जाति व्यवस्था पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का सामयिक प्रहार


इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जातिवाद को खत्म करने के लिए फिर एक पैना और व्यापक फैसला सुना दिया है। कुछ दिनों पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक पुरानी याचिका पर प्रदेश सरकार से हिसाब-किताब मांगा था। 10 वर्ष से भी अधिक समय पहले दायर हुई इस याचिका में राज्य सरकार से राजनैतिक दलों के जातिगत सम्मेलनों पर रोक लगाने की मांग की गई थी। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर राज्य सरकार को कदम उठाने के निर्देश दिये थे। लेकिन इसके बाद भी आज तक राजनैतिक दलों द्वारा माइलेज के लिए जातिगत सम्मेलनों के आयोजन का ट्रेंड अपनाया जाना जारी है। इसके मददेनजर उच्च न्यायालय ने पिछले दिनों कहा था कि राज्य सरकार यह बताये कि अभी तक उसने इस तरह के सम्मेलनों की पाबंदी के लिए क्या प्रयास किये और फिर भी मनमानी होने पर क्या दंडात्मक कार्रवाई की। इसे लेकर राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में कोई रिपोर्ट दाखिल की है या नहीं यह स्पष्ट नही है।


सोशल मीडिया पर जातिवादी तांडव
इस बीच प्रवीण चैत्री नाम के एक शख्स ने जातिवाद के प्रयोग को लेकर एक याचिका इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर की। जिसकी सुनवाई करते हुए जस्टिस विनोद दिवाकर ने बल देकर कहा कि 2047 तक देश को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए जातिवाद को पूरी तरह समाप्त करना आवश्यक है। उन्होंने इसके लिए राज्य सरकार से कहा कि सोशल मीडिया का उपयोग जातिगत गौरव को उभारने और किसी जाति का महिमा मंडन करने से रोकने के लिए निवारक व्यवस्थायें की जायें। इसी क्रम में जस्टिस दिवाकर ने कहा कि पुलिस रिकार्ड से जाति के कालम को हटाया जाये और आरोपियों, संदिग्धों या प्रतिवादियों की जाति को बिना कानूनी आवश्यकता के दर्ज न किया जाये। उच्च न्यायालय ने उक्त प्रकरण की सुनवाई में जाति रोग पर नियंत्रण न हो पाने को लेकर अपनी बेचैनी का प्रकटीकरण किया है जो कि देश की सारी सही संस्थाओं और व्यक्तियों की चिंता के अनुरूप है।
व्यक्तिगत उपलब्धि नही हो सकती जाति की धरोहर
सैद्धांतिक स्तर पर देखा जाये तो देश का हर जागरूक नागरिक जातिवाद की खिलाफत करता मिलेगा लेकिन दोहरे स्तर पर जीना भारत के नागरिक समाज की एक बड़ी विशेषता है जिसका अपवाद यह विषय भी नही है। तर्कों की कसौटी पर परखें तो यह स्पष्ट है कि दुनियां का कोई विज्ञान किसी जाति या नस्ल के श्रेष्ठ होने की धारणा को मान्यता प्रदान नही करता न ही विज्ञान यह स्वीकार करता है कि किन्हीं जातियों में पैदा होने वाले सारे व्यक्ति निर्बुद्धि, बीमार और संस्कार हीन होते हैं। जो व्यक्ति किसी क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता का लोहा मनवाता है माना जाना चाहिए कि उसकी जाति या नस्ल कुछ भी होती उसे सर्वोपरिता प्राप्त करना ही था क्योंकि यह उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि है। लेकिन इस वैज्ञानिक सच को नकारने के लिए बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो व्यक्तिगत उपलब्धि को अपने जाति गौरव के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। यह बीमारी सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव के बाद चरम सीमा पर पहुंच गयी है। यहां तक भी गनीमत थी लेकिन उनकी इच्छायें तब तक तृप्त नही होतीं जब तक जाति व्यवस्था में हीन और अपवित्र ठहराये गये लोगों पर पैदाइशी अक्षम होने का टैग वे न मढ़ दें। सोशल मीडिया पर आरक्षण व्यवस्था से लाभान्वित जातियों के प्रति हिकारत दिखाने की बाढ़ इसी का दूसरा पहलू है। जाहिर है कि जो लोग जाति व्यवस्था के कारण 30 प्रतिशत बोनस अंक लेकर दुनियां में आते हैं उन्हें क्या पड़ी कि वे इसे मिटाने की बात करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारें।


सवर्ण नेताओं की नैतिक पहल
आजादी की लड़ाई में त्याग और बलिदान की भावना के प्राचुर्य के कारण सामूहिक नैतिकता ने उच्चतम स्तर प्राप्त कर लिया था उनकी अंतरात्मा को इस हथियाई हुई श्रेष्ठता का लाभ कचोटता था। इस कारण आजादी के शुरुआती दशकों में जातिवाद को मिटाने के ईमानदार प्रयास हुए। कमजोर जातियों के उत्थान के लिए उन्हें विशेष अवसर देने में सवर्ण जातियों के तब के नेताओं को आंतरिक सुख अनुभव होता था। इसलिए डा. राममनोहर लोहिया के साथ में मधु लिमये, राज नारायण, मधु दंडवते और जनेश्वर मिश्र जैसे नेताओं की भरमार रही जिन्होंने अपने वर्ग स्वार्थ से ऊपर उठकर पिछड़ों ने बांधी गांठ, सौ में पावें साठ जैसे नारे बुलंद किये। आजादी के पहले भी देखे तो नैतिक बड़प्पन के कारण ही 1927 में मनुस्मृति जलाने में उनके ब्राहमण सहयोगी सहस्रबुद्धे बढ़ चढ़ कर उनके साथ रहे। जनता पार्टी ने 1980 में जन संघ घटक के सर्वोच्च नेता अटल बिहारी बाजपेयी के जोर के कारण अनुसूचित जाति के उस समय के सबसे बड़े नेता जगजीवन राम को प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करते हुए लोकसभा का चुनाव लड़ा था जो कि परंपरावादी अनुदार जमात के बहुत बड़े उदारवादी मोड़ का प्रतीक था। यह उस समय के उदात्त माहौल का परिणाम था जिससे देश के लोकतंत्र के अत्यंत जाज्वल्यमान भविष्य की कल्पना संजोयी जाने लगी थी।


जाति व्यवस्था का पुनरूत्थान
लेकिन बिडंबना यह है कि जाति व्यवस्था के फिर से सिर उठाने की शुरूआत दूसरे सिरे से हुई जब मुलायम सिंह जैसे नेता ने पार्टी के पिछड़ा वर्ग सम्मेलन में अपने गुरु डा. लोहिया के जाति तोड़ों के नारे को कूड़ेदान में फेंककर लोगों से कहा कि वे गर्व के साथ नाम के साथ अपनी जाति लिखें और बोलें। उन्होंने दलितों और पिछड़ों के बीच खाई को बढ़ाने के लिए बाबा साहब अंबेडकर को अपमानित करने वाले शब्दों से भी नवाज दिया था। अखिलेश जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो मुलायम सिंह के ही दबाव के कारण उन्होंने प्रमोटी दलित अफसरों को रिवर्ट कर दिया था। अकेले मुलायम सिंह की ही बात नही है बहुजन समाज पार्टी की नेत्री मायावती ने जातिगत भाई चारा कमेटियां बनाकर लोगों में जातिगत पहचान को पुनर्जीवन देने का काम कर डाला जबकि उनके प्रेरणा सा्रेत बाबा साहब अंबेडकर दलितों से एक शुरूआत करना चाहते थे कि सारी अनुसूचित जातियां अपनी अलग-अलग पहचान मिटाकर बौद्ध पहचान में अपने को एक सूत्र कर लें। इसके बाद अन्य जातियों को भी इस पहचान में समेटने की योजना उनके दिमाग में थी। लेकिन मायावती ने तो दलितों की एकता तक को दूध की तरह फाड़ दिया।


भाजपा का आपाद धर्म
2014 की भारतीय जनता पार्टी ने इस प्रतिगति की तीव्रता को चरम रूप पर पहुंचा दिया। कहने को तो उसने तिरस्कृत जाति के नेता को प्रधानमंत्री पद सौंपा और इसके बाद दो बार राष्ट्रपति के पद पर दलित-आदिवासी समुदाय की शख्सियतों को विराजमान किया लेकिन इन परिवर्तनों को उसके शब्दकोष के आपाद धर्म के निहितार्थ से समझे तो इनकी तासीर कुछ दूसरी ही नजर आयेगी। इनकी आड़ में जातिवादी दमन के एक नये युग का सूत्रपात आक्रामक ढंग से किया जा रहा है। जिस सनातन के आदि गुरु शंकराचार्य प्रतिपादित करते हैं कि धर्म का लक्ष्य अपने अंदर के ब्रहम रूप को पहचानना है जो सारे जड़ चेतन का एकमेव सत्य है, दुनियां का शेष सब कुछ प्रवंचना है उस धर्म के नाम पर लोगों के बीच ऊंच-नीच तलाशना और इस भेदभाव को सनातन का मौलिक तत्व सिद्ध करना इससे बड़ा धर्म द्रोह दूसरा कोई हो नही सकता। सारे वे धर्म शास्त्र और प्रतीक महिमा मंडित किये जा रहे हैं जो भेदभाव की इस धारणा के श्रोत स्वरूप हैं। देश के बहुसंख्यक समाज को दोयम दर्जे की स्थिति स्वीकार करने की जबर्दस्ती के लिए आस्था का नाम देकर शहजोरी की जा रही है। इसके लिए तथा कथित संतों की फौज मैदान में उतार दी गयी है। सामाजिक एकता के लिए जिनके विष वमनकारी वक्तव्य कहर ढा रहें हैं और जो उस अपमान का प्रतिरोध करे उसके लिए आक्रामकता का प्रदर्शन यह अच्छी स्थितियां नहीं हैं।


न्यायपालिका दिखाये हिम्मत
राजनेताओं से तो उम्मीद नही बची कि वे इस स्थिति को समाप्त करने के लिए नव जागरण की कोई पहल करें। लेकिन अच्छी बात है कि अदालतें कर्तव्य बोध से पीछे नही हट रहीं। इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का हस्तक्षेप प्रशंसनीय है। वर्तमान सरकार जो बटोगे तो कटोगे की बात करती है कम से कम उसे तो अदालत के निर्देशों के निष्ठापूर्ण क्रियान्वयन की पहल करनी चाहिए। उसे उन लोगों के विषदंत तोड़ने का साहस दिखाना चाहिए जो देश के बहुसंख्यक वर्ग के लिए आप्रासंगिक हो चुकीं स्मृतियों में वर्णित क्रूर प्रताड़नाओं को जारी रखने की वकालत करने पर उतारू हैं।

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