
अमेरिका मेें जिन डोनाल्ड ट्रंप को 2020 के चुनाव में जनता ने गददी से उतार दिया था वे 2024 के चुनाव में लोगों को फिर इतने सलोने लगे कि इस बार उन्हीं को दोबारा चुन लिया। राष्ट्रपति चुनाव के समय ट्रंप की आयु 78 वर्ष की हो चुकी थी लेकिन इसके बावजूद अमेरिकन जनता को उनकी क्षमताओं में संदेह करने का कोई कारण नजर नही आया। अमेरिका में एक राष्ट्रपति को केवल दो कार्यकाल मिल सकते हैं चाहे वे लगातार मिले या एक-दो ब्रेक के बाद। अगर वहां के संविधान में तीसरा कार्यकाल और देने के लिए संशोधन की गुंजाइश हो तो शायद ट्रंप को एक और मौका देने में अमेरिकी जनता को गुरेज न हो। 2020 में जब ट्रंप पराजित हुए थे उस समय के प्रसंगों की जिन्हें याद हो वे मानेगे कि तब भी जनता ने बहुत स्पष्टता से उन्हें खारिज नही किया था। एक तरह से ट्रंप को जो सत्ता खोनी पड़ी थी उसमें तकनीकी पेंचों ने प्रमुख कारकों की भूमिका निभाई थी। इसीलिए चुनाव परिणाम में बहुत नैतिक बल नही था जिसके कारण ट्रंप दुस्साहसी हो गये थे। उन्होंने चुनाव नतीजों को झुठलाने की कोशिश करके देश को संवैधानिक संकट में धकेलने में कसर नही छोड़ी थी। अमेरिका किसी तरह से इस विपत्ति से उबर सका था। कहने का तात्पर्य यह है कि ट्रंप कितने ही गुस्ताख फैसले लेने के लिए बदनाम रहे हो लेकिन अमेरिकी जनमत का एक बड़ा अंश उनको पसंद करता है। पर इस लोकप्रियता के बावजूद ट्रंप अमेरिका में सिस्टम से ऊपर नही हैं।

ट्रंप की लोकप्रियता को लेकर अमेरिकी सिस्टम बेलिहाज
अमेरिका की अदालतें हो या वहां की मीडिया उसे अमेरिकी जनता में इतनी ज्यादा पकड़ का एहसास होते हुए भी उनकी निरंकुशता का लिहाज करना मान्य नही है। वर्तमान कार्यकाल में भी अमेरिका की अदालतों ने ट्रंप के उन फैसलों को जिन्हें उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा के प्रश्न के बतौर लागू करने की चेष्टा की थी पलटने में किसी तरह की भीरुता नही दिखाई है। अब भारत से तुलना करें! क्या मोदी राजनैतिक शुचिता में निष्ठा के तकाजे को पूरा करने के लिए सत्ता से बाहर होने का जोखिम उठाने को तैयार हो सकते हैं। यह सोचकर कि एक बार उन्हें हटाकर देखने के बाद भारत की जनता को भी अमेरिका के लोगों की तरह पछतावा हो सकता है और वह अगले चुनाव में उनकी वापसी के लिए पलक पावड़े बिछाये दिख सकती है।

क्या इंदिरा की तरह की वापसी है संभव
वैसे भारत में ऐसा हो चुका है। 1977 में लोगों ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने के लिए जितना बल पूर्ण धक्का दिया था ढाई साल बाद जब मध्यावधि चुनाव हुए तो उनके प्रति उससे बढ़कर उनको समर्थन दिखा डाला और 1980 में भारी जोश-खरोश से दोबारा उनकी ताजपोशी कर डाली। मोदी को अगर ऐसा होने का विश्वास हो जाये तो सत्ता में बने रहने के लिए उन्हें तमाम मर्यादाओं के निर्मम अतिलंघन की जरूरत महसूस न हो। अगर मोदी का आत्मविश्वास मजबूत होता तो 75 वर्ष की उम्र पूर्ण होने के बाद आज वे अपने बनाये नियम की आन के लिए सहर्ष खुद के इस्तीफे की पेशकश कर डालते। अगर उनको अपनी स्वीकृति और अपराजेयता का पक्का विश्वास होता तो ऐसा करके देश को एक नया तमाशा देखने का अवसर जरूर देते। यह अवसर होता लोगों के उनसे पद पर बने रहने के आग्रह के साथ उन्मत्त होकर सड़क पर उतर आने का। तब उनकी नैतिक छवि और मजबूत हो सकती थी। पर मोदी दिखावे के लिए भी यह रिस्क मोल लेने की हिम्मत नही दिखा सकते।

भागवत का व्यक्ति पूजा से परहेज
आज उनके जन्म दिवस पर लोगों को इंतजार था कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत का उनको बधाई स्वरूप कोई लेख मीडिया में आता है कि नहीं क्योंकि 11 सितम्बर को जब मोहन भागवत ने अपने जीवन के 75 वर्ष पूरे किये तो अखबारों में लेख छपवाकर मोदी ने उनका बहुत प्रशस्ति गान किया था। हालांकि इसके पहले ही मोहन भागवत की ओर से उनके लिए अभयदान आ चुका था जब उन्होंने कहा था कि न तो अपने लिए उन्होंने 75 वर्ष की आयु में रिटायर होने की बात कभी कही है और न ही किसी दूसरे के लिए उन्होंने ऐसी अपेक्षा की है। हालांकि पहले जैसे-जैसे मोदी जी का 76वां जन्मदिन करीब आ रहा था वैसे-वैसे मोहन भागवत 75 वर्ष की उम्र में रिटायरमेंट की व्यवस्था के पालन के लिए सुर तेज कर रहे थे। उनके अभियाननुमा इस आवाहन से मोदी जी की बढ़ती बेचैनी हर किसी की निगाह पकड़ रही थी। अंतिम समय में अंदरखाने जिस प्रकार से सहमति बनी हो जब मोहन भागवत ने कहा दिया कि उन्होंने 75 वर्ष की उम्र में रिटायरमेंट का मुददा किसी के लिए नही उठाया तब मोदी जी की जान में जान लौटी। मोदी जी की ऊर्जा और स्फूर्ति में कोई कमी नही है तो वे अभी भी अपने पदीय दायित्व का निर्वाह उसी मजबूती से कर सकते हैं जितना अभी तक करते आये हैं। पर सुमित्रा महाजन भी तो कहीं से श्लथ नहीं थीं, वरिष्ठता और खरेपन के नाते उनका विपक्ष तक में लिहाज था। इसलिए वे लोक सभा की श्रेष्ठतम अध्यक्ष के रूप में भाजपा का और पार्टी नेता होने के नाते मोदी का भी गौरव बढ़ा रहीं थीं। फिर भी मोदी ने उन्हें रिटायर करवा दिया। ऐसे कुछ और नेता भी हैं जिनकी चमक-दमक अभी तक बरकरार है लेकिन वे मोदी की ईर्ष्या की भेंट चढ़ गये। इस सिद्धांत के तहत कि भाजपा की मातृ संस्था संघ व्यक्ति पूजा में नहीं संगठन में विश्वास करता है। इसलिए अगर उसने 75 वर्ष की उम्र में रिटायरमेंट की परंपरा प्रवर्तित की है तो वह सबके लिए है। व्यक्ति आयेगा अपनी जिम्मेदारी निभाने के बाद चला जायेगा तो संगठन उसकी जगह लेने के लिए दूसरे को भेज देगा। एक व्यक्ति के बिना संगठन और देश अनाथ हो सकता है यह समाज को हीनता की भावना से ग्रसित करने का अक्षम्य अपराध है।

लोकतंत्र की मजबूती के पैमाने पर मोदी
लोकतंत्र की परिपक्वता का भी यही पैमाना है। लोकतंत्र कितना मजबूत हो रहा है इसका नपता उसकी संस्थायें हैं कि वे कितनी सुदृढ़ हैं। अमेरिका में ट्रंप के लिए बहुत चाहत है लेकिन वहां लोग तैयार है कि 2028 में नये चेहरे को आजमाना पड़ेगा। वहां चेहरे बदलते रहते हैं लेकिन सिस्टम नही लड़खड़ाता। अमेरिका की मजबूती और स्थिरता वहां के सिस्टम में निहित है। लेकिन यहां व्यक्तिवाद से सिस्टम को अतिक्रमित करने की रीति को प्रोत्साहन देकर देश को एक खतरनाक रास्ते पर धकेला जा रहा है। यह काम तो लोकतंत्र की शैशव अवस्था में स्वीकार्य हो सकता था लेकिन आज ऐसा करके उसके विकास को विसंगति से घेरा जा रहा है। यह और बड़ी बिडंबना है कि संघ की छत्र छाया में व्यक्ति पूजा के पोषण का यह विपर्यास चल रहा है जबकि संघ ने बहुत पहले व्यक्ति को नेपथ्य में करके संगठन की सर्वोपरिता की प्रणाली लागू कर दी थी। इस उलटबांसी के आगे संघ को समर्पण क्यों करना पड़ रहा है या यह केवल उसकी अंतरिम कार्रवाई है। संघ का अगला कदम क्या होगा इसके लिए भाजपा के नये अध्यक्ष के तौर पर किसका नाम तय होता है इस पर निगाह रखने की जरूरत है।
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