पाकिस्तान के साथ तनातनी के भीषण कटु माहौल में उसके साथ क्रिकेट मैच खेलने के फैसले से भाजपा ने अपने समर्थकों के बड़े वर्ग की भी नाराजगी मोल ले ली है, विरोधियों के तानों की तो बात अलग है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की लफ्फाजी और जुमलेबाजी की कलई हाल के दिनों में इस कदर खुली है कि जब उनका मजाक उड़ाया जाता है, उन पर प्रहार किये जाते हैं तो कल तक मोदी की जरा सी बुराई पर बिफर जाने वाले कटटर समर्थक भी सुर में सुर मिलाने लगते हैं। कई लोग भाजपा नेतृत्व की बेहयायी का नकाब सरेआम नुचते देख सन्निपात की स्थिति में पहुंच गये हैं। वे समझ नही पा रहे कि जिन्हें उन्होंने भगवान का दर्जा दे रखा था वे इतने गये बीते हैं। ऐसे लोगों में बहुत ऐसे हैं जिनके मुंह से अभी भी धिक्कार के बोल न फूट पा रहे हों लेकिन अपने इन बनावटी नायकों का बचाव करने की तड़ उनमें नही बची है। मोह भंग की पराकाष्ठा के इस दौर में भी भाजपा का नेतृत्व संभलने की कोशिश नही कर रहा है जो आश्चर्य जनक है। पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने के मोह का अगर संवरण कर लिया जाता तो भाजपा का नेतृत्व अपने समर्थकों के दिमागी तंतुओं को बिजली का एक और तेज झटका देने के अपराध से बचा रहता। लेकिन खेल के लिए यह खेल खेलकर उसने बहुत बड़ी चूंक की है जिससे उसके प्रति लोगों में बढ़ रहा उचाट चरम बिंदु पर पहुंच गया है |

किस गरज के पीछे कर डाला घाटे का सौदा
आखिर कौन सी गरज थी जो भाजपा के नेतृत्व ने जिंदा मक्खी निगलने में परहेज नही किया। वर्तमान माहौल में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना जिंदा मक्खी निगलने के बराबर ही तो रहा। ओवैसी और कटटरपंथी माने जाने वाले उनके तेवर के मुस्लिम नेताओं को इसके कारण सरकार को चिढ़ाकर लोगों के बीच सरेआम नंगा करने का मौका मिल गया है। मुस्लिम नेता कह रहे हैं कि अगर किसी सिरफिरे ने पाकिस्तान की हमदर्दी में बयान दे दिया तो हमारी पूरी कौम की देशभक्ति की अइया-मइया करने में आप कसर नही छोड़ते थे। लेकिन आपका मन क्रिकेट के नाम पर पाकिस्तान का नाम क्यों मचल उठा। यह लहू पुकारेगा की कौन सी कहानी है।

साहबजादे की फिक्र जब सिर चढ़कर बोली
जाहिर है कि क्रिकेट सरकार की कमजोर रग नही हो सकती थी अगर भारत की वर्तमान क्रिकेट के भाग्य की डोर जय शाह के हाथ में न पहुंच गयी होती। कैसी बिडंबना है कि वंशवाद के खिलाफ गला फाड़ने वाले भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व के लिए अमित शाह के शहजादे के अरमानों के लिए देश की प्रतिष्ठा को भेंट चढ़ाने में कोई गिला महसूस नही होता। क्रिकेट के मैदान में भारत और पाकिस्तान की टीमों का सामना हो तो वह मैच सबसे ज्यादा क्रेजी हो जाता है। सवाल जय शाह के मुनाफे का था तो राष्ट्रीय जजबातों पर कैसा भी वज्रपात होता रहे सरकार मुंह कैसे मोड़ सकती थी। पहलगाम में धर्म पूंछ-पूंछ कर मासूम टूरिस्टों का बहाया गया खून अभी जनता जनार्दन के दिमाग में ताजा है लेकिन देश के नेतृत्व को इस शोक से कोई लेना-देना नही रह गया। थोथी भावुकता में पड़ने की बजाय उसने व्यवहारिक वास्तविकता को समझा जिसके तार जय शाह के हानि-लाभ से जुड़े हैं। धन्य है उन लोगों की सत्य बुद्धि को जिन्हें कोई माया मोह नही व्याप्तता। परम सत्य का बोध राग विराग से परे करने वाला होता है। देश का नेतृत्व शायद ऐसे ही किसी बोधिसत्व के पद पर पहुंच गया है।
पाकिस्तान को नैतिक शर्मिंदगी से उबरने का मिला मौका
अपने भू राजनैतिक स्वार्थों के कारण दुनियां के कई देश आतंकवाद विरोधी प्रतिबद्धता के बावजूद पाकिस्तान को अलग-थलग करने में हमारा साथ न दे पा रहे हों लेकिन इस मामले में भारत का आक्रोश जब फूटता था तो उनकी निगाहें झुक जाती थीं। लेकिन क्या भारत क्रिकेट मैच खेलकर अपनी इस नैतिक बढ़त को बचा पायेगा। पाकिस्तान को प्रायश्चित के गर्क में धकेलने में कामयाबी हासिल करने की बजाय हमारे नेतृत्व ने उसके दुस्साहस को और प्रोत्साहित करने का काम कर डाला है। जब सरकार से सवाल पूंछा गया था कि ऑपरेशन सिंदूर को उसकी तार्किक परिणति पर पहुंचने के पहले ही रोक क्यों दिया गया तो सरकार का जबाब था कि ऑपरेशन सिंदूर अभी खत्म नही हुआ है। यह ऑपरेशन अभी जारी है। लेकिन अब इस बयान की कोई कीमत रह गयी है। राज्यसभा के सदस्य और भाजपा के बड़े प्रवक्ता राकेश सिन्हा से जब इस बारे में पूंछा गया तो वे बगले झांकने लगे। अखण्ड भारत के निर्माण के लिए पाकिस्तान को फिर से अपने नक्शे में शामिल करने की डीगें हांकने लगे। अब जब आपके मुंह से पाक अधिकृत कश्मीर को अपने साथ मिलाने तक की बात नही निकल रही तो किस मुंह से आप पूरे पाकिस्तान को भारत से जोड़ देने का संकल्प जताते हैं। आपकी किसी सफाई में कोई दम नही है।

राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए कलंक है क्रिकेट
वैसे भी सबसे पराक्रमी राष्ट्रवाद के प्रस्तोता होने के नाते आपको सत्ता में बैठते ही क्रिकेट से नमस्ते कर लेना चाहिए था। क्रिकेट निशानी है हमारे ब्रिटेन के गुलाम रहने की। यह खेल उन्हीं देशों में खेला जाता है जो कभी इंगलैंड के अधीन हो गये थे। जिन देशों में बुलंद राष्ट्रीय स्वाभिमान था उन्हें क्रिकेट के साथ आजाद होने के बाद अपना परिचय जोड़ना इस कदर खला कि उन्होंने क्रिकेट को लात मारकर अपने यहां से भगा दिया। चीन इसका उदाहरण है। वहां क्रिकेट नही खेला जाता इसीलिए चीन ओलंपिक में सबसे ज्यादा पदक बंटोरने वाला देश बनकर उभरता है। क्रिकेट हमारी जलवायु को भी सूट नही करता। गर्म देश में इस खेल का जुनून आम युवाओं की सेहत के लिए घातक है। पांच-दस साल में अंतर्राष्ट्रीय मैच खेलने वाले पेशेवर खिलाड़ियों की संख्या 40-50 से ज्यादा नही हो पाती। वे करोड़पति, खरबपति बन जाते होगें लेकिन गांवों-कस्बों में जून के महीने में क्रिकेट का बल्ला पकड़ने वाले आम युवाओं की गत क्या होती है इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

क्रिकेट का सटटा जिससे पैदा होता है दाउद
क्रिकेट का एक खेल सामने मैदान में होता है और एक खेल पर्दे के पीछे सटोरियों द्वारा संचालित किया जाता है। क्रिकेट के सटटे में लाखों-करोड़ों युवा बर्बाद हो रहे हैं। दाउद इब्राहिम जो इतना बड़ा आदमी बना वह केवल तस्करी से नही। उसकी असल कमाई क्रिकेट का सटटा था। जिसकी दम पर वह इतना बड़ा थैलीशाह बन गया कि उसने भारत जैसे बड़े राष्ट्र राज्य को मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट करवाकर चुनौती देने की हिमाकत कर डाली। आज भी क्रिकेट की आड़ में सटटे का व्यापार उतना ही फलफूल रहा है लेकिन देश के भाग्य विधाताओं को चिंता नही है कि भविष्य में एक और दाउद इब्राहिम को पैदा होने से रोकने के लिए देश में क्रिकेट खत्म करा दें। इन दिनों एक वीडियो खूब चल रहा है जिसमें संत प्रेमानंद जी महाराज से भेंट के लिए पहुंचे आरएसएस के सर संघ चालक मोहन भागवत से कहते है कि देश के कल्याण के लिए युवाओं को व्यसन, व्यभिचार और हिंसा से दूर करने की शिक्षा देनी पड़ेगी। लेकिन संघ ने अपने स्वयं सेवकों को कैसी शिक्षा दी जिनमें अधिकार मिलने के बाद व्यसन और व्यभिचार के लिए इतना ज्यादा आकर्षण दिखाई देता है। क्रिकेट व्यसन भी है और व्यभिचार के मार्ग के लिए उद्दीपक भी। इस खेल में जबर्दस्त ग्लैमर है। क्रिकेटरों से युवा पीढ़ी प्रेरणा लेती है जो भोगी जीवन के प्रतीक हैं। जाहिर है कि उनकी प्रेरणाएं देश के युवाओं के चरित्र को किस कदर भ्रष्ट करने वाली होगीं। चीयर्स गर्ल भी क्रिकेट के खेल के एक पहलू में शुमार हो चुकी हैं जिसकी परिणति को लेकर अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नही है।

सुरुचि और विलासिता
सुरुचि और विलासिता में बहुत फर्क है। यह देश सुरुचि की संस्कृति में विश्वास रखता है जिससे सादगी भी मनोहारी बन जाती है। सुरुचि में जो पवित्रता और सात्विकता है उसकी अनुभूतियों का आनंद ही अलग है। विलासिता मानसिक और आध्यात्मिक पतन की ओर अग्रसर करती है। लेकिन आज हमारा देश सुरुचि के मूल्यों को छोड़कर विलासिता की ओर उन्मुख है। दुहाई तो प्राचीन संस्कृति की दी जा रही है लेकिन व्यवहार में पूरा समाज बाजारी संस्कृति के बहाव में बहता नजर आ रहा है। क्रिकेट भी बाजारी संस्कृति का एक प्रतीक है जिसके प्रवाह से अपने को सुरक्षित रख पाने की हमारे में सांस्कृतिक दृढ़ता का अभाव बहुत स्पष्ट है लेकिन हमारे नेतृत्व को समझना होगा कि हमारा वजूद तिनके का नही है, हम वट वृक्ष रहे हैं और आज भी हमारी चेतना वापस लौट सके तो इस वजूद को दिखाने की क्षमता हममे है।







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