इधर जायें या उधर जायें, आजम फसे अजाब में


फायरब्रांड मुस्लिम नेता आजम खां मंगलवार को 23 महीने बाद जेल से रिहा हो गये। लेकिन अब इस बात पर कयासबाजी हो रही है कि आजम खां समाजवादी पार्टी में रहेगे या नहीं। उन्हें भाजपा के नेता आकाश सक्सेना की रिपोर्ट पर गिरफ्तार किया गया था और बाद में उनकी शिकायत पर उन्हें रामपुर जेल से सीतापुर जेल शिफ्ट कर दिया गया था। इस बीच उनकी पत्नी तंजीम फातिमा और बेटा अब्दुल्ला आजम को भी अन्य मामलों में जेल के अंदर कर दिया गया था। आजम के साथ अब्दुल्ला भी रामपुर जेल से हरदोई जेल में भेज दिये गये थे। हालांकि आजम की जमानत के पहले ही तंजीम फातिमा और अब्दुल्ला की रिहाई हो चुकी थी।


आजम अभी पत्ते खोलने को नही तैयार
खास बात यह रही कि आजम खां के जेल से छूटने के अवसर पर सीतापुर जेल के बाहर सपा का कोई बड़ा नेता उनकी अगवानी के लिए नही पहुंचा। आजम भी हल्ला-गुल्ला किये बिना सीतापुर से सीधे रामपुर के लिए रवाना हो गये। उनकी प्रतीक्षा में खड़े मीडियाकर्मियों से उन्होंने जरूर संक्षिप्त वार्ता की। इसमें उन्होंने जेल में रहने के दौरान उन्हें बाहर निकालने के लिए जिन्होंने भी प्रयास किया उन सबके लिए दुआएं मांगीं। राजनैतिक सवालों पर सपा के प्रति उनकी खिन्नता साफ झलकी। लेकिन उन्होंने यह स्पष्ट नही किया कि वे पार्टी छोड़ सकते हैं या नही और न ही उन्होंने बसपा में शामिल होने की संभावनाओं को लेकर कोई स्पष्ट उत्तर दिया। दूसरी ओर सपा नेताओं ने अपनी-अपनी जगह से उनकी रिहाई पर खुशी जताई। जाहिर है कि समाजवादी पार्टी उन्हें अपने से जोड़े रखना चाहती है।


सपा में आजम को लेकर माथापच्ची
अगर सपा में बने रहने या छोड़ने को लेकर आजम खां के सामने कई दुविधाएं हैं तो सपा भी कम अजाब में नही फसी है। भाजपा की ओर हिन्दुओं का ध्रुवीकरण रोकने के लिए सपा भी हिन्दू प्रेम में उसके साथ प्रतिस्पर्धा करने की रणनीति अख्तियार किये हुए है। इसके तहत कभी अखिलेश कलावा बांधकर डिम्पल के साथ हवन करते हुए अपने फोटो खिचवाते हैं तो कभी इटावा में विष्णु का भव्य मंदिर बनाने की सौगंध उठाते हैं। ऐसे में आजम खां की छाया से बचना भी उनकी मजबूरी बन गया है। लेकिन सपा का नेतृत्व यह भी नही चाहता कि आजम खां उसकी मुखालफत करें। स्पष्ट है कि सपा जानती है कि मुस्लिम समर्थन के बिना उसका काम चलने वाला नही है और मुसलमानों की हमदर्दी वर्तमान में जबर्दस्त तरीके से आजम खां से जुड़ी हुई है। अगर मुसलमानों को यह लगा कि सपा आजम खां के साथ यूज एण्ड थ्रो नीति अपना रही है तो वे सपा से मुंह मोड़ सकते हैं। इसलिए सपा चाहती है कि आजम खां को अपने साथ बने रहने के लिए मनाया जाये लेकिन उसकी मंशा यह भी है कि वे लो प्रोफाइल में रहें। इसमें उसे बड़ा नट कौशल दिखाने की जरूरत पड़ रही है।


आजम के मलाल की वजह
उधर आजम खां भी कम दुविधा में नही हैं। उन्हें इस बात का बहुत मलाल है कि जब उन पर संकट टूटा तो सपा ने प्रतिरक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर ली। इसके कारण उनके लिए सड़कों पर कोई उग्र लड़ाई नही लड़ी गयी। फिर भी उनके सामने सवाल यह है कि जायें तो जायें कहां। अगर वे बसपा में जाते हैं तो मायावती क्या उनके तेवरों को झेलेगीं। जब आरिफ मोहम्मद खान उनसे नही निभा पाये तो वे कैसे निभा सकते हैं। दूसरे भाजपा के दमन चक्र में पिसने से मुसलमानों के बीच वे मसीहा बन चुके हैं जबकि मुसलमान बसपा को संदिग्ध निगाह से देख रहे हैं। मायावती भाजपा से लड़ने की कोई कोशिश न कर विपक्षी खेमे को नुकसान पहुंचाने की कवायद हरदम करती रहती है। यही नही वह 2024 के लोक सभा चुनावों के परिणामों के बाद मुसलमानों की वफादारी पर टिप्पणी कर चुकी हैं। उन्होंने कहा था कि उन्होंने टिकट देने में मुसलमानों को बहुत प्राथमिकता दी फिर भी उन्हें मुसलमानों का साथ नही मिला। इसलिए भविष्य में वे मुसलमानों को वरीयता देने के बारे में नये सिरे से सोचेगीं। मुसलमानों ने उनके इस कथन में अपने को जलील किये जाने की बू संूघी जिसके कारण उनका मन मायावती को लेकर बहुत खटटा हो गया है। अगर आजम खां इन परिस्थितियों में मायावती के पाले में जाते हैं तो मुसलमानों में वे भी संदेह के दायरे में आ जायेगे। बताया जा रहा है कि कांग्रेस से भी आजम खां के लिए प्रस्ताव आ रहे हैं। लेकिन कांग्रेस क्या सपा को नाराज करने की दिलेरी दिखा सकती है, एक तो सवाल यह है। दूसरा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जमीन बिल्कुल नही बची है। राहुल गांधी के प्रति लोगों की जो हमदर्दी बढ़ रही है उसे भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कैश नही करा पायेगी। राहुल गांधी जितना भाजपा को दरका रहे हैं सपा को उतना मुनाफा हो रहा है क्योंकि लोग भाजपा का परिणामकारी विरोध चाहते हैं। लोग चाहते हैं कि अगर वे खिलाफ में वोट करें तो भाजपा के खिलाफ ठोस नतीजा सामने आना चाहिए।


आजम की फेसवैल्यू पर लटटू हुए मुलायम
आजम खां के अगले राजनैतिक कदम को समझने के लिए उनके पॉलिटिकल कैरियर की हिस्ट्री पर नजर डालनी होगी। आजम खां राजनीतिक व्यक्ति नही थे जिस कारण समाजवादी या अन्य किसी राजनैतिक दर्शन से उनका कोई लेना देना नही था। उनकी फेसवैल्यू बनी उनके नाम से प्रचारित किये गये उस भाषण की वजह से जिसके मुताबिक उन्होंने 1986 में एक सभा में भारत माता को डायन करार दे दिया था। अब इसमें कितनी सच्चाई थी या अगर उन्होंने कहा भी था तो उसका संदर्भ क्या था इस पर जाये बिना आज जैसे साम्प्रदायिक अखबारों ने इस मुददे को इतना तूल दे दिया कि मुसलमानों के बीच आजम खां रातों-रात बहुत मजबूत चेहरा बन गये और गुण ग्राहक मुलायम सिंह की नजरों में चढ़ गये। मुलायम सिंह उनको अपने साथ जोड़ने के लिए आतुर हुए और उनको इतनी तवज्जो दी कि वे मुलायम एण्ड कंपनी में नंबर दो की हैसियत पर गिने जाने लगे। इसी कारण 1997 में जब मुलायम सिंह ने केंद्र की राजनीति में रहने का फैसला किया तो उत्तर प्रदेश में नेता प्रतिपक्ष के रूप में पार्टी की बागडोर आजम खां को सौपने के लिए उन पर बड़ा दबाव था। लेकिन मुलायम सिंह ने उस समय उन्हें गच्चा देकर अपने भाई शिवपाल सिंह को यह कमान सौंप डाली।


जब आजम खां बन गये गले की हडडी
इसी दौरान सोनिया गांधी ने राजनीति में आने का फैसला कर लिया। उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को खड़ा करने के लिए सलमान खुर्शीद को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। मुलायम सिंह इस फैसले से बुरी तरह चिढ़ गये थे। उन्होंने सलमान खुर्शीद की बखिया उधेड़ने के लिए उनकी ईसाई पत्नी लुईस खुर्शीद को निशाने पर ले लिया था। तब कांग्रेस ने जबाव में यही मुददा उठा दिया कि अगर आप मुसलमानों के इतने हमदर्द हैं तो आजम खां को आपने नेता प्रतिपक्ष क्यों नही बनाया। इस सवाल का जबाव देने में मुलायम सिंह को पसीने छूट गये थे। आजम खां को भी मुलायम सिंह से उनके परिवार मोह को लेकर कोफ्त हुई थी। लेकिन फिर भी उनका साथ नही छूटा। 2004 के लोक सभा चुनाव में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुखारी से आजम खां की अदावत हो गयी तो मुलायम सिंह ने शाही इमाम के लत्ते ले डाले। उनका यह बयान बहुत चर्चित रहा था कि शाही इमाम अपनी इमामत करें सियासत हमें करने दें। वैसे शाही इमाम से मुलायम सिंह को पुराना हिसाब-किताब भी चुकता करना था। 1991 के चुनाव में जो जनता दल टूटने के बाद हुआ था वीपी सिंह और मुलायम सिंह के बीच मुसलमान वोटों की दावेदारी को लेकर बड़ी जंग छिड़ी थी। इसमें शाही इमाम वीपी सिंह के साथ खड़े हो गये थे जिससे मेरठ मंडल की सीटों पर मुलायम सिंह की पार्टी का सफाया हो गया था। उत्तर प्रदेश में अन्य सीटों पर भी मुलायम सिंह को काफी नीचा देखना पड़ा था। फतेहपुर में मुलायम सिंह ने वीपी सिंह को हराने के लिए एक मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा कर दिया था तो भी मुसलमान वोट वीपी सिंह के पक्ष में ही पड़े थे। अपने इस अपमान को मुलायम सिंह भूल नही पाये थे। इसलिए मौका मिला तो उन्होंने शाही इमाम का मान-मर्दन करने में कोई कसर नही छोड़ी लेकिन प्रत्यक्ष में उन्होंने आजम खां पर बहुत बड़ा एहसान डाल दिया था।


अमर ने रंगीन नजारे दिखाकर मुलायम को किया मुटठी में

इसके बावजूद 2009 आते-आते मुलायम सिंह और आजम खां के बीच खुलेआम ठन गयी। उस दौर में मुलायम सिंह पर अमर सिंह का रंग चढ़ चुका था जिन्होंने नेताजी को वे नजारे दिखा डाले थे कि नेताजी को कुछ और सूझना बंद हो गया था। इस बहकावे में मुलायम सिंह ने पहली बार रामपुर की राजनीति में आजम खां की राय को दरकिनार कर जयाप्रदा को लोकसभा का टिकट अमर सिंह के कहने पर दे दिया। इतना ही नही उन्होंने इस चुनाव में भाजपा से बगावत कर अलग पार्टी बना चुके कल्याण सिंह से हाथ मिलाने की हिमाकत कर डाली। रूठे आजम खां ने मुलायम सिंह से बोलचाल बंद कर दी। जब लोकसभा के चुनाव परिणाम सामने आये और मुलायम सिंह 36 सीटों से सिमटकर 23 सीटों पर आ गये तब उनकी अक्ल ठिकाने आ सकी। 2012 के विधान सभा चुनाव परिणामों के बाद नेताजी अपने सुपुत्र अखिलेश को उत्तर प्रदेश के राज सिंहासन पर अपने जीते जी बैठा देखने के अभिलाषा तमाम पापड़ बेलकर पूरी कर सके। हालांकि पहले आजम खां भी अखिलेश के नाम का समर्थन नही कर रहे थे लेकिन बाद में उन्होंने समझा कि समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह की पारिवारिक संपत्ति है इसलिए उसका उत्तराधिकार अखिलेश को मिलना ही था। इस आंकलन के बाद आजम खां अखिलेश के प्रति नरम हो गये। दूसरी ओर अखिलेश को चाचा शिवपाल के तीरों से बचने के लिए एक ऐसे बुजुर्ग का हाथ चाहिए था नेताजी भी जिसकी बात आसानी से काटने का हौसला न रखते हों। इसलिए अखिलेश ने सरकार चलाते समय उनके सामने सरेंडर कर दिया।


मुजफ्फर नगर का दंगा बना टर्निंग प्वाइंट
इसका दुष्परिणाम उन्हें मुजफ्फर नगर के दंगों के समय भोगना पड़ा। पहले दिन जब खून-खराबा हुआ तो तत्कालीन डीएम और एसपी ने सिचुयेशन बहुत अच्छी तरह संभाल ली थी। दंगा एक गांव तक की घटना के रूप में सिमट कर रह गया था पर आजम खां बीच में ही अवतरित हो गये। उन्होंने अपनी टांग फंसाकर हालात बिगाड़ दिये। पहले तो तत्कालीन डीएम-एसपी का ट्रांसफर करा दिया गया। इसके बाद हिंदुओं के खिलाफ इकतरफा कार्रवाईयां हुईं जिससे दंगा गांव-गांव में फैल गया। इसके चलते 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भारी ध्रुवीकरण हुआ जिसकी दम पर भाजपा ने 80 में से सहयोगी दलों सहित 75 लोकसभा सीटे जीत लीं। मोदी की सरकार बनने के पीछे सबसे बड़ा हाथ उत्तर प्रदेश की सीटों का रहा। खुद भाजपा वाले तक इतनी सीटे मिलने का अंदाजा नही लगा पाये थे। उत्तर प्रदेश में भाजपा नेताओं को 30-35 से ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद नही थी। इतनी सीटें अगर मिलती तो भाजपा अपनी दम पर बहुमत प्राप्त करने से पीछे रह जाती। राजनाथ सिंह जो उस समय पार्टी के अध्यक्ष थे उम्मीद लगाये बैठे थे कि भाजपा को गठबंधन सरकार बनानी पड़ेगी जिसमें नीतिश कुमार सहित सारे सहयोगी दल मोदी के नाम को नकार देगें इसलिए सेहरा उनके सर पर बांध दिया जायेगा। पर आजम चचा ने सारा खेल बिगाड़ दिया।

मुलायम के लिए आजम को बुत परस्ती भी हुई मंजूर
इसके बाद में भी आजम का जादू सपा में बरकरार रहा। उन्होंने 22 नवम्बर 2014 को रामपुर में मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन बड़े पैमाने पर मनाया। लंदन से आयातित विक्टोरिया बग्घी में मुलायम सिंह की शाही यात्रा निकलवाई, रात में उनका 75 फुट लंबा केक कटवाया, शाम को हंसराज हंस और सबरी ब्रदर्स की संगीत संध्या कराई। व्यक्ति पूजा का इतना तड़कीला-भड़कीला आयोजन इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ था लेकिन अपने आप को पक्का मुसलमान कहने वाले आजम खां का दिल इस अय्याशी पर बिल्कुल नही कचोटा। पर आजम खां को पता नही था कि वे किस तरह अपने ही लिए कुआं खोद रहे थे। मुलायम सिंह तो दिन बदलते ही हाथ धोकर निकल लिये। मोदी के उभार के समय वे दिल्ली की राजनीति कर रहे थे जबकि मोदी के सरोकार मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात तक सीमित थे। ऐसे में यह नही माना जा सकता कि मुलायम सिंह का दलगत राजनीति से अलग नरेंद्र मोदी के साथ कोई निजी रिश्ता बन पाया होगा। बल्कि मुसलमानों को खुश करने के लिए मुलायम सिंह पानी पी-पी कर दिन रात मोदी को कोसते थे। लेकिन उन्हीं मोदी को अपने पौत्र तेजप्रताप उर्फ तेजू की शादी में उन्होंने विशेष मेहमान के रूप में बुलाकर उनके लिए पलक-पावड़े बिछा दिये। उस समय आजम खां और मुसलमानों पर क्या गुजरी होगी। इतना ही नही 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए मुलायम सिंह ने संसद के अंदर नरेंद्र मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद दे डाला।


अंत भला सो सब भला
तो मुलायम सिंह के मुस्लिम प्रेम की यह परिणति अंत भला सो सब भला की तरह हुई। लेकिन आजम खां को भाजपा ने नही बख्शा। उन पर अकेले रामपुर में 100 ज्यादा आपराधिक मुकदमें लाद दिये गये। आजम खां फिलहाल जमानत पर बरी तो हो गये हैं लेकिन अभी यह नही कहा जा सकता कि वे कितने दिन बाहर रहेगें। बताया जा रहा है कि उनके 3 दर्जन से ज्यादा मुकदमें फैसले पर हैं। इसलिए हो सकता है कि जल्द ही उनको फिर अंदर हो जाना पड़े। पर भाजपा भी शायद इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहती है। उसे यह गुणा भाग करना है कि अब आजम खां के अंदर रहने से लाभ है या बाहर रहने से। अगर वे बाहर रहेगें तो सपा के खिलाफ उनका गुस्सा भड़केगा क्योंकि सपा पहले की तरह उन्हें फ्रंट लाइन पर खेलने की इजाजत नही देगी। इसमें भाजपा के पक्ष में यादवों तक का ध्रुवीकरण हो जाने का रिस्क जो है। ऐसे में उपेक्षा अनुभव कर आजम खां ने कुछ विषवमन कर दिया तो भी सपा की आफत है। उनके बयान से मुसलमान बहक सकते हैं। अगर आजम खां बसपा में चले जाते हैं तब तो भाजपा की बल्ले-बल्ले है। चुनौती के तौर पर भाजपा बसपा को किसी गियर में नही मानती। अलबत्ता बसपा को वे जितना मुस्लिम वोट दिला पायेगें उतना सपा की ताकत क्षीण होगी, भाजपा जिसकी तलबगार है।
धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के लिए बड़ा सबक
बहरहाल आजम खां का मामला धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए एक सबक है। धर्मनिरपेक्षता का मतलब न तो हिंदू तुष्टीकरण है और न मुस्लिम तुष्टीकरण। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है राजनीति की ऐसी दिशा जो समाज को दकियानूस होने से रोके तांकि दुनियां के साथ तरक्की में हम कदम होकर आगे बढ़ने में देश के लिए धर्म की गलत समझ कोई रुकावट पैदा न कर सके। अगर मुलायम सिंह की नीति और नीयत साफ होती तो पहले ही दिन वे हिंदुओं को चिढ़ाने वाले आजम खां को अपना सियासी साथी बनाने में परहेज करते। उन्होंने आजम खां को ही नही अन्य चेहरों में भी पॉलिटिकल मुस्लिम उभारने की बजाय अतीक खां आदि को अपनाया क्योंकि उन्हें था कि राजनीतिक गुण वाले मुसलमान आगे करने पर उनकी वंश परंपरा के लिए खतरा हो सकता है। कोई क्षमतावान मुसलमान अपनी प्रखरता से पार्टी में इतना आगे बढ़ सकता है कि पार्टी उसी का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाये। उधर अखिलेश अब हिंदू तुष्टीकरण में फंसे हुए हैं इसलिए उनसे भी देश को दकियानूसी गडडे में गिरने से रोकने के मामले में उम्मीद नही पाली जा सकती। इस्लाम जगत में धर्मोन्माद के कारण घटित हो रहीं विनाश लीला से हमारे नेता कोई सबक सीखने को तैयार नही हैं। अन्य चीजों में उन्हें पश्चिमी जीवनशैली बहुत लुभाती है लेकिन धर्म और राजनीति के बीच उन्होंने किस तरह संतुलन बना रखा है इससे हमारे नेता कुछ नही सीख पा रहे हैं।


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