रिटायर अधिकारियों को मोहरा बनाकर हो रहा देश लूटने का षणयंत्र


बात यूपीए सरकार के समय की है जिसमें डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। इस सरकार ने रिलायंस इंडस्ट्री यानी अंबानी को फायदा पहुंचाने के लिए जो टेलीकॉम लाइसेंस नीति बनाई थी। इसके चलते डब्ल्यूएलएल-एसटीडी घोटाला को अंजाम देने का मौका रिलायंस को मिला था। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। जांच हुई तो पता चला कि एसटीडी और आईएसडी कॉल्स को लोकल दिखाकर रिलायंस ने सरकार को करोड़ो का चूना लगा दिया था। यह मामला बाद में रिलायंस से कुछ जुर्माना लेकर रफादफा कर दिया जबकि सरकार के राजस्व का नुकसान कई गुना ज्यादा था।
इस मामले में बिजनेस का नया हथकंडा उजागर हुआ था। रिलायंस टेलीकॉम के रिटायर अधिकारियों को ऊंचे वेतन पर हायर कर लेती थी। इसके बाद उनका इस्तेमाल टेलीकॉम नीति में सेंधमारी के गुर बताने और मामले को फंसने न देने के लिए सेवाकाल में उनके अधीनस्थ रहे वे अधिकारी जो अब उच्च पदासीन हो गये थे उनको प्रभावित करने में किया जाता था। फिर वह केवल पुराने लिहाज को भुनाने के रूप में हो या लेन-देन से उनको सेट करने के रूप में। सरकार को उसी समय खबरदार हो जाना चाहिए था कि उसके अधिकारियों द्वारा रिटायर होने के बाद किसी संदिग्ध कंपनी का चाकर बनने की गुंजाइश को कैसे कड़ा किया जाये। लेकिन यह कैसे होता। अंबानी तो हर पार्टी की सरकार का बाप जो होता है।


मिस्टर क्लीन राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री थे तब उनके वित्त मंत्री के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अर्थ व्यवस्था को पारदर्शी और स्वच्छ बनाने के ठोस कदम उठाये थे। यह वो दौर था जब आयकर फार्म का सरलीकरण कर ईमानदार करदाताओं को सहूलियत प्रदान की गई थी लेकिन काला धन इकटठा करने वालों की शामत लाने का इंतजाम किया गया था। उन्होंने दुनियां की उस समय की आर्थिक अभिसूचना जुटाने वाली सर्वश्रेष्ठ कंपनी फेयरफैक्स को अनुबंधित किया था तांकि देश में किन लोगों के पास ज्यादा काला धन है और यह धन कहां निवेशित किया गया है। कहा जाता है कि इसमें फेयरफैक्स ने अपनी जानकारी में सबसे ऊपर रिलायंस का नाम दर्ज किया था। पर राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले दिन से ही धीरू भाई अंबानी से अनुग्रहीत थे। मुरली देवड़ा के माध्यम से धीरू भाई अंबानी ने उनसे संपर्क जोड़कर कांग्रेस के उनके समय के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन का जो अत्यंत भव्य स्वरूप में हुआ था उसका पूरा खर्चा उठाया था। इसलिए रिलायंस का तो कुछ नही बिगड़ा लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह का विभाग बदल गया और बाद में नौबत उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाले जाने की आ गई।


हालांकि यह उठा-पटक उनके लिए वरदान भी बनी। विश्वनाथ प्रताप सिंह का प्रधानमंत्री बनने का रोड मैप इसी शुरूआत से तैयार हुआ था। लेकिन वीपी सिंह ऊंची सीढ़ियां चढ़े तो समानान्तर रिलायंस भी अपनी बुलंदी को बढ़ाता गया। उसका रुतबा उस मयार पर पहुंच गया जहां देश की सरकार बनाने और बिगाड़ने की कुंजी उसके हाथ में आ गई। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जनता दल की टूट स्वतः स्फूर्त नही थी। रिलायंस द्वारा खरीदे गये सांसदों के समर्थन से तथाकथित समाजवादी चंद्रशेखर को जीवन में एक बार प्रधानमंत्री बनने की अपनी हविश पूरी करने का मौका मिल पाया था जबकि ऐसी सरकार को कबूल करना कंलक का विषय होना चाहिए था। बहरहाल इस पायदान पर पहुंचने के बाद रिलायंस को फिर कोई पीछे मुड़कर देखने के लिए विवश न कर सका। नरसिंहा राव ने पांच वर्षों तक अल्पमत सरकार चलाकर दिखाई जिसमें कोई चमत्कार नही था। झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड की याद लोगों को अभी भी होगी। जाहिर है कि यह अपने आप में इस बात को स्पष्ट करने वाला था कि भारत की राजनीति के फैसले अब जनादेश से नही थैलीशाहों की मेहरबानी पर निर्भर करेगें। बाद में अटल जी आये तो भी इसका चक्र नही टूटा। सभी जानते हैं कि उनकी सरकार में भी धीरू भाई अंबानी को सरकार रूपी कंपनी के मालिक के बतौर ट्रीटमेंट दिया जाता था। उस समय के अखबारों में यह दर्ज है कि जिस दिन अंबानी मुंबई से दिल्ली आते थे, अटल जी के दत्तक दमाद रंजन भटटाचार्य और पीएमओ का एक सीनियर अधिकारी उनकी अगवानी के लिए हवाई अडडे पर हाजिर मिलता था। संयुक्त मोर्चे की अर्थहीन सरकारों की चर्चा के लिए मैने जानबूझकर स्याही खर्च करने की जरूरत नही समझी। उस समय तक रिलायंस टेलीकॉम सैक्टर के एक बड़े खिलाड़ी के रूप में स्थापित हो चुका था। इसके विभाग संचार की हालत यह थी कि मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा रोते थे कि नीति निर्धारक वे हैं और उनके विभाग के निर्णयों को तय करने का काम अमर सिंह अपनी मुटठी में कैद किये हुए हैं। उनकी पार्टी के नेता मुलायम सिंह को बेनी बाबू के दुखड़े की कोई परवाह नही थी क्योंकि अमर सिंह उनके लिए दुधारू सहयोगी थे। ऐसे में कहा जाये कि संचार विभाग तो अंबानी के पास गिरवी हो गया था तो अन्यथा न होगा।
इस तरह रिलायंस के पैर देश की सत्ता में जमे तो मजबूत ही होते चले गये। मनमोहन सिंह की सरकार में उनका हस्तक्षेप कितना मजबूत था इसकी चर्चा इस आलेख की शुरूआत में हम कर ही चुके हैं। मोदी तो काला धन को विदेशों से खींचकर लाने की प्रतिज्ञा पर ही हीरो बने थे और लोगों के लिए उन पर विश्वास करने का बड़ा कारण यह था कि उनका कोई परिवार नही है। विवाह हुआ था लेकिन जिसे घर बसाना कहते हैं वह उन्होंने कभी नही किया। उनके भाई हैं लेकिन उन्हें कभी लाभ पहुंचाया हो इसका उदाहरण उनके मुख्यमंत्रित्व काल से ही किसी को नही दिखा। इसलिए इतने वीतराग नेता से स्वाभाविक रूप से अपेक्षा थी कि वे काला धन रखने वाले अमीरों और भ्रष्ट कारगुजारी करने वालों पर कोई रहम नही करेगें। लेकिन उनके मामले में मानवीय मनोविज्ञान के सहज नियम फेल दिखाई दे रहे हैं। अब जबकि मोदी के चहेते उद्योगपतियों का विस्तार विदेशों तक में भरपूर हो चुका है और उनकी व्यवसाय महत्वाकांक्षाओं का कैनवास अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पसर चुका है तो सरकार में उनके दखल को लेकर सतर्कता बरती जानी चाहिए थी लेकिन इस समय तो राष्ट्रीय हितों की कीमत पर इस मामले में उन्हें प्रोत्साहित किया जा रहा है।


इस समय ओआरएफ चर्चा का विषय बना हुआ है। ओआरएफ का फुलफॉर्म है आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन। अंबानी ने आब्जर्वर के नाम से अखबार निकाले थे। इसी नाम से उन्होंने यह फाउंडेशन बनाया जो दरअसल एक थिंक टैंक है। इस फांउडेशन से पहले एस. जयशंकर जुड़े थे अब उनका बेटा ध्रुव जयशंकर अमेरिका में इस फाउंडेशन का हैड है। इस फाउंडेशन के लिए 65 प्रतिशत फंड अंबानी जुटाते हैं। 35 प्रतिशत फंडिंग इसमें विदेशी होती है। ध्रुव जयशंकर ही नही रॉ के दो रिटायर चीफ, बीएसएफ के रिटायर डीजी और सरकार को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाले अधिकारी, पत्रकार और तमाम अन्य लोग इस फाउंडेशन में नौकरी कर रहे हैं। जैसा कांग्रेस के समय टेलीकॉम में बड़ा मुनाफा हथियाने के लिए रिलायंस ने उसके सेवानिवृत्त अधिकारियों को अपना नौकर बनाकर मोहरा बनाया वैसा अब अंबानी और बड़े स्तर पर कर रहे हैं क्योंकि अब उनके पास पहले से भी ज्यादा ताकतवर लोगों की फौज है। अमेरिका में अंबानी के स्वार्थ को पूरा करने के लिए ध्रुव का इस्तेमाल क्यों नही हो सकता। आखिर पापा को उनकी बात तो माननी ही पड़ेगी। यहां तक कि चूंकि ध्रुव अमेरिका में सेट है जहां की एजेंसियों को कहा जाता है कि निरंकुश पॉवर हैं तो उन्हें डराकर अमेरिका अपने हित के लिए भारत की नीतियों को ट्विस्ट करा दे यह आशंका दिमाग में क्यों नही रखी जानी चाहिए। आरोप लग रहा है कि ध्रुव जयशंकर की इसी हैसियत के कारण भारत की विदेश नीति के लिए गच्चा खाने की नौबत आई है।
अब बात अजीत डोभाल की जो मोदी सरकार के पहले दिन से अभी तक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। उनके दो बेटे हैं शौर्य और विवेक। शौर्य को वंशवाद के खिलाफ जुबानी जंग छेड़े मोदी जी को पौड़ी गढ़वाल से लोकसभा का उम्मीदवार बनाते समय बिल्कुल नही लगा कि यह करके वे लोगों की निगाह में अपना धर्म भ्रष्ट करने के अपराधी बन रहे हैं। आखिर शौर्य ने फील्ड पर कोई काम तो किया नही था जिससे पौड़ी की जनता शौर्य-शौर्य करके उन्हें चुनाव मैदान में लाने की मांग कर रही हो। उनको टिकट के लिए चयनित करने का एक ही आधार था कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे हैं। शौर्य और विवेक के बिजनेस कनेक्शन भी चर्चा का विषय है। शौर्य का कनेक्शन इण्डिया फाउंडेशन नाम के एक थिंक टैंक से है जिसमें निर्मला सीतारमण भी निदेशक रहीं हैं। निजी कंपनी द्वारा पोषित इस फाउंडेशन की भी सरकार को नीतियों के मामले में गाइड करने में बड़ी भूमिका बताई जाती है। अब उसकी गाइडेंस देश के हितों के मददेनजर होती है या अपने आका कॉरपोरेट के हितों के लिए यह शोध का विषय है। विवेक ने कैमल द्वीपीय देश में अपनी एक कंपनी रजिस्टर करा रखी है। दुनियां में यह चर्चा आम है कि कैमल कर चोरों का स्वर्ग देश है जहां बड़े पैमाने पर मनी लांड्रिंग का काम होता है। खुद अजीत डोभाल भी विवेकानंद फाउंडेशन के नाम से राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित एक थिंक टैंक चला रहे हैं।


क्या ऐसी स्थितियों में देश की गोपनीय जानकारियां सुरक्षित रहने को लेकर आश्वस्त हुआ जा सकता है। क्या ऐसा सोचा जा सकता है कि ऐसी स्थितियों में सरकार देश के लोगों के उत्थान की नीतियां बना और लागू कर सकती हैं या तंत्र ने अपने को निहित स्वार्थों के हितों की पूर्ति के लिए टिका दिया है। हो सकता है कि हमारे अंदेशे गलत हों लेकिन सरकार को ऐसे विधि-विधान बनाने की सोचना ही पड़ेगा जिसमें उच्च पदो ंके रिटायर लोगों के लिए मुनाफाखोरों का मोहरा बनने की गुंजाइश न रहे। इसी के दृष्टिगत नियम बनाया गया है कि विधायक, सांसद, मंत्री पद पर रहते हुए ठेकेदारी आदि कोई निजी कारोबार नही करेगें तो इस बंदिश का विस्तार और क्यों नही हो सकता। रिटायरमेंट के बाद उच्च पदाधिकारियों को अच्छी खासी पेंशन मिलती है फिर भी उनका पेट क्यों नही भरता। रिटायरमेंट के बाद अगर वे घर नही बैठना चाहते तो देश हित के लिए बिना कुछ लिए स्वयं सेवा क्यों नही करते। व्यक्तिगत कामों की चिंता के अलावा हर व्यक्ति में समाज के लिए अपने समय और कमाई का एक अंश अर्पित करने का जज्बा होना चाहिए। अगर ऐसे संकल्प नही होगें तो उच्चादर्श पर आरूढ़ समाज के निर्माण की कल्पना कैसे हो सकेगी।

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