सरकार को भस्मासुरी आशीर्वाद


व्यक्ति हो या देश उसे दूसरे के सामने अपनी कमजोरी नही माननी चाहिए और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अंतिम सीमा तक प्रयास करना चाहिए। यह बात सच है लेकिन वास्तविकता सभी जानते हैं कि अमेरिका का जो कोप कहर भारत पर टूट रहा है उससे देश मुश्किल हालातों से दो-चार है। सरकार ने विकल्प की तलाश में चीन और अमेरिका की गोद में बैठकर देख लिया लेकिन इससे संकट का तोड़ निकलने वाला नही है यह बात हमारी सरकार अच्छी तरह जानती है। दक्षिण एशिया की राजनीति में चीन भारत से प्रतिस्पर्धा मानता है। कम्युनिस्ट विचारधारा के लबादे में चीन का चरित्र मूल रूप से साम्राज्यवादी है। वह दुनियां में सर्वोच्चता कायम करने की लोलुपता के तहत काम करता है। हर देश की संप्रभुता को आहत करना उसकी फितरत है। वह विश्व शांति के लिए एक शैतान आत्मा की तरह पेश आ रहा है जो अपने विघ्न संतोषी रवैये से जहां मौका मिल रहा है वहां खलल डालने से बाज नही आता। वैश्विक वर्चस्व के लिए उसे अमेरिका से आगे निकलना है लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र में ही अपनी सर्वोपरिता को मान्य नही करा पाया तो विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति का उसका दर्जा कैसे साकार हो पायेगा।
कौन किसका इस्तेमाल करे


इसलिए भारत ने पींगे बढ़ाई तो चीनी हुकूमत का रवैया रणनीति के तहत उसके प्रति तात्कालिक तौर पर मधुर हो गया। जैसा कि उसने शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में किया। मोदी से शी जिंनपिंग से बहुत गर्मजोश होकर मिले लेकिन सभी जानते हैं कि चीनी नेताओं को एक चेहरे पर कई चेहरे चढ़ा लेने की कला कितनी अच्छी तरह आती है। शी जानते थे कि भारत की उसके लिए रसिकता अमेरिका को दिखाने के लिए है तांकि घबराकर अमेरिका उसके प्रति अपना रवैया नर्म करने की सोचने लगे। लेकिन इस पूरे प्रहसन में शी पूरी तरह खबरदार रहकर अपना खेल खेल रहे थे। खेल इस बात का था कि भारत अपनी जटिल स्थितियों से पार पाने के लिए चीन का इस्तेमाल कर पाता है या चीन भारत की गरज को अपने पक्ष में अच्छी तरह भुना पाता है। अन्यथा एक ओर शी आमने-सामने मोदी को इतना महत्व देने का अभिनय कर रहे थे तो दूसरी ओर उनकी अगुवानी के लिए स्वयं पहुंचने या अपने किसी वरिष्ठ मंत्री को भेजने का ध्यान न रखकर उन्होंने यह भी बताने की चेष्टा की थी कि चीन की निगाह में भारत का भाव कितना है। शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन के बाद शी ने पाकिस्तान को एससीओ की आतंकवाद पर नियंत्रण के लिए गठित समिति का अध्यक्ष बनाकर मोदी को जो संदेश दिया उसे कदापि अच्छा नही माना जा सकता। यह एक तरह से भारत को अपमानित करने की धृष्टता में शुमार होता है।


भारत के लिए चीन के मन में स्थाई शत्रुता ग्रंथि
तो स्पष्ट है कि चीन के मन से भारत के लिए शत्रुता की ग्रंथि को निकाला जाना हाल-फिलहाल बिल्कुल संभव नही है। ऐसे में अमेरिका की प्रताड़ना की भरपाई के तौर पर चीन के साथ भारत के निकट होने का कोई मूल्य नही है। उधर भारत ने जियो पॉलिटिक्स में गलत चाले चलकर रूस के साथ भी संबंधों में पहले जैसी शिद्दत गंवा दी है। दूसरी ओर रूस इस बीच अमेरिका के हस्तक्षेप को संतुलित करने के लिए चीन से निकटता बढ़ाने में काफी दूरी तय कर चुका है। ऐसे में अगर कोई निर्णायक बिंदु आता है तो चीन के दबाव में रूस भले ही भारत की खुली खिलाफत न करे लेकिन वह तटस्थ रुख अपना सकता है और यह भी भारत के लिए नुकसान देह ही होगा। तो यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि फिलहाल तो भारत अजाब में फंस गया है।
विदेश नीति की खुलती परतें


मोदी सरकार ने वैश्विक समीकरणों में देश के लिए जोखिम में डालने वाला ट्विस्ट क्यों लिया इसकी परतें अब खुल रहीं हैं। ऐसे काफी तथ्य सामने आते जा रहे हैं जिनसे पता चलता है कि देश की अर्थनीति ही नही, विदेश नीति भी मोदी सरकार को परदे के पीछे से चलाने वाले चंद उद्योगपति तय कर रहे हैं। आज सत्ता के गलियारों में मोदी और अंबानी के बीच बिगाड़ हो जाने की अफवाहें तैर रही हैं लेकिन कल तक बहुत मामलों में मुकेश अंबानी मोदी सरकार के नियंता थे। उनका एक थिंकटैंक ऑब्जर्बर रिसर्च फाउंडेशन के नाम से है जिसको अमेरिका में हमारे विदेश मंत्री जय शंकर का बेटा ध्रुव जय शंकर लीड करता है। इसी फाउंडेशन के प्रभाव में मोदी सरकार ने अपनी विदेश नीति को अमेरिका की तरफ इतना झुका दिया कि भारत अमेरिका का स्वतंत्र राष्ट्र की बजाय अनुचर नजर आने लगा। यह फाउंडेशन भारत में रायसीना डायलॉग के नाम से विदेश नीति पर सेमिनार कराता है जिसके खर्चे का एक अंश भारत सरकार उठाती है। निजी संस्थान के फाउंडेशन के लिए भारत सरकार खर्चा करे इसकी क्या तुक है। यह संस्थान मूल रूप से अमेरिका में अंबानी के कारोबारी फायदे के लिए लॉबिंग करता है भले ही उससे देश के हितों का नुकसान हो जाये।


कारपोरेट गैंगवार में उलझी भारत की विदेश नीति
इसीलिए ट्रंप जिनसे मुकेश अंबानी ने पारिवारिक संबंध बना रखे हैं जब अमेरिका में फिर से सत्ता मे आये तो उन्होंने भारत को पालतू बिल्ली की तरह ट्रीट किया। उन्हें विश्वास था कि मुकेश अंबानी के पास मोदी सरकार की चाभी है जिनका उपयोग करके वे जैसा चाहेगे मोदी सरकार को नचा लेगें। लेकिन भारत में सत्ता के नजदीकी कॉरपोरेट घरानों में गैंगवार छिड़ गया जिसमें एक ध्रुव पर मुकेश अंबानी खड़े थे तो दूसरी पर अडाणी। यह टकराव इतना बढ़ा कि मोदी सरकार खुलकर अडाणी के पक्ष में खड़ी हो गयी। ट्रंप को जब यह एहसास हुआ कि अंबानी उसके काम के नही रह गये तो उसने अंबानी को एक किनारे कर दिया। अब वह मोदी सरकार की गर्दन मरोड़ने के लिए अडाणी के कंधों का इस्तेमाल करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। अडाणी पर अमेरिका की एक अदालत में मुकदमा कायम हो गया है जिसमें आरोप यह है कि अडाणी की ग्रीन एनर्जी कम्पनी ने सोलर बिजली को मंहगे दामों पर बेचने के लिए तेलंगाना सहित कुछ राज्य सरकारों के अधिकारियों को 2000 करोड़ रुपये की रिश्वत दी थी और इस रिश्वत की व्यवस्था के लिए तथ्य छुपाकर उसने अमेरिका के इन्वेस्टर्स से रकम इकटठा की थी। इस मामले में अदालत ने अडाणी को समन जारी किया था। जिसे मोदी सरकार ने आज तक सर्व नही होने दिया है जबकि भारत और अमेरिका के बीच एक संधि है जिसके तहत दोनों देश कानूनी मामलों में एक-दूसरे की मदद करने के लिए बाध्य है।


अडाणी के तोते में मोदी सरकार की जान
तथ्यों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी सरकार ने अमेरिका में अपने प्रिय अडाणी को बचाना सर्वोपरि नैतिक कर्तव्य मान रखा है। इसके कारण राहुल गांधी के चैलेंज देने पर भी मोदी ने ट्रंप की लफ्फाजी को उनका नाम लेकर झुठलाने का साहस नही दिखा पाया। जबकि इस कापुरुषता से मोदी को बड़ी किरकिरी झेलनी पड़ी। अडाणी को मौका देने के लिए ही वे उन्हें अमेरिकी अदालत का समन नही मिलने दे रहे क्योंकि अगर समन अडाणी को पहुंच गया तो अडाणी अमेरिकी अदालत में उपस्थित होने के लिए बाध्य हो जायेगें और ऐसी स्थिति में अमेरिकी अदालत उन्हें जेल भी भेज सकती है। मोदी जितने बेचैन हो रहे हैं ट्रंप को उनकी कमजोर नस दबाने में उतना ही मजा आ रहा है।
अदालत के बाहर समझौते में ट्रंप की अडंगेबाजी


अडाणी ने अदालत के बाहर अमेरिकी एजेंसियों से बात करके मामले को निपटा लेना चाहा था। निश्चित रूप से इसमें मोदी सरकार के भी प्रयास रहे होगें जिससे अदालत के बाहर हो रही यह समझौता वार्ता सफल होने के आसार बन गये थे। पर अमेरिका एकदम ब्लैक मेलिंग पर उतारू हो गया। उसने कह दिया है कि जब तक भारत अपनी कंपनियों को रूस से सस्ते में तेल लेकर दुनियां के दूसरे देशों को मंहगा बेचने से नही रोकेगा तब तक अदालत के बाहर अडाणी से अमेरिकी एजेंसियां कोई समझौता नही करेगीं। बीच में अमेरिका को पटाने के लिए उसके यहा से आयात होकर आने वाले कॉटन को भारत सरकार ने पूरी तरह टैक्स फ्री कर दिया था जिसकी व्यापक आलोचना हुई थी और देश के किसानों में इसके कारण बड़ा असंतोष देखा गया था। लेकिन अमेरिका इतना निर्मम हो गया है कि भारत की इस जुगत से भी वह नही पसीज सका है।
भारत को सबक सिखाने के लिए अडाणी की गिरफ्तारी संभव
ध्यान देने वाली बात यह है कि ट्रंप ने भारत पर 50 फीसदी टैरिफ लगाने का जो कदम उठाया है अमेरिका की संघीय अदालत उसे अनाधिकार चेष्टा करार दे चुकी है। इस पर ट्रंप ने आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग अपने दुराग्रह पूरा करने के लिए कर डाला। लेकिन आपातकालीन शक्तियां सीमित समय के लिए होती हैं। अक्टूबर में यह समय समाप्त हो जाने वाला है। इसके बाद ट्रंप भारत पर बेजा टैरिफ लगाने की स्थिति में नही रह जायेगें। लेकिन भारत इस तरह बच गया तो ट्रंप को इसमें अपनी बहुत बड़ी किरकिरी नजर आ रही है। इसलिए उन्होंने एकदम बहुत आक्रामकता अख्तियार कर ली है। वे अक्टूबर के पहले भारत को झुक जाना देखना चाहते हैं। ऐसे में वह अमेरिकी अदालत से अडाणी के खिलाफ वारंट निकलवाने और उन्हें इंटरपोल के माध्यम से गिरफ्तार कर लेने तक का कदम उठाने की सोचें तो कोई बहुत बड़ी बात नही होगी।
अडाणी-अंबानी में लगे लाल के आगे मोदी लाचार
पर सवाल यह है कि अंबानी-अडाणी में ऐसे कौन से लाल लगे हैं जो सरकार उनके लिए राष्ट्रहित तक दांव पर लगाने में गुरेज महसूस नही कर रही है। दुनियां के हर लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और पार्टी चलाने के लिए राजनीतिक दलों और सरकारों को उद्योगपतियों को साधना पड़ता है। अतीत में भी भारत में सत्तारूढ़ दलों ने ऐसा किया है। लेकिन उनसे चंदा लेने और बदले में उनको सहूलियत देने की एक सीमा होती थी। सरकार कभी किसी उद्योगपति को अपने को इतना नही बेचती थी कि वह उसकी बंधुआ बन जाये। पर अब जो हो रहा है उसमें कोई सीमा नही है। अब यह एकदम स्पष्ट हो चुका है कि मोदी ने अमेरिका के संबंध में अपने को इस स्थिति में इसलिए धकेला है क्योंकि उनके लिए देश से ज्यादा अडाणी और अंबानी के सरोकार महत्वपूर्ण हैं। आखिर उन पर इतनी मेहरबानी का कारण क्या है। यह लोगों की, देश की, सचमुच किस आवश्यकता की पूर्ति करते हैं, यह लोग स्टील किंग लक्ष्मी मित्तल की तरह भी नहीं हैं जिन्होंने दुनियां की जरूरत के किसी क्षेत्र में भारत का परचम सबसे ऊंचा करके लहराया हो, यह कोई ऐसे उद्योगपति भी नही हैं जिन्होंने सेवा के क्षेत्र में मानक स्थापित किये हों, यह कोई ऐसे कुबेरपति नही हैं जिनके प्रति मानव कल्याण के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने के लिए लोग उनके सामने अपने को सहज ही श्रद्धावनत होना महसूस करते हों, ऐसे उद्योगपति भी नही हैं जिन्होंने बहुत लोगों को नौकरियां दी हों, कामगारों की कल्याण की व्यवस्थायें करने के लिए जिनकी यशगाथा गायी जाती हो।
गांधी जी कहते थे कि व्यापार में भी नैतिकता होनी चाहिए। इस कसौटी पर इन कॉरपोरेट घरानों को परखा जाये तो व्यवसाय के लम्पट चरित्र की बानगी सामने आती है। अर्थ पुरुषार्थ भी है और पाप भी है। सरकारी नियमों में सेंध लगाने की बाजीगरी, टैक्स की अदायगी में हेराफेरी, शेयर बाजार में मेनुपुलेशन यह इनके कारोबारी मंत्र हैं। ऐसे लोगों को प्रोत्साहन देने की नीति रचनात्मक उद्यमिता का विनाश करती है। आखिर दिवालिये पन की कगार पर खड़े अनिल अंबानी का देश पर ऐसा कौन सा एहसान था जो लड़ाकू विमान के पुर्जा बनाने में उन्हें साझेदार बनाने के लिए राफेल को मजबूर किया गया जबकि अंबानी को डिफेंस सेक्टर का कोई अनुभव नही था। प्रतिस्पर्धा आयोग विलाप करता ही रह गया और आपने हवाई अडडे, रेलवे स्टेशन देने में एकतरफा तौर पर अडाणी को अनुग्रहीत किया।
लोकतंत्र में सरकार की निगहबानी
लोकतंत्र के लिए जनता से जिस बुनियादी अर्हता की दरकार होती है वह है कि अपनी पसंद की सरकार के कार्यों की निगरानी से भी वह चूंक न करती हो। कुछ लोग अगर यह करने को देश द्रोह करार देकर लोगों का मुंह बंद कराने लगें तो उन्हें डपट दिया जाना चाहिए कि देश कुछ लोगों की बपौती नही है जिनके कहने से यह तय हो कि सरकार से सवाल पूंछे जाये या न पूंछे जायें। इस देश पर यहां के हर नागरिक का अधिकार है इसलिए देश के साथ कुछ गलत होता दिखे तो वह सवाल पूंछेगा और सरकार को उसे संतुष्ट करना पड़ेगा। उसकी पंसद की सरकार भी तभी लोगों के सपने पूरे करने की जबावदेही पर खरी उतर सकती है जब उसे एहसास हो कि वह लोगों की पैनी निगहबानी के दायरे में है। सरकार में बैठे लोग अपने को भगवान साबित करने लगें और लोग इसे मानने लग जायें तो लोकतंत्र बेमौत मारा जायेगा। क्या देश इस तरह की गफलत का शिकार होने की स्थिति में तो नही पहुंच गया है।

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