सुनहरी अर्थ व्यवस्था की बाजीगरी, हकीकत में किस कदर पसरा अंधेरा


तथ्य एक ही होते हैं। लेकिन एक वकील जिस मुवक्किल ने उसे खरीदा होता है उसके पक्ष को मजबूत करने के गुणा भाग के हिसाब से उनको व्यवस्थित करता है। विरोधी मुवक्किल का वकील भी इस्तेमाल तो उन्हीं तथ्यों का करता है लेकिन वे सूचनाएं हीं पहले पक्ष के वकील की दलीलों की धज्जियां उड़ाने का हथियार बन जाती हैं। एक खूब कही जाने वाली कहावत है उसी से ठंडा, उसी से गरम। पर पत्रकार वकील नही होता। वह तथ्यों और सूचनाओं की गहराई में जाकर उनकी निष्पत्तियों को टटोलता है। यह दूसरी बात है कि आज की पत्रकारिता वकीली पत्रकारिता बन गयी है। एक पक्षीय निष्कर्ष के प्रतिपादन के लिए तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने के हुनर में मीडिया वकीलों के भी कान काट रही है।
आज के अखबारों में एक सूचना प्रकाशित हुई है या कराई गयी है कि देश में चार वर्षों में करोड़पति बढ़कर 4.58 लाख से 8.71 लाख हो गये हैं। करोड़पतियों की संख्या में 90 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यह खबर इस बात को जताने के लिए प्रकाशित की गयी है कि देश में लोगों की बल्ले-बल्ले हो गयी है। बिना विस्तृत विवेचन के परोसी गयी यह खबर दरअसल पीआर वर्क है। मीडिया को इन तथ्यों के आधार पर देश में सुनहरा संसार का रूपक गढ़ने की बजाय पिछले कुछ दिनों पहले ही भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ, अनुभवी और विद्वान नेता डा. मुरली मनोहर जोशी द्वारा संघ के लिए देश की आर्थिक स्थिति पर प्रस्तुत की गयी 75 पृष्ठों की रिपोर्ट के बरक्स स्थिति को जांचना चाहिए था।
खबर में सबसे पहले तो यही तथ्य विश्वास करने लायक नही है कि देश में करोड़पतियों की संख्या केवल 8.71 लाख है। मीडिया के लोग तो बहुत अंदर तक की स्थितियों से वाकिफ रहते हैं लेकिन यह तो साधारण लोग जानते हैं कि राम नाम की लूट के इस दौर में छोटे-छोटे कस्बों तक में सैकड़ों की संख्या में करोड़पति तैयार हो चुके हैं। देश भर में इनकी संख्या 8-9 लाख नही 8-9 करोड़ होनी चाहिए। अगर सरकारी एजेंसियां इतने अंधेरे में हैं तो स्पष्ट है कि देश में बेनामी संपत्तियों की भीषण भरमार है जिसको उजागर करने में या तो सरकार की कोई दिलचस्पी नही है या सरकार बहुत नाकारा है जिसके कारण उसके हाथ इन संपत्तियों तक नहीं पहुंच पा रहे। सरकार इस मामले में इसलिए और हाथ-पैर नही चलाना चाहती क्योंकि वह भांप चुकी है कि तमाम इमोशनल कार्ड में जनता को फांसकर उसकी चेतना को इतना कुंद किया जा सकता है कि टैक्सों की भरमार के बावजूद लोग कहीं कोई बबंडर नही करेगें और करप्ट लोगों को छेड़े बिना सरकार तड़क-भड़क के विकास के लिए अपार संसाधन जुटा सकेगी। करोड़पतियों की सीमित संख्या ही सरकारी दस्तावेजों में दर्ज होने का एक और निष्कर्ष है कि जिनके पास अंधाधुंध कमाई करने के अवसर जुट रहे हैं वे उसके अनुरूप कर उत्तरदायित्व का निर्वाह नही कर रहे हैं। जब वे अपनी कमाई और संसाधन बहुत कम दिखायेगें तो जाहिर है कि अमीरों की संख्या सरकारी दस्तावेजों में नाम मात्र की ही दर्ज हो पायेगी।
डा. मुरली मनोहर जोशी की रिपोर्ट में सबसे बड़ा तथ्य यह रखा गया था कि देश में आम आदमी की आमदनी बिल्कुल नही बढ़ पा रही जबकि किसी देश की आर्थिक खुशहाली का सबसे वास्तविक पैमाना उसकी पर कैप्टा इनकम में प्रतिबिंबित होता है। कहने को जापान से जीडीपी दर में भारत आगे बढ़ गया है लेकिन प्रति व्यक्ति आय के पैमाने पर देखें तो भारत की स्थिति जापान के मुकाबले बहुत पीछे है। दुनियां के 50 देश प्रति व्यक्ति आय के मामले में भारत से आगे हैं। पर कैप्टा इनकम बढ़ाने में हमारी सरकार की कोई खास दिलचस्पी भी नही है। सरकारी नौकरियों की संख्या को संविदा और ठेका नौकरियों में बदलकर वह तो उल्टा कार्य कर रही है। फिर भी अमीर बढ़ रहे हैं तो उसकी वजह स्पष्ट है।
सरकारी तंत्र के लिए शोषण की बड़ी गुंजाइश में इसका रहस्य छुपा है। अगर सर्वे करा लिया जाये तो तमाम सरकारी विभाग ऐसे हैं जिनमें डेढ़-दो लाख रुपये महीने की सैलरी पाने वाले अधिकारी और उनके मातहतों के पास कई सौ करोड़ की संपत्ति है। यहां तक कि संविदा और आउट सोर्सिंग के द्वारा भर्ती कर्मचारी तक अपनी सरकारी मान्यता को भुनाने का अवसर हासिल कर लेते हैं। जमीनी स्तर से जो सच्चाइयां छनकर सामने आती हैं उनसे पता चलता है कि कई ग्राम पंचायतों के पंचायत मित्र तक अपने आपको करोड़पति बना चुके हैं। यह अवैध समृद्धि किसी दूसरे देश की लूट का परिणाम नही है जैसा कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी भारत में शासन हथिया लेने के बाद कर रहे थे। यह लूट तो इस देश की जनता जनार्दन से हो रही है और सरकारें है कि इसको होने दे रही है। राजनीतिक पदाधिकारी भी इस लूट के बड़े लाभार्थी हैं। देश प्रदेश के कई मंत्री ऐसे हैं जिनकी संपत्ति का श्रोत पूंछा जाये तो उनका गला सूख जायेगा पर कोई पूंछने वाला हो तब न। तमाम व्यापारी और ठेकेदारों की असाधारण बरक्कत के पीछे उनका काम नही है। समृद्धि की दिन दूनी, रात चौगुनी चढ़ाई तय करने वाले वे लोग हैं जिन्होंने जीएसटी से लेकर हर विधा की कर अदायगी को चकमा देने के नुस्खे ईजाद कर रखे हैं। लोगों में जागरूकता का इस कदर अभाव है कि वे यह नही देख पा रहे हैं कि यह लूट जितनी फलेगी-फूलेगी उतनी ही उनकी तबाही बढ़ती जायेगी। देश के पूरे अर्थशास़्त्र में एक ही फंडा काम कर रहा है पहले जनता पर अंधाधुंध टैक्स लादकर उसकी मेहनत की पूरी कमाई निचोड़ लेना इसके बाद सरकारी खजाने से विकास के नाम पर उस पैसे को निकालकर अधिकारियों और नेताओं द्वारा कमीशन के रूप में उसे अपनी जेब में डाल लेना। इस विलोमानुपाती प्रक्रिया का परिणाम स्पष्ट है जितने ज्यादा अमीर बढ़ेगें आम जनता से उतनी ही वसूली बढ़ते-बढ़ते उस चरम पर पहुंच जायेगी जहां अपना लहू बेचकर भी लोग देनदारी से नही उबर पायेगें।
ऐसी स्थिति में मीडिया को फरेब करने की बजाय अमीरों की बढ़ती संख्या के आंकड़ों के साथ उन लोगों की कहानियां छापनी चाहिए जिनके परिवार की हालत एक पीढ़ी पहले तक काफी हद तक खुशहाल थी लेकिन आज उनमें आर्थिक तंगी के कारण उस घर के लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं। यह खबरे प्रकाशित की जानी चाहिए कि एक रुपये में विश्व के सबसे बड़े रईसों को 1000 एकड़ से जयादा जमीन सौंपने वाली सरकार किसी सफल आम उद्यमी के प्रोत्साहन के लिए कितनी सुविधाएं दे पाई है। पूरी अर्थ व्यवस्था फरेब पर टिक कर रह गयी है जबकि अर्थ व्यवस्था की सेहत रचनात्मक उद्यमों के फलने-फूलने से पता चलती है जो देश में नदारत है। मीडिया वकीली पत्रकारिता करने की बजाय सही ढंग से अपना उत्तरदायित्व निभाये तो धृष्ट और मदांध हो चुकी सरकार को झकझोर कर पटरी पर चलने के लिए बाध्य कर सकती है। लेकिन उसका काम खबरों को सरकार के वोट बढ़ाने की डयूटी बजाने तक सीमित हो गया है तब उससे क्या अपेक्षा की जाये।

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