संभल फाइल 1978- किसे बेनकाब कर रहे हैं योगी


उत्तर प्रदेश के समाचारों में संभल सुर्खियों में है। संभल की शाही जामा मस्जिद के नीचे बाबर द्वारा गिराया गया पृथ्वीराज चौहान निर्मित हरिहर मंदिर होने के दावे को लेकर स्थानीय सिविल कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। सिविल कोर्ट ने इसमें सर्वेक्षण के आदेश जारी कर दिये। 19 नवम्बर को सर्वे के लिए पहुंची टीम के साथ शुरू हुआ तनाव जुमे की नमाज के दिन तक गंभीर हो गया। 24 नवम्बर को दंगा भड़क गया जिसमें पांच मुसलमान मारे गये और दर्जनों पुलिसकर्मी घायल हो गये। रिटायर्ड जज डीके अरोड़ा की अध्यक्षता में मुख्यमंत्री ने संभल की पूरी स्थिति के अध्ययन के लिए तीन सदस्यीय न्यायिक समिति गठित की। जिसमें आईएएस अमित मोहन प्रसाद और रिटायर्ड डीजीपी एके जैन को सदस्य के रूप में शामिल किया गया। अमित मोहन प्रसाद वही हैं जो कोरोना के समय स्वास्थ्य विभाग की कमान संभाले हुए थे। विभाग के मंत्री सहित सत्तारूढ़ खेमे के कई नेताओं ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उन पर वरदहस्त रख छोड़ा था। आखिर में केंद्र ने सीधे उनके खिलाफ जांच के आदेश जारी कर दिये तब उनका विभाग बदला गया। रिटायरमेंट के बाद भी वे योगी के चहेते बने हुए हैं। योगी की अपनी अलग कार्य शैली है। वे एक कॉकस की सलाह को मानकर सरकार चलाते हैं। उनके खास अधिकारी चाहे वे अवनीश अवस्थी हों या अमित मोहन प्रसाद, का प्रशासन में दखल सेवा निवृत्त होने के बाद भी कायम बना हुआ है।


वैसे तो समिति की रिपोर्ट घोषित तौर पर गोपनीय है। एके जैन से औपचारिक तौर पर पूंछा गया तो उन्होंने यही कहा कि रिपोर्ट को लेकर वे कोई तथ्य नही बता सकते। रिपोर्ट गोपनीय है। लेकिन सरकार में दाखिल की जा चुकी समिति की रिपोर्ट के कई अंशों की चर्चा करके भाजपा नेताओं ने खुद इस छल का पर्दाफाश कर दिया। मीडिया में भी यह रिपोर्ट लीक की जा चुकी है तांकि इसके माध्यम से एक खास एगिंल उभारा जा सके। अधिकारियों ने इस रिपोर्ट में यह तथ्य उभारने के लिए बहुत पसीना बहाया है कि संभल के दंगों में हिन्दुओं की ही इकतरफा बलि हुई है। यह ताजा दंगें में केवल मुसलमानों के ही मारे जाने से जुड़े सवालों का जबाव माना जाना चाहिए।


450 पन्नों की यह रिपोर्ट कहती है कि अभी तक के सात दशकों में संभल में 15 दंगे हुए जिनमें 209 हिंदू मारे गये जबकि मुसलमानों में केवल 4 की मौत हुई। खासतौर से 1978 के भीषण दंगे का जिक्र किया जा रहा है जिसमें मुख्यमंत्री के अनुसार 184 हिंदू मारे गये थे। दूसरे सूत्रों में कोई केवल 9 और कोई अधिकतम 24 मौतों की बात बता रहा है। मुख्यमंत्री ने जो संख्या बतायी उसका स्रोत क्या है यह स्पष्ट नही है। मजे की बात यह है कि 29 और 30 मार्च 1978 को हुए इन दंगों की 169 एफआईआर लिखी गईं थीं लेकिन इनका रिकॉर्ड थाने से गायब है। बहाना यह है कि संभल पहले मुरादाबाद जिले की तहसील थी इसलिए रिकॉर्ड मुरादाबाद में होगा। यह भी बताया गया कि मुरादाबाद जिले के अधिकारियों से इस बारे में सूचना मांगी गई है। लो कर लो योगी की जानकारी पर कोई सवाल।


जिज्ञासा यह उभरती है कि 1978 में प्रदेश में क्या कोई हिंदू विरोधी सरकार थी जो हिंदुओं का नरसंहार में प्रभावी संरक्षण करने से बच निकली थी। 1978 में उत्तर प्रदेश में कई दलों का विलय कर बनी जनता पार्टी की सरकार से रामनरेश यादव मुख्यमंत्री थे जो कि लोकदल घटक के थे। जबकि जनसंघ घटक से कल्याण सिंह, केसरीनाथ त्रिपाठी और हरिश्चंद्र श्रीवास्तव आदि प्रभावशाली नेता कैबिनेट में थे। संभव है कि लोकदल के कोर वोट बैंक में मुसलमानों को भी गिना जाता था। इसलिए मुख्यमंत्री को मुसलमानों के मामले में तुष्टिकरण करना पड़ता हो। लेकिन हिंदूवादी मंत्रियों ने जिस विचारधारा की रोटी खा रहे हैं उस नमक का हक अदा करने के लिए कुछ किया था या नही। अगर मुख्यमंत्री रामनरेश यादव उनकी चलने नही दे रहे थे तो क्या उन्होंने कोई बगावत की थी। जहां तक जानकारी है कि वे तो बहुत बाद तक रामनरेश यादव हट गये और बनारसी दास मुख्यमंत्री बन गये तब तक सत्ता सुख भोगते रहे। योगी जी ने 1978 के दंगों पर संभल की चर्चा को केंद्रित करते समय क्या यह ध्यान नही कर पाया कि यह तो बूमरेंग हो रहा है। उनके अपने लोग ही धिक्कार के पात्र बन रहे हैं।


योगी मूल रूप से भाजपाई नही हैं और न ही उनका संघ से कोई संबंध रहा है। बहिरागत होने से बहुत स्वाभाविक है कि उनको भाजपा और संघ के प्रति मूल नेताओं जैसा लगाव न हो। इसके अलावा भी और बात है। वे राजनीतिक सफलता के लिए मोदी के उदाहरण को अपने सामने रखते हैं। हालांकि मोदी हमेशा से भाजपाई रहे हैं। उनकी तो शुरूआत ही संघ के प्रचारक के रूप में हुई। लेकिन गुजरात में जब वे मुख्यमंत्री बने और उस दौरान जबर्दस्त दंगे हुए तब भाजपा का चेहरा थे अटल बिहारी वाजपेयी। तथ्य यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी यानी भाजपा से उन्हें समर्थन की ताकत मिलना तो दूर अटल जी राजधर्म का विषय छेड़कर उनकी बलि लेने को तत्पर थे। ऐसा नही हुआ तो इसलिए कि देश भर के उग्र हिंदू कार्यकर्ताओं ने गुजरात दंगों के कारण अपने दिलों में मोदी को पार्टी से ऊपर स्थापित कर लिया था। मोदी ने बहुत ही चतुराई से लोगों के दिमाग में यह बात घुसा दी थी कि भाजपा और संघ के कर्ता-धर्ता कमजोर हैं। निर्णायक बिंदु पर इनका रुख समझौतावादी हो जाता है और कटटरता की झेंप मिटाने के लिए ऐसे मौकों पर उदार छवि में जाकर दुबक जाना इनकी नियति है। इसलिए गुजरात में अगर हिंदुओं के बल का परचम लहराया है तो यह उनका व्यक्तिगत काम है न कि भाजपा और संघ की देन। आज जब वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर हैं तो अपनी इसी सोच के कारण पार्टी और संघ को बौनेपन का एहसास कराते हुए काम कर रहे हैं। यह सिर्फ मेरा नही हरेक निष्पक्ष विश्लेषक का आंकलन है।


योगी भी इस मामले में मोदी के कायल हैं। उत्तर प्रदेश में भी लोग मानने लगे हैं कि राज्य में हिंदुओं को जो दबदबा हुआ है, किसी की उनके प्रति बुरी निगाह डालने की हिम्मत नही रही है, कोई गलती से गुस्ताखी कर भी बैठा है तो उसे ऐसा सबक सिखाया गया है कि सात पुश्तों तक हिंदुओं से भिड़ना भूल जाये उसका श्रेय भाजपा और संघ को नही हैं। यह योगी के व्यक्तिगत प्रताप का नतीजा है। संभल में 1978 के दंगों की चर्चा पर इसीलिए फोकस किया जा रहा है कि अभी तक जो भाजपा सूरमा रहे हैं जैसे कल्याण सिंह सरीखे आयरन मैन उनमें से कोई भी हिंदू विरोधियों की ऐसी बुरी हालत नही कर पाया जो इस समय है। मोदी पार्टी से ऊपर अपने कद को स्थापित करने के दांव से ही मुख्यमंत्री से सीधे प्रधानमंत्री के सिंहासन तक का सफर तय कर पाये। कल्याण सिंह ने भी यह रास्ता अख्तियार किया था लेकिन वे कामयाब नही हो पाये। उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़कर केंद्रीय गृहमंत्री के रूप में दिल्ली आने का ऑफर पार्टी ने दिया था। उन्होंने नहीं माना और पार्टी छोड़ दी जिसमें वे गच्चा खा गये। शायद मोदी के लिए भी ऐसा ऑफर देने की तैयारी रही हो पर इसकी नौबत आती इसके पहले ही उन्होंने मंजिल हथिया ली।


योगी भी अपने बारे में मान चुके हैं कि अतिवादी हिंदू मानस के लिए वे लाइफ दैन लार्जर बन चुके हैं। इसलिए हेकड़ी जताने में वे मोदी से पीछे नही दिखते। संभल के घटना चक्र को लेकर जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने उनको लक्ष्य करके यह नसीहत देनी चाही कि हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोजने का अभियान चलाकर कोई हिंदुओं का नेता नही बन जायेगा। तो इसी तरह सकुचाने की बजाय योगी ने संभल का दौरा किया और अपनी धार्मिक निशानियों को कब्जे में लेने के मिशन में लगे हिंदू कार्यकर्ताओं में नया जोश भर डाला। स्पष्ट हो चुका है कि सन्यासी मुख्यमंत्री महत्वाकांक्षाओं में खांटी नेताओं से बिल्कुल भी कमतर नही है। उनके भी इरादे स्पष्ट हैं कि मुख्यमंत्री के बाद उनकी निगाह सीधे प्रधानमंत्री पद पर है। उनको कोई गफलत गच्चे में नही डाल सकती। बड़ी जिम्मेदारी लेकर दिल्ली आ जाने के प्रलोभन पर वे पार्टी के जिम्मेदारों को स्पष्ट कर चुके हैं कि लखनऊ के बाद उनकी तमन्ना उत्तर प्रदेश की सेवा करते-करते गोरखपुर चले जाने की है। उनकी निस्पृहता में कितनी ठंडी आग छुपी है भाजपा हाईकमान इससे अच्छी तरह विदित है। इसलिए उसे सरेंडर की मुद्रा अपनानी पड़ी। योगी केंद्र के साथ जो चेयर रेस खेल रहे हैं उसका अंत कहां जाकर होेगा अभी यह भविष्य के गर्भ में है।

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