गया है।

यह विषयान्तर नही है। दागी राजनीति को खत्म करने के लिए लाया गया विवादित विधेयक राजनीतिक सुधार के तहत ही सूचीबद्ध किया जायेगा तो इस पवित्र उददेश्य के निर्वहन में वर्तमान सरकार कितनी ईमानदार है इसकी परख तो की ही जानी चाहिए। बात हो रही थी राज्यपालों द्वारा अपनी शक्तियों के दुरुपयोग की। जब राज्यपालों के माध्यम से गैर कांग्रेसी राज्य सरकारों के संहार की इंतहा हो गई तो सशक्त विरोध खड़ा हो गया था। निरंकुश मानसिकता के बावजूद तब का निजाम लोक-लाज से कहीं न कहीं बंधा था। इस कारण उसने सरकारिया आयोग का गठन किया। जिसका उददेश्य संघीय ढांचे को निरापद रखने के लिए उपाय खोजना और उनकी संस्तुति करना था। निश्चित रूप से तत्कालीन सरकार के नैतिक समर्पण के चलते यह संभव हो पाया था जिसकी वर्तमान में कल्पना नही की जा सकती। इसके साथ-साथ उस समय इस बात की भी तेज आवाजें उठी कि राज्यपाल पद के लिए किसी व्यक्ति के चयन का आधार तय किया जाये जिसमें राजनीतिक व्यक्ति को इस पद पर न बैठा कर संविधान विशेषज्ञ या निरपेक्ष विद्वानों को इस पद की जिम्मेदारी सौंपने की मांग शामिल थी। साथ ही ऐसी परंपरा तैयार करने का आग्रह भी सामने लाया गया था जिसमें कि केंद्र किसी राज्य में राज्यपाल पद पर किसी व्यक्ति को भेजने से पहले उसके नाम पर वहां की सरकार की सहमति ले। इस परंपरा का पालन भी किया गया लेकिन कभी वन नेशन, वन इलेक्शन के नाम पर और कभी दागी राजनीति के शुद्धिकरण के नाम पर राजनीतिक सुधारों की अग्रसरता का दम भरने वाली वर्तमान सरकार ने प्रासंगिक होने के बावजूद राज्यपालों के चयन में उक्त मानक लागू करने पर विचार का कोई प्रयास नही किया। जबकि ऐसा करने से तमाम बखेड़ेबाजी का प्रभावी ढंग से अंत हो जाना तय था।

अब राजनीतिक सुधारों की एक कड़ी में पेश किये गये विवादित विधेयक की पड़ताल करें। यह विधेयक जनता के बीच वैचारिक आंदोलन का उत्पाद नही है। यह उपराष्ट्रपति के चुनाव में उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों से पार पाने के लिए अनायास चलाया गया हथौड़ा सदृश्य है। इसलिए अपने आप में इसके प्रयोजन की संदिग्धता सिद्ध है। वर्तमान सरकार का आचरण दर्शाता है कि ईडी, सीबीआई आदि एजेंसियों का सलेक्टिव इस्तेमाल हो रहा है जिसमें उसने शर्म को बेंच खाया है। ईडी, सीबीआई के जाल में केवल विपक्षी पार्टियों के नेता फंसते हैं। कल तक चप्पलें सड़क पर चटखाने वाले विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही अमीरी की चोटी पर कैसे चढ़ गये यह प्रश्न सरकार की एजेंसियों को कभी नही कुरेद पाता। वजह है उनका यह विश्वास कि भारतीय जनता पार्टी का टिकट जिन्न सिद्ध करने का कोई मंत्र हैं। इसलिए सोचते हैं कि उनकी अप्रत्याशित अमीरी में हम किसी पाप को देखने का अनर्थ कैसे करें। दूसरी ओर विपक्षी नेताओं पर ईडी ने जितने केस किये उनमें से लगभग सभी को अदालत ने सुबूत न होने के आधार पर दोषमुक्त कर दिया। नई खबर यह है कि दिल्ली के पूर्व उपमुख्यमंत्री जिन मनीष सीसौंदिया को आबकारी घोटाले में ईडी ने जेल भेजा था अब उसने उन पर से यह कहते हुए केस वापस ले लिया है कि सीसौंदिया के खिलाफ एजेंसी को कोई सुबूत नही मिला। इस तरह का अनर्थ किसी सरकार में नही हुआ। स्पष्ट है कि इस सरकार में भाजपा के किसी नेता पर ईडी, सीबीआई की कभी रेड नही होगी जबकि विपक्षी नेता के खिलाफ तिल का ताड़ बनाकर मामला रच लिया जायेगा। जब वह कई महीने जेल रह लेगा, उसकी दुर्गति हो जायेगी तब बेशर्मी से सरकारी एजेंसी कह देगी कि सुबूत नही मिले इस कारण हम इनका केस वापस लेते हैं।

मनमोहन सिंह सरकार के कई मंत्री सरकार के रहते हुए भ्रष्टाचार के मामले में जेल चले गये लेकिन इस सरकार में मंत्री छोड़ दीजिए सत्तारूढ पार्टी के सामान्य नेता के खिलाफ भी कार्रवाई होना संभव नही है। ऐसी स्थिति में कोई कैसे माने कि आपने दागी राजनीति को स्वच्छ करने के लिए कोई विधेयक प्रस्तुत किया है। अगर लोग यह मान रहे हैं कि आपने विपक्ष मुक्त भारत बनाने का जो संकल्प ले रखा है उसे कामयाब करने के लिए विवादित विधेयक लाया गया है तो इसमें झूठ कहां है। आप दुहाई दे रहे हैं कि हमने तो प्रधानमंत्री तक को इस विधेयक के दायरे में रखने का साहस दिखाया है। लेकिन क्या पद पर रहते हुए किसी प्रधानमंत्री को जेल भेजा जा सकता है खासतौर से इस सरकार में। जेल भेजना तो दूर उसके खिलाफ मुकदमा तक नही हो सकता। वह जमाना और था जब नरसिंहा राव को प्रधानमंत्री पद रहते हुए एक आपराधिक मामले में तीस हजारी कोर्ट में कटघरे में खड़ा हो जाना पड़ा था। और मुख्यमंत्री और मंत्री के खिलाफ संगीन मुकदमे की जहां तक बात है तो उसमें भी आपके महानुभाव रक्षा कवचधारी हैं। जिनके निकट कानून व्यवस्था की एजेंसियां नही आ सकतीं।

मुख्यमंत्री बनते समय बाबा योगी आदित्यनाथ के खिलाफ संगीन से संगीन धाराओं के मुकदमें थे। अगर इन मुकदमों का ट्रायल चलता रहता तो संभव था कि किसी मामले में उन्हें 30 दिन से अधिक का समय जेल में गुजारना पड़ गया होता। आखिर उनके खिलाफ हत्या, बलवा आदि के मुकदमें थे। जिनमें ट्रायल कोर्ट का कोई सनकी जज उन्हें सजा दे देता तो अपील करके सजा स्थगित करवाने में उन्हें पांच-छह महीने कम से कम लग जाने थे। लेकिन योगी जी ने कुर्सी पर बैठते ही अपने सारे मुकदमें खुद की कलम से वापस कर लिए। यह एक नजीर है कि भाजपा के मुख्यमंत्री या मंत्री के लिए किसी मुकदमें का पांश इतना मजबूत नही है जिसकी जकड़ के कारण 30 दिन तक वह जेल से बाहर न आ सकें। हालांकि विपक्ष के मुख्यमंत्री भी इस मामले में कम शातिर नही रहे। लेकिन तब किसी भी पार्टी का मुख्यमंत्री कानून को धता बता सकता था। पर अब केवल भाजपा के मुख्यमंत्री और मंत्रियों को यह विशेषाधिकार प्राप्त रह गया है। लोग चाहते हैं कि देश में ऐसी व्यवस्था बने कि भ्रष्टाचार करने वाले नेता जेल में सड़ते दिखाई दें। भाजपाई अपना बचाव न कर पाने पर पिछले उदाहरण देने लगते हैं लेकिन उन्हें शायद पता नही है कि अतीत में दिवगंत केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह के पिता को मंत्री रहते हुए रिश्वत लेने के मामले में सीखचों के भीतर होना पड़ा था और उनकी जेल में ही रहते हुए मौत हो गई थी। तब लोकतंत्र नवजात था जिससे कानून का राज आदिम स्टेज पर खड़ा था, आज जब दिल्ली की यमुना में उस समय से न जाने कितना पानी बह चुका है तो कानून का राज फुलप्रूफ होना चाहिए। मुख्यमंत्री, मंत्री भ्रष्टाचार करें तो कानून प्रवर्तन एजेंसियों को उन्हें दबोचने में कोई डर लगना नही चाहिए। लेकिन क्या मोदी निजाम में रंच मात्र भी इस संभावना के चरितार्थ रहने की गुंजाइश किसी को नजर आती है। भाजपा ने तो भ्रष्टाचार के मामले में नही अपने भ्रष्टाचार के मामले की किसी आवाज के संदर्भ में जीरो टोलरेंस का सिद्धांत लागू कर रखा है। भ्रष्टाचार को राजनीति के सांस्कृतिक मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करने की अपराधी है भाजपा। भ्रष्टाचार को उसने पुरुषार्थ के प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया है, उसने भ्रष्टाचार को प्रतिष्ठा का संकेतक बना दिया है। उसने चुनावी कामयाबी से भ्रष्टाचार को जोड़ दिया है। भाजपा के कार्यकर्ताओं के मन में यह भर गया है कि भ्रष्टाचार करोगें तो खूब पैसा जुट जायेगा जिसकी दम पर प्रतिद्वंदी को परास्त करके वह राष्ट्र सेवा के मिशन में अहिर्निश लगा रह सकता है। उसने भ्रष्टाचार को लोगों के मन में राष्ट्र सेवा की सीढ़ी के बतौर जगह दिला देने का काम कर डाला है। राष्ट्र सेवा की यह कल्पना अदभुत है लेकिन अगर जनता की बेसुधी न टूटी तो इस राष्ट्र सेवा से देश की क्या दुर्गति होने वाली है इसका अंदाजा लगाने में सिहरन हो उठती है।







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