विधायक के वायरल बयान से उत्तर प्रदेश में सियासी तूफान


कानपुर नगर की किदवई नगर विधानसभा सीट के भाजपा विधायक महेश त्रिवेदी के वायरल वीडियो ने उत्तर प्रदेश में सियासी भूचाल पैदा कर दिया है। इस वीडियो क्लिप में महेश त्रिवेदी पार्टी कार्यकर्ताओं से यह कहते हुए सुने जा रहे हैं कि उन्हें तो विधायक के रूप में वेतन के अलावा अपनी निधि में 10 प्रतिशत कमीशन भी मिलता है, तुम्हें क्या मिलता है। वैसे महेश त्रिवेदी ने कोई ऐसा रहस्योदघाटन नही किया है जिसके बारे में लोग अनभिज्ञ हों। सांसद और विधायकों द्वारा उन्हें विकास कार्यों के लिए आवंटित की जाने वाली निधियों में उनके द्वारा कमीशन वसूले जाने की सच्चाई से बच्चा-बच्चा परिचित है। जिसे अनिवार्य बुराई के रूप में स्वीकार किया जा चुका है। लेकिन महेश त्रिवेदी ने सच्चाई की इस चिंगारी को अपने भाषण से कुरेदने का काम कर दिया है जिससे विरोध की लपटें उठने लगी हैं। और तो और भाजपा के ही तीरंदाज समझे जाने वाले लोनी गाजियाबाद के विधायक नंद किशोर गुर्जर ने तो एक चैनल पर महेश त्रिवेदी की सदस्यता समाप्त करने और मुकदमा दर्ज कर उन्हें जेल भेजने की मांग कर डाली। लेकिन लोगों को नंद किशोर गूजर की बयानबाजी में पाखंड दिखाई दे रहा है। उनका कहना है कि नंद किशोर गूजर इतने भोले नही है कि सांसद-विधायकों द्वारा क्षेत्र विकास निधि जारी करने में कमीशन लेने के तथ्य से पहले से परिचित न हों। अगर वे इतने ही मासूम और पाक साफ होते तो उन्होंने खुद और बहुत पहले इस अनाचार के खिलाफ आवाज उठाने की पहल की होती।


भाईचारे के इस रिश्ते को क्या कहते हैं ?
इस मामले में चाहे पक्ष हो या विपक्ष हमाम में सभी नंगे हैं। विधायकों की पेंशन भत्ते बढ़ाने की मांग आती है या क्षेत्र विकास निधि में बढ़ोत्तरी का प्रस्ताव पेश होता है तो सदन में सभी चोर-चोर मौसेरे भाई नजर आते हैं। सर्वसम्मति से अपने हित के ऐसे प्रस्ताव विधायक दलबंदी की सीमाएं क्रास करके पारित करा देते हैं। लोगों में तो महेश त्रिवेदी से उनके बयान के कारण हमदर्दी पैदा हो रही है क्योंकि विधायक और सांसदों का कमीशन रेट तो बहुत ज्यादा है- 30 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत तक। ऐसे में अगर महेश त्रिवेदी सिर्फ 10 प्रतिशत लेते हैं तो लोगों के लिए यह बहुत बड़ी गनीमत है। लोगों का मानना है कि जिस जनप्रतिनिधि को 10 प्रतिशत कमीशन में संतोष है वह आज की दुनियां में ईमानदार ठहराया जाये तो गलत नही है। महेश त्रिवेदी शुरूआत में बालू ठेकेदार रहे हैं। इस धंधे में रायल्टी चोरी से शुरू में भी बड़ा वारा-न्यारा करने की गुंजाइश रही है। इसलिए महेश त्रिवेदी भी बालू ठेका लेकर जब बड़े आदमी बन गये तो यह सोचकर कि सिर्फ पैसे से समाज में रसूख नही बनता उन्होंने पैसे के साथ-साथ राजनैतिक हैसियत बनाने की दिशा में रुख किया। पहली बार निर्दलीय जीते, इसके बाद बहुजन समाज पार्टी में टिकट की खुली बोली में शामिल होकर उन्होंने पहले उम्मीदवारी हासिल करने की बाजी मारी और इसके बाद चुनाव भी जीत गये। बाद में जब भारतीय जनता पार्टी की टूट कर बहार आ गयी तो यह तो उनकी मन की ही पार्टी थी। इसलिए वे बोरिया-बिस्तर लेकर भाजपा में जा डटे। पहली बार 2017 में भाजपा के टिकट पर चुने गये और इसके बाद 2022 में उन्हें पुनः सफलता मिल गई जबकि लोग दूसरे उम्मीदवार की तरह उनमें मतदाताओं के पैर पड़ने की कला न होने के कारण उनसे खिन्न थे। पर आखिर में लोगों ने उन्हीं को वोट दे दिया।


महेश त्रिवेदी का अनाड़ीपन
जाहिर है कि राजनीति में महेश त्रिवेदी बहुत पारंगत नही हैं। खांटी राजनीतिज्ञ तो सरेआम पैसा भी ले लें और कसम खाकर सबके सामने यह भी कह दें कि उसके लिए तो पैसा छूना गौ-हत्या के बराबर का पाप है। राजनीति में सर्वाइव करने के लिए बहुत मोटी बेशर्मी की जरूरत होती है। इस मामले में महेश त्रिवेदी अधूरे पालीटिशियन हैं। इसलिए उनके मुंह से कमीशन की बात निकल गयी। अब नंद किशोर गूजर जैसे दूध के धोए तमाम उनके साथी प्रकट हो रहे हैं जो नैतिकता के मसीहा बनकर महेश त्रिवेदी को सूली पर चढ़वाकर टंटा खत्म कर देना चाहते हैं। नंद किशोर गूजर ने कहा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टोलरेंस की नीति के कायल हैं। वे महेश त्रिवेदी को छोड़ेगे नहीं। भैया गूजर साहब क्यों इतना बढ़-चढ़कर बोल रहे हो। आप उनके चहेते तत्कालीन सचिव मनोज कुमार सिंह पर भरी सभा में आरोप लगा रहे थे कि वे रोज 50 हजार गायें गाजियाबाद में कटवा रहे हैं। योगी आदित्यनाथ ने क्या मनोज कुमार सिंह का कुछ बिगाड़ा। मनोज कुमार सिंह नौकरी पूरी करके शान से रिटायर हुए। मुख्यमंत्री ने आपकी बात एक कान से सुनी और दूसरे कान से निकाल दी। फिर भी आप मुख्यमंत्री को भ्रष्ट कारगुजारी किसी कीमत पर बर्दास्त न करने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं या तो आप किसी भय या लालच में ऐसा कर रहे हैं या फिर मनोज कुमार सिंह पर आपने जो आरोप लगाये थे वे झूठे थे। आप नंबर-1 के झूठे हैं।
शर्म से शर्म प्रूफ होने तक का सफरनामा


मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को सब पता है। 2017 में जब वे मुख्यमंत्री बने ही थे वृंदावन में संघ और भाजपा की समन्वय समिति की राज्य स्तरीय बैठक हुई थी। जिसमें योगी आदित्यनाथ के मुंह पर कहा गया था कि हमारे विधायक तो तीन महीने में ही सपा के कान काटे दे रहे हैं। हर जगह कमीशनखोरी उनका अधिकार बन गया है। मुख्यमंत्री को बैठक में बहुत शर्मसार होना पड़ा था। उन्होंने आश्वासन दिया था कि वे विधायकों पर नैतिक अंकुश लगायेगें। लेकिन क्या हुआ। कुछ और इसी तरह की बैठकों में धिक्कार-फटकार का क्रम बना रहा फिर धीरे-धीरे इस चर्चा पर विराम लगा दिया गया। मुख्यमंत्री को अच्छी तरह पता है कि 2017 में जो विधायक पहली बार चुने गये थे उनका स्टेटस क्या था। आज वे 50 लाख रुपये से कम की गाड़ी में नही चलते। अपने गृह जनपद से लेकर लखनऊ तक में उन्होंने अपनी आलीशान कोठिया बनवा ली हैं। विधायक अपने यहां होने वाले कारज में लजीज दावत का इंतजाम करते हैं जिसमें हजारों लोगों को कार्ड बांटे जाते हैं। भाजपा में नेता क्या कार्यकर्ताओं तक के लिए जितना भव्यतापूर्ण जीवन स्तर सम्मान और गरिमा के मानक के रूप में निर्धारित हो चुका है उसके निर्वाह के लिए बहुत ज्यादा आमदनी की व्यवस्था आवश्यक हो गयी है। फिर यह आमदनी कैसे भी हो इससे मतलब नही है। इसके लिए तमाम हथकंडों को गर्हित मानने की बजाय पुरुषार्थ और क्षमता की निशानी के बतौर प्रोत्साहित करने का रिवाज चल पड़ा है। योगी आदित्यनाथ चाहते थे कि भाजपा जो पार्टी विद ए डिफरेंस का दम भरती रही है आचरण में हमारे लोग उस मर्यादा को मान्य करें। लेकिन बहुत जल्द ही स्पष्ट हो गया कि उनकी हैसियत मुख्यमंत्री बनकर भी एक टूल से ज्यादा नही है। जिसका इस्तेमाल कैसे होगा यह पार्टी में ऊपर बैठे लोगों को तय करना है तो वे असहायता की भावना में घिरते चले गये। उनकी इस कमजोर मनोदशा का फायदा अधिकारियों ने उठाया, जबकि उनके जीवन का भी ध्येय अधिकाधिक धन संग्रह से इतर नही है।


माननीयों की निधि की बेईमान बुनियाद
सांसद-विधायकों के लिए विकास निधि की स्थापना का काम ही संवैधानिक रूप से त्रुटिपूर्ण था। संविधान में शक्तियों के विकेंद्रीयकरण का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है जिसमें विधायिका की भूमिका व्यवस्था संचालन के लिए नियम-कानून बनाना है जो बदलते हुए समय की चुनौतियों के सापेक्ष गतिशील रहते हैं। विधायिका को कोई कार्यकारी शक्तियां प्राप्त नही हैं लेकिन क्षेत्र विकास निधि के माध्यम से कार्यकारी शक्तियां देकर भले ही वे प्रतीकात्मक हों इस सिद्धांत की लक्ष्मण रेखा तोड़ी गयी थी। 1991 में नरसिंहा राव को अपनी अल्पमत सरकार को पूरे पांच वर्ष टिकाऊ रखने के लिए जो व्यवस्थायें ईजाद करनी पड़ीं उनमें सांसदों के लिए क्षेत्र विकास निधि का प्रावधान मुख्य था। इसके पीछे तत्कालीन सरकार को पता था कि इसमें सांसद कमीशन खोरी करेगें लेकिन सरकार तो यही चाहती भी थी तांकि पांचों वर्ष कमीशन की निर्बाध व्यवस्था के लिए सांसद अपनी पार्टी को बीच में लोकसभा भंग न करने दें। इसी दौर में सांसदों की खरीद-फरोख्त के मामले सामने आये। लेकिन इस अनाचार पर जन असंतोष का कोई बम नही फटा। भारत की सामाजिक व्यवस्था को न्याय बुद्धि के आधार पर कदापि जायज नही ठहराया जा सकता। इस व्यवस्था को लागू करने के लिए भारतीय समाज के अगुवाकारों ने न्याय-बुद्धि की हत्या का काम किया और जिस समाज में न्याय-बुद्धि समाप्त हो चुकी हो उसे नैतिकता के हर पहलू से विमुख हो ही जाना है। भारतीय समाज सत्ता के लिए मंडल आयोग की रिपोर्ट का लागू होना एक प्रलंयकारी दुस्साहस था जिसके समूल नाश का लक्ष्य उनके मन में ईश्वरीय इच्छा के सबसे बड़े सम्मान के रूप में घर बनाये हुए था। इसलिए उन्हें न तो अंबानी के यहां बंधक चंद्रशेखर सरकार के गठन के पाप को झेलने में दिक्कत थी और न ही नरसिंहा राव की सरकार को पूरे कार्य काल तक चलाने के लिए वे कुछ भी स्याह-सफेद करें उसमें उनका जमीर आड़े आने वाला नही था। उन्हें तो यह था कि पांच वर्ष का समय यथा स्थितिवादी दौर के रूप में गुजर जाये। उनका आंकलन था कि इतने समय में सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत शक्तियों का जोश चुक जायेगा और मंडल की रिपोर्ट लागू होने से परिवर्तन का जो तूफान मचला है वह अपनी मौत मर जायेगा। इसलिए सांसद क्षेत्र विकास निधि का समय रहते विरोध नही हुआ और इसका संक्रामक विस्तार आगे चलकर राज्यों में हो गया जिसने चुने हुए प्रतिनिधियों को भ्रष्ट बनाने में बड़ी भूमिका अदा की।


कल्याण सिंह के जमीर ने नही दी थी गवाही
ऐसा नही है कि इस गलत रिवाज को खत्म करने की हूंक कहीं न उठी हो। उत्तर प्रदेश में 1999 में जब कल्याण सिंह ने विधायक निधि को स्थापित करने की घोषणा की थी उस समय उनका जमीर इसके लिए गवाही नही दे रहा था। लेकिन तब अगर भाजपा सरकार न बनाती तो फासिस्टवाद का ऐसा दौर आ गया था कि उसका वजूद मिट जाता और सरकार बनाने के लिए तमाम अनीतिपूर्ण समझौतों के अलावा कोई विकल्प नही था। अंत में कल्याण सिंह को झुकना पड़ा। उन्होंने भी विधायक निधि की स्थापना इसलिए की तांकि माननीय विधायक इसके लोभ में सदन की स्थिरता के संबल की भूमिका निभाएं। इसके बाद बिहार में नीतिश कुमार पर नैतिकता का ताप चढ़ा तो उन्होंने कुछ समय के लिए विधायकों की क्षेत्र विकास निधि पर विराम लगाया। लेकिन आखिर में विधायकों के निहित स्वार्थों के कारण उन्हें घुटने टेकने पड़े। आम आदमी पार्टी से आशा थी लेकिन आगे चलकर स्पष्ट हो गया कि उसकी नैतिक मान्यताएं सीमित हैं। अब तो एक तरह से विधायिका के सदस्यों को विकास का विसंगतिपूर्ण अधिकार देना चर्चा से ही बाहर हो गया है। इस मुददे को अप्रासंगिक मान लिया गया है।
नैतिक परख की कसौटी


महेश त्रिवेदी के जाने अनजाने में दिये गये भाषण के वायरल होने से विधायक निधि में होने वाली कमीशन खोरी का मुददा कुछ समय के लिए सतह पर तो आ गया है लेकिन इससे कोई निर्णायक वाद-विवाद छिड़ेगा इसकी उम्मीद कोई नही कर रहा। बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी…. हुआ करे यह मुहावरा लेकिन विधायक निधि की कमीशन खोरी की बात बहुत दूर तक जाने वाली नही हैं। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि किसी भी व्यवस्था की कल्पना नैतिकता के बिना नही की जा सकती। बदमाशों के गिरोह को भी नैतिक सीमाएं तय करनी पड़ती हैं। राजनैतिक व्यवस्था दक्षिण पंथी अच्छी है या वामपंथी, धर्मनिरपेक्षता पर आधारित व्यवस्था अधिक कल्याणकारी है या धर्म आधारित व्यवस्था इस पर तो बहस हो सकती है लेकिन कोई भी विचार इस बात की छूट नही ले सकता कि उसके कामों की नैतिक आधार पर परख न की जाये। नेपाल की तथाकथित जनवादी सरकार ने केवल जन के नाम से लोगों को संतुष्ट रखने का मुगालता पाल रखा था लेकिन उसके भ्रष्ट आचरण ने ऐसी कलई खोली कि कोई मुलम्मा काम न आ सका। भारत में सरकार की नैतिक परख को वर्जित करके ऐसा ही आत्मघाती प्रयास हो रहा है। राष्ट्रवाद, संस्कृति और नैतिक मर्यादाएं इनमें अनन्योन्याश्रित संबंध है। जो नैतिक नही है उसे राष्ट्रवादी मानना बहुत बड़ी प्रवंचना है।


लोकतंत्र में लोगों की भूमिका सबसे अग्रणी
यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि लोकतंत्र हर नागरिक पर एक बड़ी जिम्मेदारी का बोझ भी डालता है। अवतारवाद से लोकतंत्र नही चल सकता। लोकतंत्र में लोग किसी महामानव के भरोसे अपने को छोड़कर निश्चिंत नही सो सकते। लोकतंत्र व्यवस्था संचालन के अनुभवों की प्रगति का शिखर है जिसका तकाजा है कि हर नागरिक व्यवस्था को पटरी पर रखने के लिए स्वयं की डयूटी अनुभव करे। वह अपनी पार्टी में भी और अपनी सरकार की भी सतत निगहबानी करे। जहां उसमें विचलन नजर आये अंकुश लगाकर उसे दुरुस्त करने का काम करे। एक बेहतर व्यवस्था का कायम रहना मतदाता के तीव्र अधिकार बोध से ही संभव है। अगर इस अधिकार बोध में कोई सुस्ती न होती तो महेश त्रिवेदी की चिंगारी का प्रभाव जनता में विस्फोटक रूप में नजर आना चाहिए था भले ही पेशेवर दल अपने निहित स्वार्थों के कारण इसकी कितनी भी अनदेखी करते।

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