
भाजपा में सुशासन के सबसे भारी मॉडल रहे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की चौथी वर्षी पर अलीगढ़ में उनके परिवार के लोगों द्वारा किया गया आयोजन एक बिग पॉलिटिकल शो बन गया। पूर्व मुख्यमंत्री कह देने से स्व. कल्याण सिंह का परिचय पूरा नही होता क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री तो बहुत रहे होगें। कल्याण सिंह उस कतार की एक शख्सियत भर नही थे। सरदार पटेल को उनके कड़े फैसलों के कारण जनमानस में लौह पुरुष के बतौर नवाजा गया था। चौधरी चरण सिंह चाहते थे कि उन्हें दूसरे लौह पुरुष के रूप में देश याद करे। अपने मुख्यमंत्रित्व के समय एक झटके में प्रदेश भर के पटवारियों को बर्खास्त करके उन्होंने इसके लिए काफी सोपान तय कर लिए थे। देश में पहली बार गैर कांग्रेस सरकार बनने पर चौधरी साहब को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रशासनिक दृढ़ता दिखाने का अवसर मिला। उनके पास विभाग भी गृह था। जनता पार्टी के आरंभिक दिनों में जनता देखना चाहती थी कि इमरजेंसी में हुए दमन की जिम्मेदार इंदिरा गांधी को चौधरी साहब कैसा सबक सिखाते हैं। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि चौधरी साहब के इरादे बूमरेंग कर गये। वे इंदिरा गांधी से जेल की चक्की न पिसवा सके बल्कि उनके समर्थन से ही उनकों भारत का अनोखा प्रधानमंत्री बनने का अवसर जुटाना पड़ा। इस व्यतिक्रम ने चौधरी साहब का मूर्तिभंजन कर डाला। वे शिखर पर कदम रखने के पहले ही फिसलकर जमीन पर आ गिरे। लालकृष्ण आडवाणी की भी हसरत थी कि लोग उन्हें सरदार साहब के बाद दूसरे लौह पुरुष के रूप में याद करें पर उनकी किस्मत भी काफी ऊंचाई पर पहुंचने के बाद औंधे मुंह गिरने के लिए अभिशप्त हो गई। कल्याण सिंह के मन में शायद लौह पुरुष कहलवाने की कोई हसरत कभी नही रही लेकिन देश के सबसे बड़े सूबे में अराजकता की विरासत को उन्होंने जिस तरह से दुरुस्त किया उससे बाद में लोग उनमें लौह पुरुष का अक्स अनायास देखने लगे थे। इस बीच लखनऊ की गोमती नदी में बहुत पानी बह चुका है। कितनी ही सरकार बदल चुकी हैं जिनके अलग-अलग हिस्सों की स्मृतियां और अनुभव लोगों के जेहन में हैं जिनके आधार पर उन्हें आयरन मैन मानने की धारणा अब तो बहुत पुख्ता हो चुकी है।

कल्याण सिंह की पुण्य तिथि के दिन 75 वर्ष की उम्र में दायित्व मुक्ति लेने की बहस भी नये सिरे से प्रासंगिक हो गई। इसलिए कुछ चर्चा इस पर भी। हिन्दू कहो या सनातन इसके परंपरागत विधान में जीवन को चार चरणों में विभक्त करने की कल्पना की गई है। वैसे तो पौराणिक आख्यान और मिथकों में प्राचीन विभूतियों के 10 हजार वर्ष तक तप में लीन रहने के वर्णन आम हैं। लेकिन कथानक को रुचिकर बनाने के लिए अतिश्योक्ति को अलंकार का दर्जा दिये जाने की व्यवस्था से जो परिचित हैं वे उसमें केवल वास्तविकता को प्रयोजनीयता के लिए निथार कर उस पर चलते हैं। इसके तहत सामान्य स्वस्थ व्यक्ति की आयु 100 वर्ष निर्धारित की गई थी। 75वां वर्ष जिसे चौथेपन में प्रवेश भी कहा जाता है, इस परिभाषा को और सुबोध बनाया जाये तो यह जीवन के अंतिम सोपान के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। 75 वर्ष की उम्र के बाद मान लिया जाता है कि व्यक्ति की आंखें कभी भी मुंद सकती हैं। ऐसे में यह व्यवस्था की गई थी कि उम्र का यह पड़ाव तय करते ही वह अपने उत्तराधिकारी को सारे उत्तरदायित्व सौंप कर खुद को हलका कर लें। इससे दो बातें होगीं। एक तो आपके सामने ही आपका उत्तराधिकारी सारी जिम्मेदारियों के लिए खुद को तैयार कर लेगा। दूसरा जिस दिन आपकी चला-चली की बेला आयेगी आप शांन्ति के साथ देह छोड़ सकेगें। 2014 में जब संघ ने भाजपा के लिए यह नियम बनवाया था तब उसके कर्ता-धर्ताओं के मन में हिन्दू अध्यात्म की प्रेरणाएं काम कर रहीं थीं या नेतृत्व के लिए जिस चेहरे को तय कर लिया गया था उसका अपने वरिष्ठों के सामने निष्कंटक रास्ता तैयार करने की रणनीति का परिणाम थी यह व्यवस्था। अगर यह स्थायी व्यवस्था नही थी तो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद इसे विराम दे दिया जाना चाहिए था। लेकिन लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को मार्गदर्शक मण्डल में भेजे जाने के बाद भी इसे याद रखा गया। उनके परवर्तियों में चाहे कल्याण सिंह हो, चाहे सुमित्रा महाजन जो कि 75 वर्ष की दहलीज पर पैर रखने के बाद भी चुस्त-दुरुस्त बने हुए थे उनका कैरियर भी इस नियम की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया। तो क्या नियम तो नियम वाली बात फिर होगी। आपने अगर 75 वर्ष की लाइन क्रास कर ली है तो भले ही आप अपने को युवाओं से ज्यादा फिट दिखायें पर आपको कुर्सी का मोह छोड़ना ही पड़ेगा। कल्याण सिंह की पुण्य तिथि पर यह जिज्ञासा फिर उठ खड़ी हुई।

कल्याण सिंह को भाजपा को 1991 में इसलिए मुख्यमंत्री बनाना पड़ा था क्योंकि मण्डल क्रांति के कारण ओबीसी अपने हक के लिए सारे देश में मचल पड़ा था। भाजपा के सोशल इंजीनियरिंग के मास्टर गोविंदाचार्य ने पार्टी को हिदायत दी कि अगर मुख्यमंत्री पद के लिए सवर्ण चेहरे को चुनने की गलती की गई तो मण्डलवादी दल फिर राजनीतिक परिदृश्य पर छा जायेगें और भाजपा को दूरगामी तौर पर स्थायी नुकसान हो जायेगा। यह बात भाजपा के रणनीतिकारों को समझ में आई इसलिए अंतरिम व्यवस्था के तौर पर कल्याण सिंह के राजतिलक की हामी भर दी गई। पर कल्याण सिंह ने उच्च प्रशासनिक मानकों का निर्वाह करते हुए जिस तरह का शासन चलाया उससे भाजपा की असल वर्गसत्ता के होश उड़ गये। लोगों को सेवा और न्याय सुलभ होने लगा, व्यवस्था द्रोहियों के हौसले पस्त होने लगे तो कल्याण सिंह की पकड़ बहुत मजबूत होती दिखने लगी। भाजपा विरोधी मानने लगे थे कि अगर कल्याण सिंह की सरकार ने कार्यकाल पूरा कर लिया तो भाजपा को दशकों तक उत्तर प्रदेश में कोई हरा नही पायेगा और राष्ट्रीय राजनीति में भी भाजपा को इससे इतना बल मिलेगा कि केंद्र की सरकार की बागडोर उसके हाथ में आ जायेगी। लेकिन भाजपा की संचालक शक्तियों को ही यह मंजूर नही हुआ। लखनऊ के बख्शी का तालाब इलाके में स्व. रामप्रकाश त्रिपाठी के नेतृत्व में जाति विशेष के भाजपा विधायकों ने बैठक करके कल्याण सिंह को उखाड़ फेकने के लिए अपनी शिखाएं खोल दीं। कल्याण सिंह सरकार की बलि देने के लिए अयोध्या में 6 दिसंबर 1992 को हठधर्मिता पूर्वक विवादित ढांचा ढहाने का तांडव कर दिया गया। जबकि सारे सयाने कह रहे थे कि पहले कल्याण सिंह की सरकार को चलने दो। सरकार कार्यकाल पूरा करते-करते उस बुलंदी पर पहुंच जायेगी जहां से उसे कोई खिसका नही सकता। कल्याण सिंह यह उददेश्य हासिल करने के बाद सरकार के अंत के दिनों में विवादित ढांचे पर हिन्दुओं के आराध्य भगवान राम का मंदिर भी खड़ा करवा देगे। कल्याण सिंह की मंदिर के लिए निष्ठा में भी संदेह नही किया जा सकता था जो कि बाद में प्रमाणित हुआ। बाबरी मस्जिद गिरने का जो मुकदमा चला उसमें आखिर कल्याण सिंह ने इसके ध्वंस की सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली और सजायाफ्ता बनना कुबूल कर लिया। लेकिन दूसरे लोगों को मंदिर के निर्माण की उतनी लगन नही थी जितनी कि शूद्र को समय रहते अपने छाती से हटा देने की थी।

कल्याण सिंह को फिर एक बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। लेकिन बहुत बुरी स्थितियों में। कल्याण सिंह नही चाहते थे कि वे इस भानुमती का पिटारा बनी हुई सरकार को चलाएं। ऐसी सरकार बनाये जिसमे हर दलबदलू को मंत्री पद देना पड़े। पर राजनाथ सिंह जो प्रदेश अध्यक्ष थे अपने आप को चाणक्य का अवतार सिद्ध करने के लिए मरे जा रहे थे। पार्टी के दबाव के कारण काटों का ताज कल्याण सिंह को पहनना पड़ा। लेकिन उन स्थितियों में भी उन्होंने सुशासन की झलक देने में कोई कसर नही छोड़ी। राजनीति के जानकार उन मंथराओं के नाम जानते हैं जिन्होंने कल्याण सिंह के प्रति अपनी डाह भंजाने के लिए कुसुम राय के नाम से जोड़कर रची कहानियों से अखबारों के गॉसिप कॉलम भरवा दिये तांकि कल्याण सिंह की गुड गवर्नेंस की जनमानस में गहरी हो रही छाप को धुंधला किया जा सके। 2014 में जब भाजपा में सबसे बड़ी बहार आई तो अनुमान यह किया गया था कि पार्टी का नेतृत्व कल्याण सिंह की क्षमताओं का सदुपयोग करने को उत्सुक होगा। लेकिन निर्द्वंद्व सत्ता के लिए पार्टी में सामूहिक नेतृत्व की हर गुंजाइश पर पहले दिन से ही फरसा ताने भाजपा के नये नेतृत्व ने कल्याण सिंह को भी नही बख्शा। राजस्थान का राज्यपाल बनाकर सक्रिय राजनीति से उनकी पारी के विराम का इंतजाम कर दिया गया। भाजपा के शुभचिंतक मानते हैं कि अगर मोदी कल्याण सिंह को अपने मंत्रिमंडल में जगह दे देते तो उनकी सरकार का इकबाल बेहद चमकदार बनाने में कल्याण सिंह बड़ा योगदान दे सकते थे। इसके बाद 2019 में कल्याण सिंह को ही उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपी जानी चाहिए थी क्योंकि वे देश के सबसे बड़े सूबे को व्यवस्थित करने के मामले में पूरी तरह टेस्टेड थे। भाजपा के नये नेतृत्व की नीति स्पष्ट है कि जिनके पंख अभी उगे न हों उन्हें राज्यों की बागडोर सौंपी जाये तांकि वे सिर उठाकर काम न कर सकें। इस सिलसिले की शुरूआत यूपी से की गई थी। जिसके लिए पार्टी के मूल्यवान एसेस्ट्स की पहचान रखने वाले कल्याण सिंह के कैरियर को बर्बाद करने का जोखिम मोल लिया गया।

कल्याण सिंह जब पहली बार मुख्यमंत्री थे किसानों के मुददे पर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आंदोलन छेड़ रखा था कल्याण सिंह को आरएसएस के स्कूल में दीक्षा मिली थी जहां ब्रेनवॉश मंडली पवित्र सामाजिक व्यवस्था को छूने वाले को सबसे बड़े पापी के रूप में देखना सिखाया जाता है। चूंकि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके इस सामाजिक व्यवस्था की चूलें हिला देने का अधम कृत्य किया था इसलिए कल्याण सिंह के मन में उनका नाम आते ही दुष्ट दलन की तरंगे फंुफकारने लगती थी। फर्रुखाबाद में कल्याण सिंह के हुकुम पर विश्वनाथ प्रताप सिंह को गिरफ्तार कर उनके पूर्व प्रधानमंत्री के प्रोटोकोल को परे करके उन्हें जेल में सामान्य कैदियों वाली कोठरी में धकेल दिया गया जहां अस्त-व्यस्त वायरिंग के कारण विश्वनाथ प्रताप सिंह को करंट लग गया था।

लेकिन वही कल्याण सिंह थे जिन्होंने लखनऊ में आयोजित वीपी सिंह के पुण्यतिथि के कार्यक्रम में जयपुर के राजभवन से चलकर आने की स्वीकृति दी और जब वे आये तो दिल खोलकर बोले। कल्याण सिंह ने कहा कि पिछड़ा वर्ग वीपी सिंह का कर्जा कभी नही चुका पायेगा। उन्होंने हमें अपना हक पहचानना सिखाया और हक मांगने से नही छीनने से मिलता है। उत्तर प्रदेश में महत्वपूर्ण पदों से दलितों पिछड़ों को दूर रखने की जो कवायद चल रही थी उसे निशाना बनाते हुए उन्होंने कहा था कि वीपी सिंह से प्रेरणा लेकर हमें थानेदार से लेकर एसपी तक और लेखपाल से लेकर कलेक्टर तक के पदों को अपनी आबादी के अनुपात में छीनकर लेने के लिए तत्पर होना पड़ेगा। कल्याण सिंह के वारिस अभी इस भाषा को दोहराने की दम नही रखते लेकिन उनके अनुयायी अपने बाबूजी की इस सीख को अमल में लाने की ठान लें तो कल्याण सिंह के अरमान जमीन पकड़ सकते हैं और शायद तभी उनकी आत्मा का सही तर्पण हो सकता है।







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