
भारत में पहले चुनाव से अब तक 73 वर्ष की लंबी मुददत पार हो चुकी है। इसके बावजूद जातिगत चेतना को सर्वोपरि रखने की वजह से पूरे देश को नागरिक समाज में परिवर्तित करने का लक्ष्य अभी तक अपनी मंजिल को छू नही पाया। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में 2013 से इस मामले पर सुनवाई हो रही है लेकिन पता चला है कि अभी तक इस पर कोई सार्थक निर्णय सामने नही आ पाया था। शुरूआत में सरकार और चुनाव आयोग आदि को नोटिस जारी हुए थे लेकिन बाद में वक्त की गर्द इस याचिका पर चढ़ती रही और इसे एक तरह से भुला जैसा दिया गया।
अब याचिका कर्ता मोतीलाल यादव जब फिर हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ का दरवाजा खटखटाने को पहुंचे तो नये सिरे से नोटिस जारी हो गये हैं। इसके तहत हाईकोर्ट की पीठ ने केंद्र व राज्य सरकार, केंद्रीय निर्वाचन आयोग और चार प्रमुख दलों भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस से इस बात की कैफियत तलब की है कि उन्होंने जातिगत लामबंदी के कार्यक्रम रोकने के लिए अभी तक क्या प्रयास किये और उनका परिणाम क्या रहा। इस मामले की अगली सुनवाई अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में होगी। देखना यह है कि हाईकोर्ट के प्रेशर में संबंधित राजनैतिक दल जमीर का परिचय देकर इस उददेश्य को पूरा करने के लिए किसी ठोस कार्ययोजना को सामने लाते है या नहीं।

2013 में जब हाईकोर्ट ने आदेश जारी किया था तो उसके लिहाज में राजनीतिक दलों ने नाम बदलकर जातियों को अपने पक्ष में एकजुट करने की रणनीति आजमाई। चूंकि राजनीतिक दलों में बड़े सामाजिक परिवर्तन की कोई चाह नही है इसलिए सत्ता हासिल करने के शार्टकट नुस्खों का सहारा लेना उनकी मजबूरी है। 2013 के बाद उदाहरण के तौर पर राजनीतिक दल ब्राहमण समाज की रैली करते थे तो आड़ के लिए उनका नाम उन्होंने प्रबुद्ध समाज सम्मेलन देना शुरू कर दिया था। बसपा ने सतीश मिश्र के निर्देशन में हाईकोर्ट को चकमा देने के लिए प्रबुद्ध सम्मेलन के नाम का अविष्कार किया। बाद में सपा ने भी यह नाम अपना लिया और अन्य पार्टियों ने भी। बसपा बाबा साहब अम्बेडकर का नाम जरूर अलापती है लेकिन उनकी विचारधारा को अमली रूप देने में उसे कोई रुचि नही है। एक तरफ हाईकोर्ट का निर्देश था कि कोई पार्टी जातिगत सम्मेलन नही करेगी दूसरी तरफ बसपा जातिगत भाईचारा सम्मेलनों के आयोजनों को अपनी रणनीति में प्रमुखता प्रदान करने पर उतर आई थी जो बाबा साहब के विचारों के एकदम विपरीत कार्य था। बाबा साहब ने जातिगत पहचान का मोह छोड़कर सभी को भारतीय की एक रूप पहचान में गूंथने की भावना प्रदर्शित की थी। लेकिन बाबा साहब का मिशन बसपा ने व्यक्ति पूजा तक केंद्रित करके बर्बाद कर दिया।
सपा भी कोई कम पीछे नही थी। डा. लोहिया ने जाति तोड़ो का नारा दिया था लेकिन मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी के पिछड़ा सम्मेलन में कहा कि इसके दायरे की जातियों को गर्व के साथ अपनी पहचान राजनीतिक और सामाजिक पटल पर रखनी चाहिए। लोहिया जी की आत्मा का इससे अधिक दर्दनाक तर्पण कोई नही हो सकता था। लेकिन जनेश्वर मिश्र और मधुलिमय जैसे धुरंधर समाजवाद के प्रमाण पत्र बांटने वाले लोग जब इस देश में रहे तो गैर बराबरी की व्यवस्था की जड़े उखाड़ने की हुंकार प्रवंचना से अधिक कुछ नही हो सकती थी।
पिछले 11 वर्षों से भाजपा के शासन में तो इसकी गुंजाइश ही खत्म कर दी गयी। भाजपा रूढ़िवादी संतों और महात्माओं को अगुआ के रूप में स्थापित करके उन धार्मिक धारणाओं को नये सिरे से बल प्रदान करने में लगी है जिनमें सामाजिक उपनिवेशवाद को ईश्वरीय विधान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे में वर्चस्व का लुभावना जायका लोगों के फिर सिर चढ़ कर बोलने लगा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि भगवान ने जब अवतार लेने के लिए चुनने की बारी आई तो क्षत्रिय समाज को चुना। यह उन भ्रमित धारणाओं को पोषित करने की कार्रवाई है जिससे लोग यह मान बैठे हैं कि श्रेष्ठ प्रदर्शन व्यक्ति की क्षमता नही उसकी जाति की क्षमता है। जिस तरह से बुझती हुई लौ जोरों से भभकती है उसी तरह जाति व्यवस्था के बुझते दिये की हालत नजर आ रही है। इन बुझते दियों की भभक ही करणी सेना, परशुराम सेना आदि संगठनों में अभिव्यक्त है। बताने की जरूरत नही है कि कम से कम उत्तर प्रदेश में तो सरकार इन सेनाओं को समर्थन देने का आत्मघाती कार्य कर रही है।
इस मामले में शिकार और शिकारी को एक तराजू पर तौलने की गलती नही की जानी चाहिए। वंचित और भेदभाव की शिकार जातियों के साथ न्याय के लिए आवाज को इस संदर्भ में देखना होगा। इस आधार पर शिकारी का समर्थन करने के कुतर्क को मान्यता नही दी जा सकती। पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को तोड़ने के लिए भागीदारी के अभियान को अभी समर्थन की जरूरत है। स्पष्ट है कि हाईकोर्ट के माध्यम से जो विचार सामने आया है वह शिकारियों को संबोधित है न कि जिनका शिकार हो रहा है उनको। समाज को धीरे-धीरे नई धारणाओं में ढालने का साहस दिखाना होगा। अगर किसी शहर और प्रांत का लड़का किसी क्षेत्र में टॉप करता है तो उसके प्रदर्शन को जाति की श्रेष्ठता से जोड़ने की बजाय ऐसा माहौल तैयार किया जाना चाहिए कि लोग उसे अपने शहर, अपने प्रांत और अपने देश के प्राइड के रूप में प्रस्तुत करें। किसी भी जाति में कोई भी असाधारण प्रतिभा पैदा हो सकती है इसे मानना होगा। परिवर्तन की राजनीति का अपना मजा है और खासतौर से युवाओं के लिए। क्या देश-प्रदेश के युवा इसकों स्वीकार करेगें।







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