
सेंसर बोर्ड के चंगुल में जकड़ जाने से छटपटा रही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर बनी बायोपिक अजेय: द अन्टोल्ड स्टोरी ऑफ ए योगी आखिरकार बांबे हाईकोर्ट के कारगर हस्तक्षेप के बाद मुक्त होकर अपने पंख तौलने के लिए तैयार हो गई है। 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बनी बायोपिक पीएम नरेंद्र मोदी को तो सेंसर बोर्ड ने नही रोका था। सीएम योगी पर बनी बायोपिक रोकने के लिए उसने जिन दलीलों को हथियार बनाया था शायद मोदी की बायोपिक के मामले में वे दलीलें उसके जेहन से उतर गईं थीं। बड़ा बेभूल है केंद्र का मासूम फिल्म सेंसर बोर्ड। इसके बाद यह चर्चाएं एक बार फिर गरम होने लगी हैं कि योगी की किसी तरह की बढ़त भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को पच नही पाती।

मोदी और योगी के बीच इमेज बिल्डिंग की प्रतियोगिता के रूप में इस किस्से को देखा जा रहा है। अरविंद केजरीवाल का मामला हो तो सरकार के पेट में ऐठन हो जाती है। लेकिन इस समय जबकि गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के प्रधानमंत्री मोदी के 23 वर्ष पूरे हो जाने पर उनके नाम की डुगडुगी बचाने के लिए गुजरात सरकार द्वारा 8 करोड़ 81 लाख रुपये विज्ञापन में फूंके जाने का मुददा सामने आया तो भाजपा के वाचाल नेता चुप्पी साधे हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सामने भी यह स्पष्ट हो चुका है कि हिन्दुत्व-विन्दुत्व जैसा कोई एजेंडा मोदी की निष्ठा में शामिल नही है। एजेंडा के नाम पर अपने को इतिहास में महामानव के रूप में दर्ज कराना ही उनका सबसे बड़ा लक्ष्य या उददेश्य है। इस प्रयोजन में हिन्दुत्व की सेवा से कोई काम बनता हो तो वे आम के आम और गुठलियों के दाम जैसा कार्य व्यापार कर लेते हैं। रामजन्म भूमि मंदिर के निर्माण में भी यह सामने आया। प्रधानमंत्री बनने के बाद पहले वे एक भी दिन अयोध्या नही पहुंचे और प्राण प्रतिष्ठा के मौके को उन्होंने ऐसा लपका कि मंदिर निर्माण के संघर्ष के तमाम योद्धाओं को नेपथ्य में कर दिया। प्रधानमंत्री के पहले कार्यकाल में उनके सामने शांति का नोबल पुरस्कार लक्ष्य था। इसलिए गुजरात के कटटर मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में पराकाष्ठा की हद तक उदार हो गये थे। अपने शपथ ग्रहण में उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को पूरे आदर के साथ आमंत्रित कर डाला था। जिससे संघ भौचक रह गया था। संघ के लिए तो उस समय भी धर्म संकट हो गया था जब वे गौ रक्षकों के अति उत्साह में कुछ अनहोनी घटनाएं हो जाने पर उनके लिए चुभने वाले अपविशेषणों का दुस्साहसिक इस्तेमाल कर बैठे थे। नोबल पुरस्कार की प्रतीक्षा में उन्होंने पहले कार्यकाल में न तो अयोध्या में मंदिर निर्माण के संकल्प को पूरा करने के लिए कोई जोर दिखाया था और न ही कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संवैधानिक अनुच्छेद को हटाने में।

अपनी ब्रांडिंग के लिए वे सरकारी खजाने के इस्तेमाल के मामले में बहुत दरियादिल हैं। इसी क्रम में 2019 पर उन पर बायोपिक बनाने का खाका तैयार हुआ। निर्देशक के तौर पर उमंग कुमार इसमें आगे आये और विवेक आबेराय ने साहब की भूमिका अदा की। इस फिल्म की लांचिंग जिस समय होनी थी बदकिस्मती से उस दौरान 2019 के लोकसभा चुनाव का नगाड़ा बज चुका था। नतीजतन शिकायत हुई तो फिल्म का प्रदर्शन चुनाव आयोग ने रुकवा दिया। चुनाव खत्म हो जाने के बाद धूमधड़ाके से यह फिल्म रिलीज हुई जिसने उनकी छवि में थोक के भाव सुर्खाब के तमाम पर जोड़ डाले। जाहिर है कि दूसरे हिन्दू हृदय सम्राट के खिताब से जनमानस में विभूषित और जनमत में मोदी के उत्तराधिकारी घोषित किये जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के मन में भी हसरतें फूटीं। ब्रांडिंग का चस्का उनके भी सिर चढ़कर बोलता था। उत्तर प्रदेश के पिछले सूचना निदेशक शिशिर सिंह जिनकी योगी के लिए स्वामी भक्ति बेमिसाल थी उनके अरमानों को पूरा करने के मामले में कुछ ज्यादा ही जोश दिखा बैठे। राजनीति की मंथराओं ने मोदी और शाह से कानाफूसी कर दी कि योगी आपसे प्रतिस्पर्धा कर अपने को सबसे आगे दिखाने के लिए ब्रांडिंग में दोनों हाथों से प्रदेश का बजट लुटा रहे हैं। भाजपा के सर्वोच्च नेताओं का जायका इससे खराब हो गया। तत्काल योगी के पेंच कसने की मुहिम शुरू हो गई। इस उपक्रम में योगी को चहेते शिशिर सिंह की बलि लेने के लिए मजबूर किया गया। नये सूचना निदेशक विशाल सिंह इसी कारण संभल कर काम कर रहे हैं। वे विभाग की शक्ति का इस्तेमाल योगी के व्यक्तिगत संवर्द्धन की पिछली नीति से हटा कर सरकार की योजनाओं और उपलब्धियों के प्रचार की ओर मोड़ चुके हैं।

इसी कड़ी में योगी के लिए भी बायोपिक बनवाने और प्रदर्शित करने की रूपरेखा उनके हमदर्दों ने गढ़ी थी। निर्माता रितु मैगी ने निर्देशक के रूप में इसमें रविंद्र गौतम को अनुबंधित किया। कास्टिंग में योगी आदित्यनाथ के रोल के लिए अनंत जोशी को चुना। शांति गुप्ता की किताब द मॉन्क हू बिकेम चीफ मिनिस्टर से प्रेरित पटकथा लिखवायी गई। इस फिल्म में योगी के व्यक्तित्व को असाधारण और अलौकिक रूप में उभारा गया है। पर यह फिल्म पर्दे पर उतरती इसके पहले ही केंद्र के सेंसर बोर्ड ने इसमें बड़ी रुकावट डाल दी। फिल्म के प्रमाणन के लिए सेंसर बोर्ड में 5 जून 2025 को अर्जी डाली गई थी जिस पर नियमानुसार 15 दिन में स्क्रीनिंग करके सेंसर बोर्ड को निर्णय लेना था। लेकिन एक महीने से ज्यादा समय तक बोर्ड ने फिल्म को अपने पास अटकाये रखा। 7 जुलाई को स्क्रीनिंग की तिथि एक बार तय भी कर दी थी लेकिन अज्ञात कारणों से इसे रदद कर दिया गया। जब सेंसर बोर्ड से फिल्म को प्रमाणन न देने का कारण पूंछा गया तो कहा गया कि चूंकि यह फिल्म योगी आदित्यनाथ पर आधारित है इसलिए उनकी अनुमति साथ में वांछनीय है। अगर यह दलील सही होती तो प्रधानमंत्री पर तैयार की गई फिल्म के लिए भी रिलीज को हरी झंडी दिखाने से पहले सेंसर बोर्ड द्वारा उसके निर्माता से पीएम की अनुमति की दरियाफ्त की गई होती। इस कच्ची दलील को फिल्म के निर्माता भी समझते थे। इसलिए उन्होंने बांबे हाईकोर्ट की ओर रुख किया। फिल्म निर्माता मुख्यमंत्री के पास इसलिए नही गये कि योगी को अपने हाथ से अपनी फिल्म की मंजूरी देना मंजूर नही होता गो कि यह आचरण शील के प्रतिकूल समझा जाता।

इस मामले की सुनवाई करने वाली अदालत ने दो दिन में फिल्म देखकर स्क्रीनिंग कर ली और फिल्म को पूरी तरह आपत्तिहीन ठहराते हुए रिलीज किये जाने का आदेश सुना दिया। उम्मीद है कि जल्द ही यह फिल्म विभिन्न माध्यमों पर प्रदर्शित हो जायेगी। लोग अगर सेंसर बोर्ड में योगी की बायोपिक रुकने को सियासत से जोड़ रहे हैं तो कुछ गलत नही कर रहे। इस प्रकरण से एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की योगी की महत्वाकांक्षाओं पर बारीक नजर है और उन्हें जामें में रखने के लिए केंद्रीय नेतृत्व बेलिहाज सन्नद्ध है।
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