नेपाल की जन बगावत से सहम उठी भारत की राजनैतिक बिरादरी


क्या दास कैपिटल पढ़ाकर किसी व्यक्ति को लोभ जैसी मनोवृत्ति से विरक्त करना संभव है। क्या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सार एक ऐसा प्रतापी मंत्र है जो लोगों में नैतिकता के ऐसे चरम उत्साह का संचार कर दे जिससे वे मनुष्य के मनोविज्ञान की क्षुद्र ग्रन्थियों से परे हो जायें। यह सवाल नेपाल में चल रही उथल-पुथल के मददेनजर एक बार फिर मौजू हो गया है। नेपाल में केपी ओला की सरकार सर्वहारा की तानाशाही का प्रतिरूप थी तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए तो नेपो किडस का नारा इसके दौर में कैसे ईजाद हुआ। नेपाल में क्रांति के नये प्लावन को सूत्रबद्ध करने के लिए नये राजनैतिक शास्त्र की रचना होगी या आजमाये हुए राजनैतिक दर्शन का परिवर्तित परिवर्धित संस्करण सामने लाया जायेगा।
2006 में नेपाल में लोकतंत्र के लिए आंदोलन ने राजशाही को समाप्त कर दिया। लोगों के वोट से चुनी सरकार के हाथ में हुकूमत आने को एक बड़ी क्रांति के बतौर देखा गया था। लेकिन यह क्रांति टिकाऊ साबित नही हुई। नेपाल में लोकतंत्र ने 17 वर्षों में कई प्रयोग किये जिसमें 14 से अधिक सरकारें जन असंतोष की भेंट चढ़ गयी। लेकिन नये-नये मिजाज की इतनी सरकारों को आजमाने के बाद भी यहां लोगों को न खुदा ही मिला, न विसाल ए सनम… की स्थिति से दो चार होना पड़ रहा है। ऐसे लोग भी सत्ता में आये जिनका लोकशाही के लिए संघर्ष का ज्वलंत इतिहास था। उनके हाथों में सत्ता पहुंचने के बाद तो ऐसा होना चाहिए था कि लंबे समय तक के लिए लोग निश्चिंतता से रहने का सुख-लाभ उठा सकते। लेकिन जनता तमाम नेताओं को अपनी अपेक्षाओं की कसौटी पर खारिज करने के लिए विवश होती रही।


बुर्जुआ सरकारों के अलावा 1990 से 2025 तक 12 बार नेपाल के लोगों ने जनवादी सरकारें भी गठित करायीं तो भी मंजिल की तलाश खत्म नही हो पायी। ताजा बवंडर में इस्तीफा देने को बाध्य किये गये केपी शर्मा ओली 2018 से 2021 तक भी प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर चुके थे। इस नाते उनको नेपाल की सत्ता संरचना की आंतरिक बुनावट के रेशे-रेशे का ज्ञान हो गया होगा तो दूसरे कार्यकाल में उन्हें सावधानी बरतनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने शासन में व्याप्त भारी भ्रष्टाचार को रोकने, बढ़ती बेरोजगारी के निवारण और सरकार की कुलीनशाह छवि को सुधारने के लिए कटिबद्ध होकर कोई प्रयास नही किया। चुनी हुई सरकारों की लगातार विफलता ने नेपाली समाज के एक वर्ग में राजशाही की वापसी की मांग को न्योता दे दिया। इसी वर्ष मार्च में प्रो-मोनार्की-प्रोटेस्टस में राजा की वापसी को लेकर भिड़े प्रदर्शनकारियों पर पुलिस को गोली चलानी पड़ गयी जिसमें 2 लोगों की मौत हो गयी थी। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने इस उपद्रव से सबक नही लिया। वे इस मुगालते मे थे कि नेपाली बहुमत किसी भी कीमत पर राजशाही की बहाली की मांग का समर्थन नही कर सकता। उनका आंकलन था कि इसके मददेनजर राजशाही समर्थकों के आंदोलन से उनकी सरकार का बल बढ़ा है।
यह गफलत ही उनको ले डूबी। युवाओं में समूचे पुराने राजनैतिक वर्ग के खिलाफ उग्र होती जा रही अनास्था को नोटिस में न लिया जाना बड़ी चूक साबित हो रहा था। युवाओं का मानना था कि यह वर्ग सत्ता के लिए गठबंधन जोड़ता-तोड़ता रहता है और स्थितियों में बदलाव की जिम्मेदारी स्वार्थों और लोलुपता के कारण उठाने का इच्छुक नही है। राजनीतिक नेताओं के परिवारों की लग्जरी करों और विदेश यात्राओं के वायरल वीडियो ने युवाओं में सत्ता वर्ग के लिए तीव्र गुस्सा भड़का दिया। जब सोशल मीडिया मंचों पर उनका उबाल सामने आने लगा तो सरकार ने बजाय फेस सेविंग का जतन करने के 4 सितम्बर 2025 को फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम, लिंक्डइन, रेडइट, सिग्नल और स्नैपचैट सहित 26 प्लेटफार्म प्रतिबंधित कर दिये। इसमें सेंसरशिप का आभास युवाओं को अपनी आवाज घोंटने जैसा लगा जिसके चलते बगावत भड़क उठी। युवाओं के गुस्से के इस विस्फोट को जेन जेड का नाम दिया गया है। जिसमें 13 से 28 वर्ष के युवा शामिल हैं। जेन जेड प्रोटेस्टस ने देश को गृह युद्ध जैसी स्थिति में धकेल दिया है। 8 सितम्बर को जब संसद भवन पर युवओं ने हमला बोल दिया और आंसू गैस दागने व रबर की गोलियां चलाने पर भी स्थिति नियंत्रित नही हुई तो ओली ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी जिसमें 19 लड़के मारे गये और 400 घायल हो गये। तब कहीं जाकर केपी शर्मा ओली की तंद्रा टूटी और उन्होंने सोशल मीडिया पर से प्रतिबंध हटाने की घोषणा कर स्थिति को शांत करने की कोशिश की लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अगले दिन सेना को उतारे जाने के बाद में भी तांडव नही थमा। संसद भवन को जला दिया गया। पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी का जिंदा दहन कर दिया गया। प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाले डीएसपी की भी पीट कर हत्या कर दी गयी। विदेश मंत्री आरजू राणा देउबा को घर में घुसकर पीटा गया। अंत में कृषि मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री सहित पांच मंत्रियों व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को भी इस्तीफा देना पड़ा।


भारत की अल्पज्ञानी और उथली राष्ट्रवादी जमात की इस घटनाक्रम पर नेपाल में चीन समर्थक सरकार के पैर उखड़ने के रूप में खुशी भरी प्रतिक्रिया दर्शाया जाना बचकाना उत्साह है। इस विद्रोह को राजशाही से भी कोई हमदर्दी नही है। यह उथल-पुथल परिस्थितियों की स्वतः स्फूर्त उपज है। नेपाल के युवा क्या वामपंथी, क्या दक्षिणपंथी समूची राजनैतिक बिरादरी की खिलाफत कर रहे हैं। ऐसे में नई हवा के झोके के सदृश्य काठमांडु के 28 वर्षीय मेयर बालेन शाह का नाम अंतरिम प्रधानमंत्री बनाने के लिए लिया जा रहा है। बालेन शाह का पांच साल पहले का रैंप जिसके नेपाली बोलों का तर्जुमा है जितने नेता हैं सभी चोर हैं फिर ट्रेंड हो रहा है। उनके सड़कों की सफाई, सार्वजनिक स्कूली शिक्षा में सुधार और टैक्स चोरी करने वाले निजी संस्थानों पर नकेल जैसे कार्यों ने उन्हें युवा और राष्ट्रवादी नेतृत्व का चेहरा बना दिया है। भारत के लिए उनके बारे में जानने वाली बात यह है कि वे नेपाल के भारत के सांस्कृतिक उपनिवेश के रूप में चित्रीकरण से चिढ़ते हैं। उन्हें नेपाल में दृष्टि के देवता कहे जाने वाले 71 वर्षीय डा. रुईट जैसी हस्तियों का समर्थन मिल रहा है। इण्डोनेशिया में भी जन विद्रोह भड़का हुआ है जिसके वन पीस मंगा के झंडे लहराने का प्रतीक भी नेपाल के आंदोलन में अपनाया जा रहा है।


श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में जनता के सड़कों पर उतर कर व्यवस्था को तितर-बितर किये जाने के ट्रेंड का यह चौथा एपीसोड है। इसको लेकर भारत में इसकी पुनरावृत्ति के खतरे दिखाये जा रहे हैं। लेकिन इसके पीछे क्या नीयत काम कर रही है यह समझने की जरूरत है। वर्तमान सरकार पहले दिन से ही लोकतंत्र में होने वाले स्वाभाविक विरोध की हर सामान्य गतिविधि को देश के खिलाफ षणयंत्र के रूप में स्थापित करने में जुटी हुई है। नेपाल की घटना से उसके समर्थकों को अपने इस उददेश्य के लिए एक और बहाना मिल गया है। नेपाल व अन्य प्रभावित देशों की अशान्ति का सबक देश के लिए कुछ है तो यह है कि सरकार जनता की समस्याओं को सही समय पर एड्रेस करना सीखे न कि जनता से लेकर विपक्ष तक को वह केवल अनुमोदन कर्ता तक की भूमिका में सिमटे रहने के लिए बाध्य करने की सोचे। फिलहाल भारत में ऐसा कोई खतरा नही है और न ही हो सकता है, बशर्ते कि असंतोष की अभिव्यक्ति के लिए लोकतंत्र में जितना अपेक्षित होता है व्यवस्था का ढक्कन उतना खुला रखने में कोई कोताही बरतने की कोशिश न की जाये।
बहरहाल केपी ओली का अपदस्थ होना चीन की बहुत बड़ी कूटनीतिक हार है। चीन ने हाल में जब अपना विजय दिवस मनाया था तो भारत के अन्य पड़ोसियों के साथ-साथ केपी ओली को भी शी जिनपिंग ने बहुत इतरा कर अपने साथ खड़ा किया था भारत को यह दिखाने के अंदाज में कि तुम अपने ही क्षेत्र में नेता बनने की हैसियत नही रखते। भारत ने इस जलालत को खून के घूंट पी लिया था। आज भारत ने तो नेपाल में कुछ किया ही नही है लेकिन तो भी इतनी जल्दी केपी ओली हिट विकेट हो गये। तुम्हारा वरदहस्त किसी काम नही आया। इसके बावजूद ऐसा भी नही कि ओली नही रह गये तो चीन प्रचंड के लिए नेपाल में कोई गंुजाइश बना पा रहा हो। नेपाल के युवाओं का तो हर विचारधारा से मोह भंग हो चुका है। नेपाल उस रास्ते पर है जिस पर चलकर 1985 में भारत में असम के लोगों ने निश्छल छात्रों को सत्ता सौंपने का प्रयोग किया था। लेकिन तब देवदूत की तरह माने गये असम गण परिषद के प्रफुल्ल मोहंता आज कहां हैं। इसमें अरविंद केजरीवाल का नाम भी जोड़ा जा सकता है। पेशेवर राजनीति से देवदूत तुल्य अछूते चेहरे को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाते समय लोग कितनी पवित्र भावनाओं से भरे थे लेकिन यह प्रयोग भी कितना सफल साबित हुआ। और यह भी कि वैज्ञानिक समाजवाद या इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन की कैडर क्लास ज्वॉइन करने वाले नेता भी प्रैक्टिकल की बारी आने पर लोगों के शोषण की स्पृहा से तब तक निरापद नही रह सकते जब तक कि बकौल बाबा साहब अंबेडकर कामरेडो के आचरण को धम्म से अनुशासित रखने की व्यवस्था न जोड़ी गयी हो। 

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