मोहन भागवत के सामने संघ की साख बचाने का संकट


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में तकनीकी, प्रोद्योगिकी, प्रगति, वैश्विक स्तर पर तमाम मुददों पर वैचारिक एकरूपता बनाने के प्रयास, राष्ट्रवाद को लेकर बदलती अवधारणा आदि के परिप्रेक्ष्य में वैचारिक आयोजनों की श्रंखला चलाई जा रही है तांकि संघ बदलती दुनियां के हिसाब से कदम ताल कर सके। इसी क्रम में गत दिनों भारतीय मजदूर संघ की मेजबानी और संघ प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में हुआ एक वैचारिक मंथन मुख्य अतिथि के रूप में इसमें बुलाये गये डा. मुरली मनोहर जोशी के बौद्धिक के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। डा. जोशी ने इसमें देश की आर्थिक परिस्थितियों पर 70 पन्नों का एक शोध पत्र पढ़ा। इसमें उन्होंने वर्तमान नीतियों के वे सारे निष्कर्ष प्रतिपादित किये जिनका हवाला वामपंथी विचारकों द्वारा समय-समय पर दिया जाता रहा है। लेकिन मोदी एंड कंपनी में यह हिम्मत नही है कि वे अपने खानदान के इस बुजुर्ग की स्थापना को अरबन नक्सल विचारों का टैग लगाकर खारिज कर सकें।


हालांकि संघ को भी मार्क्सवाद से एलर्जी रही है लेकिन इस निजाम में तो वंचितों के हक में बोलना कुफ्र जैसा हो गया है जिसकी सजा बस चले तो वह बोली बोलने वाले को संगसार करके देता। मोदी एंड कंपनी को यह पता नही है कि कार्ल मार्क्स की पिछली हजार पुश्तों के भी पहले जब वर्गीय समाज के निर्माण की शुरूआत हुई होगी तभी से हमारे महापुरुष जनवादी सोच की गरिमा के लिए अधीश्वरों से टकराने का हौसला दिखाने लगे थे। श्रेष्ठियों के दंभ से आहत जनवादी समाज के नेता भगवान शंकर ने उनके घमंड का भूत ऐसा उतारा कि नतमस्तक होकर वे उन्हें देवाधिदेव यानी महादेव के रूप में स्वीकार करने को विवश हो गये। पूर्णावतार माने जाने वाले भगवान कृष्ण की कहानी में क्या है। मथुरा के सारे दूध व्यापार का जनक था ग्वाला समाज। लेकिन राजा कंस उसे चलाने वाली मुनाफा खोर व्यापारियों की वर्गसत्ता की खातिर ग्वालों को विवश करता था कि वे औने-पौने दामों पर पेटेंटधारी इन व्यापारियों को दूध और उससे बनी सामग्री बेचें और इसके बाद व्यापारी हर्र लगे न फिटकरी रंग चोखा….. की तर्ज पर बाजार में रखकर उस सामग्री की मनमानी कीमतें वसूलें। कृष्ण की वर्ग चेतना ने तभी उनके मन में विद्रोह के बीज बो दिये जब वे किशोरावस्था में थे। उन्होंने ग्वालों के उद्यमी समाज को गांव-गांव में संगठित करके कंस पर चढ़ाई कर दी और उसे मार गिराया।
इसके बाद उन्होंने ऐसे राज्यों की गंगोत्री यानी हस्तिनापुर साम्राज्य तक अपनी निर्णायक पहुंच बनाई तांकि देश भर में जनहितों पर केंद्रित नीतियां अपनाने के लिए सारे राजा और महाराजाओं को विवश किया जा सके। साम्राज्य और राज्य उस समय हर तरह के अभाव में कराह रही जनता के दुखदर्द को बिसरा कर अपनी अय्याशियों में लीन थे। कृष्ण ने सबक सिखाने के लिए महाभारत में पहले कौरवों का वध कराया लेकिन उनकी निगाह में पाण्डव भी कम नही थे। जिनके युवराज जुए में पत्नी को दांव पर लगाकर भी धर्मराज के नाम से महिमा मंडित हो रहे थे। कृष्ण के धिक्कार से उन युधिष्ठर सहित पांचों पांडवों को आत्मग्लानि मिटाने के लिए हिमालय चढ़कर अपना अस्तित्व मिटा देना पड़ा। यह संयोग नही है कि कृष्ण के उपायों से हस्तिनापुर साम्राज्य की बागडोर अंत में उसको मिली जिसने महाभारत कालीन नैतिकता में अपनी आंखे नही खोली थीं तांकि वह उच्च मानवीय मूल्यों के अनुरूप गरिमामय नैतिक व्यवस्था का प्रवर्तन नये साम्राज्य में कर सकें। मथुरा की लड़ाई के वास्तविक विजेता होकर भी कृष्ण ने न तो वहां स्वयं राजा बनने की आकांक्षा दिखाई और महाभारत की लड़ाई के भी असली विजेता कृष्ण ही थे जो युद्ध के बाद चाहते तो सम्राट बनने के उनके दावे का विरोध कोई कैसे कर सकता था। पर कृष्ण तो युगपुरुष बनने के लिए अवतरित हुए थे। उन्होंने समुद्र के किनारे द्वापर द्वीप में एक अलग दुनियां बनाई जिसमें न कोई राजा था न कोई प्रजा। बिना किसी सिंहासन और राजमुकुट के कृष्ण को भारतीय संस्कृति ने महानायक का जो दर्जा दिया वह बेमिसाल है। ऐसे देश को क्या कोई मार्क्स जनवाद का पाठ पढ़ायेगा जिसने उदय काल से ही इसे जीना सीखा हो।
तो कहने का मतलब यह है कि वंचितों के अधिकारों की वकालत मार्क्सवाद की बपौती नही है। डा. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि देश की 65 प्रतिशत संपदा केवल 10 प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई है। एक ओर दावा किया जा रहा है कि हमारी अर्थ व्यवस्था जापान को भी पीछे छोड़ चुकी है। दूसरी ओर जापान में जीडीपी में प्रति व्यक्ति की हिस्सेदारी के मुकाबले हमारे यहां प्रति व्यक्ति जीडीपी 10-11 गुना पीछे है। उन्होंने अमर सेन का भी हवाला अपने भाषण में दिया। साथ ही पश्चिमी आर्थिक मॉडल को डिग्रोथ कहकर असफल बताया। साफ है कि अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या बढ़ने से अर्थ व्यवस्था बेहतर नही हो जाती जिसको मोदी अपनी सफलता के तौर पर उकेर रहे हैं। उन्होंने कहा कि सादगी, साझेदारी और सामूहिकता जैसे मूल्यों को बढ़ावा देने की नीति ही उपयुक्त मानी जा सकती है। इस बिंदु पर उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानव वाद के दर्शन का हवाला दिया।


सूत्रों ने बताया कि डा. मुरली मनोहर जोशी को सुनने के बाद सर संघ चालक मोहन भागवत ने कहा कि डा. जोशी ने सब कुछ कह दिया। अब कहने को कुछ बचा ही क्या है। लेकिन मीडिया के एक वर्ग में यह चर्चा होने लगी कि संघ सरकार की नीतियों से अभी भी संतुष्ट नही है तो अगले दिन उन्होंने यह कहकर बात संभाली कि संघ न तो सरकार की नीतियों की समीक्षा करता है और न ही उसे निर्देश देता है। संघ में समय-समय पर सामाजिक और आर्थिक मुददों पर विचार मंथन चलता रहता है। साथ ही उन्होंने कहा कि संघ सरकार के साथ समन्वय में काम करता है लेकिन उसका फोकस राष्ट्र निर्माण और चरित्र निर्माण पर रहता है। संघ प्रमुख चाहते तो यह भी कह सकते थे कि डा. मुरली मनोहर जोशी ने कोई ऐसा वक्तव्य नही दिया जिसमें सरकार की आलोचना को देखा जा सके क्योंकि डा. जोशी के बौद्धिक के समय किसी बाहरी व्यक्ति को उपस्थित नही रहने दिया गया था।  पर शायद उन्होंने ऐसा इसलिए नही कहा कि डा. जोशी कहीं उनका प्रतिवाद न कर दें। पर मूल बात यह है कि संघ की गुप्त बैठक बाहर कैसे लीक हो गयी। मोहन भागवत को इस पर आश्चर्य जताना चाहिए था और लीक करने वाले व्यक्ति के लिए बेनामी चेतावनी के कुछ शब्द कहना चाहिए था। ऐसा न करके उन्होंने इस अटकल को बढ़ावा दिया है कि उन्हीं की सहमति से मीडिया के लिए डा. जोशी का वक्तव्य लीक कराया गया।


मोहन भागवत मोदी को अंत-अंत तक 75 वर्ष की उम्र में सन्यास के नियम की याद दिलाते रहे लेकिन अचानक उन्हें पलट जाना पड़ा। यह कहकर कि न तो उन्होंने 75 वर्ष की उम्र में अपने सन्यास की बात कही है और न ही किसी और को ऐसा करने के लिए कहा है। इससे जुड़े एपीसोड की कड़ियां जोड़ें तो बहुत कुछ साफ दिखने लगेगा। संघ में मोदी ने तमाम अपने भी आदमी बना लिये हैं जो वरीयता क्रम में दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान तक हैं। इन्होंने अंदर ही अंदर मुहिम छेड़ दी थी कि मोहन भागवत को इस नियम के अनुपालन के लिए पहले 11 सितम्बर को खुद सन्यास लेना पड़ेगा। हालांकि संघ कोई पंजीकृत संगठन तो है नही जिसके कारण उसके किसी पद की कोई औपचारिक मान्यता भी नही है। तो मोहन भागवत क्या छोड़ें। दूसरे सर संघ चालक का पद ही अपने आप में सन्यास है। उदाहरण के तौर पर नाना जी देशमुख ने जब राजनीति से सन्यास लेने की घोषणा करके ग्रामोदय प्रकल्प का काम शुरू किया था तो क्या उनसे किसी ने यह सवाल पूंछा था कि यह कैसा सन्यास है। लगोटी बांधकर जंगलों में निकल जाने की बजाय आपने तो चित्रकूट में नया अकाल तख्त बना डाला है जहां संघ और भाजपा के नेता समय-समय पर आपसे मार्गदर्शन लेने के लिए आते रहते हैं।


पर मोदी के कुतर्कमार्गी अनुयायी क्यों यह सोचते-विचारते। मीडिया भी मोदी का पिटठू है जिसके सहारे 11 सितम्बर को पद न छोड़ने पर ऐसा प्रचार करा दिया जाता कि मोहन भागवत जग हसांई के पात्र बन जाते। अगर वे पद छोड़ भी देते तो जो उनका उत्तराधिकारी होता उसे 17 सितम्बर को मोदी को कुछ याद दिलाने की जरूरत ही महसूस नही होती। इस तरह मोदी तो सुरक्षित हो ही जाते साथ ही वे भाजपा का अध्यक्ष जेपी नडडा से भी ज्यादा यसमैन नेता को बनवा लेते। इस तरह संघ के लिए अपनी साख बचाने के सारे रास्ते बंद हो जाते।


मोहन भागवत को वर्तमान में सबसे बड़ी चिंता यही है कि संघ की साख कैसे बचे। विरोधी भी संघ के साम्प्रदायिक रवैये की चाहे जितने आलोचना करें लेकिन उन्हें भी संघ के लोगों की सादगी, सज्जनता, त्याग और ईमानदारी में कोई संदेह नजर नही आता था। इसलिए संघ के लोगों से आंख से आंख मिलाकर बात करने में उनके नैतिक वजन के कारण विरोधियों को दब जाना पड़ता था। लेकिन आज स्थिति वह नही रह गयी। मोदी जी की विलासी जीवन शैली संघ से लेकर भाजपा तक के व्यवहार में बवंडर का कारण बन गयी है। वैभव के लिए खुली प्रतिस्पर्धा को भाजपा में मान्य कर दिया गया है। वैभव की होड़ में आगे निकलने के नाम पर कुछ भी करने की छूट है। उत्तर प्रदेश में जब भाजपा की सरकार बन ही पायी थी तो तीन महीने बाद वृंदावन में संघ के साथ उसके समन्वय की बैठक आयोजित हुई जिसमें संघ के पदाधिकारियों ने कहा कि हमारे नये विधायक तो इतने दिनों में ही जमीने हथियानें, अवैध खनन कराने, विकास कार्यों में कमीशन बंटाने आदि में बहुत नामवर हो गये। योगी आदित्यनाथ को जबाव देना मुश्किल पड़ गया था। लेकिन कुछ समय बाद केंद्र और राज्यों के स्तर पर तीखीं समन्वय बैठकें बंद हो गयी। संघ की जिस साख के बल पर अटल-आडवाणी युग में भाजपा पार्टी विद ए डिफरेंस की बात कहती थी आज उसका कोई अर्थ नही रह गया है। निशिकांत दुबे, प्रमोद पाठक, रेखा गुप्ता, विधूड़ी, विजय शाह और खुद मोदी अपने भाषणों में बोलचाल की सज्जनता की बेरहमी से टांगे तोड़ने के नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। सरकार की आर्थिक नीतियों के मामले में स्वदेशी जागरण मंच हो या भारतीय मजदूर संगठन हो या भारतीय किसान संघ सब ठगे जैसी हालत में हैं। मोदी सरकार ने जब किसानों के लिए तीन काले कानून बनाये थे तब और किसानों की तो बात छोड़िये किसान संघ से भी परामर्श नही किया था। आखिर दुनियां के सबसे बड़े किसान गौतम अडाणी से जो ज्ञान उन्होंने ले लिया था वह पर्याप्त था। ऐसे में जब तक मोदी दुनियां में रहें तब तक मनमाना चलने भी दिया जाये तो उनके बाद संघ व्यवहार की किस मौलिकता के कारण अपनी पहचान को अग्रसर बनाये रख सकेगा। क्या मोहन भागवत सहित संघ की तमाम पीढ़ियों ने केवल नरेंद्र मोदी कोे निरंकुश शासन भोग का अवसर देने के लिए अपना जीवन अर्पण किया था या देश और समाज के नव निर्माण की जो कल्पना उसने संजोई थी उसको मूर्त रूप देना उसका अभीष्ट है। मोहन भागवत इस यक्ष प्रश्न का उत्तर देने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं।

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