इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एकल पीठ की व्यवस्था के बाद जातिगत पहचान के सार्वजनिक प्रदर्शन को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अबिलंब शासनादेश जारी कर दिया जबकि माना यह जाता है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने जातिगत गौरव को लेकर बहुत चैतन्य रहते हैं। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा भी था कि उन्हें इस बात पर बहुत गर्व है कि उनको क्षत्रिय समाज में जन्म मिला जिसमे जन्म लेकर ईश्वर ने भी अपने को धन्य माना। उनके शब्द कुछ और हो सकते हैं लेकिन अपने जाति गौरव का बखान करते समय इन्टरव्यू में जो उन्होंने कहा उसका भाव यही था। आगरा के सांसद रामजी लाल सुमन ने राणा सांगा के बारे में कुछ ऐसा मत व्यक्त कर दिया था जो जाति विशेष के लोगों को नही सुहाया था। इसकी प्रतिक्रिया में करणी सेना ने आगरा में जो तांडव किया माना जाता है कि उसमें योगी आदित्यनाथ की पूरी सहमति थी। नियुक्तियों और महत्वपूर्ण पदों पर पोस्टिंग के मामले में भी ऐसे तथ्य सामने आते रहते हैं जिनसे पता चलता है कि योगी आदित्यनाथ अपनी जाति को लाभ के मामले में वरीयता देते हैं। लाभ के मामले में ही नही हाथरस में दलित किशोरी के साथ हुए दुष्कर्म के जघन्य मामले में एक वर्ग ने उन पर इंसाफ के क्षेत्र में भी जातिगत पक्षपात से अपने को विलग न कर पाने का आरोप लगाया था। इसी कारण योगी आदित्यनाथ की उच्च न्यायालय की मंशा को फलीभूत करने में तत्परता को विचित्र माना गया और तह में जाकर इसकी पड़ताल की जरूरत महसूस की गयी। यह प्रयास अभी जारी है।
भाजपा के नेताओं को अपनी ही पार्टी से मलाल


लेकिन योगी द्वारा जारी किये गये शासनादेश से ऊपरी तौर पर ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया समाज के विचलित होने की प्रतिक्रिया सामने नही आयी। इसकी बजाय विरोध के सुर उस खेमे से आये जिसे जाति व्यवस्था के कारण सदियों तक भेदभाव, अन्याय, दमन और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। इन जातियों की छोटी-छोटी राजनैतिक पार्टियां उत्तर प्रदेश में सक्रिय हैं जिनसे भाजपा ने गठजोड़ कर रखा है। जबकि भाजपा के अपने ही लोग इन पार्टियों को महत्व दिये जाने से नाराज नजर आते हैं। मसलन कुर्मी समाज को लें उसमें भाजपा के अंदर स्वतंत्रदेव सिंह जैसे कददावर नेता हैं तो सवाल पूंछा जाता है कि इसके बावजूद भाजपा को क्या गरज है कि वह अनुप्रिया पटेल के नखरे उठाये। अपनी पार्टी को संजय निषाद को तेल लगाते देख भाजपा के निषाद कार्यकर्ता दुखी रहते हैं। उनका कहना है कि गोरखनाथ पीठ को निषाद समाज अपना सगा समझता है उसके पीठाधीश्वर मुख्यमंत्री बने हुए हैं तो भी भाजपा निषादों के समर्थन के लिए दूसरी पार्टी के छुटभैइया नेताओं का मुंह तांके इससे शर्मनाक कुछ नही हो सकता। ओम प्रकाश राजभर को जरूरत से ज्यादा सिर पर चढ़ा रखने की शिकायत भाजपा के तमाम नेता करते हैं।


मुख्यमंत्री की तत्परता का रहस्य
सहयोगी दलों के ये सारे नेता मुख्यमंत्री के शासनादेश की खिलाफत करने के लिए सामने आ गये। समाजवादी पार्टी व अन्य दलों ने भी इस शासनादेश का विरोध किया है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दी गयी व्यवस्था के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में जाने तक की धमकी विरोध करने वाले कुछ नेता दे चुके हैं। यह उलटबासी राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक पहेली की तरह है। जो जाति व्यवस्था उनके अपमान की सूचक रही है, जिसके कारण उनके पुरखों ने अभिशप्त जीवन गुजारा है उसके प्रति अब उनमें मोह क्यों उमड़ रहा है। यह सवाल जायज है। क्या मुख्यमंत्री की तत्परता में उन्हें कोई रहस्य दिखायी दे गया है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है यह कहावत यूं ही नही गढ़ी गयी। वंचित शोषित समाज आज की तारीख में बहुत जागरूक हो चुका है जिसके कारण वह किसी गफलत का शिकार नही होना चाहता। कुछ दिनों पहले न न करते मोदी सरकार ने बकाया पड़ी जनगणना में जातिगत गिनती के लिए सहमति देने की घोषणा की थी। यह कहने की जरूरत नही है कि सरकार की यह सहमति खुशी-खुशी नही थी बल्कि राहुल गांधी द्वारा चलाये गये अभियान से बने जन दबाव का परिणाम थी। लेकिन सरकार के अंदर का कपट अभी चुका नही है। क्या योगी को इलाहाबाद हाईकोर्ट की व्यवस्था में उम्मीद की कोई किरण दिखायी दे गयी है। जाति के उल्लेख पर रोक का यह सिलसिला जनगणना में जातियों की गिनती पर भी तो सवार हो जाना चाहिए। इसका तात्पर्य है कि न्याय पालिका की आड़ लेकर यथा स्थितिवादी शक्तियां जातिगत जनगणना से पल्ला झाड़ने की सोच रहीं हैं। इसी अनुमान ने पिछड़ी जातियों के दलों को सतर्क कर दिया है।


आरक्षण से पार पाने का मिला अच्छा जरिया
उन जातियों का कहना है कि जाति के उल्लेख पर रोक का शासनादेश उनकी पहचान खत्म करने वाला है जिससे आरक्षण आदि के उनके अधिकार प्रभावित हो सकते हैं। यह आशंका भी बेतुकी नही है। हाईकोर्ट ने कहा है कि सरकारी दस्तावेजों में पक्षों की जातियां दर्ज करना बंद की जायें। इसकी व्याख्या विस्तार स्वरूप में देखें तो जातिगत प्रमाण पत्र जारी करना भी बंद करना होगा क्योंकि यह भी सरकारी प्रमाण पत्र है। बिना जाति प्रमाण पत्र के एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण की नौकरियां मिल नही सकती। तब सरकारी नौकरियों में केवल एक आरक्षण लागू रह पायेगा ईडब्ल्यूएस आरक्षण। हुआ करें एससी, एसटी और बैकवर्ड के लोग आर्थिक रूप से विपन्न लेकिन ईडब्ल्यूएस का प्रमाण पत्र हम उन्हें नही लेने देगें यह बात अभी तक के अनुभव से सिद्ध है। यह प्रमाण पत्र एक छलावा है जिसे असंवैधानिक होते हुए भी इसी कारण लागू किया गया है कि अंततोगत्वा मूल आरक्षण के प्रावधान इसमें विसर्जित करके एकमेव इसी आरक्षण को मान्यता देने का रास्ता खोला जाये।


दशहरे पर होगी पहली परीक्षा
तत्काल में मुख्यमंत्री के शासनादेश की परीक्षा दशहरे के दिन होने वाली है। परंपरागत रूप से क्षत्रिय समाज के बैनर तले दशहरा मिलन समारोह आयोजित होते हैं। हालांकि यह पूरे हिंदू समाज का प्रमुख त्यौहार है। इस त्यौहार पर से जातिवाद की छाप मिटाने में योगी के शासनादेश से कोई मदद ली जायेगी। क्या योगी अपने प्रशासन से कहेगें कि वे दशहरा मिलन के उत्सव जाति विशेष के बैनर से होने को रोके और लोगों को प्रेरित करें कि पूरे हिंदू समाज की भागीदारी सुनिश्चित करते हुए यह त्यौहार मनाया जाये। आगे परशुराम जयंती का आयोजन जो ब्राहमण अंहकार के प्रदर्शन का उत्सव बन चुका है उसकी रुपरेखा भी इसी के अनुरूप निर्धारित करने के लिए कदम उठाया जाये। बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी। क्या जगन्नाथ मंदिर जैसे देवालयों में दलितों के प्रवेश को रोकने जैसी व्यवस्था को अदालती हस्तक्षेप से अमान्य किया जायेगा। स्पष्ट बात है कि किसी धर्म विशेष के पूजा स्थल में गैर धर्म के प्रवेश को ही वर्जित किया जा सकता है न कि उसी धर्म के किसी अंग पर ऐसी रोक लगाने का कोई औचित्य है। जो लोग फिर भी यह विचार रखते हैं कि मंदिर की पवित्रता के लिए दलितों पर यह प्रतिबंध जरूरी है तो उन्हें अपनी व्यवस्था तार्किक बनाने के लिए मान लेना चाहिए कि दलित उनके धर्म का अंग नही है।
चोलाधारी संतों के खिलाफ कुछ करने का साहस है योगी में?
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उन तथाकथित संतों के खिलाफ भी इस शासनादेश के इस्तेमाल का साहस दिखाना चाहिए जो कहते हैं कि जाति व्यवस्था सनातन धर्म का मौलिक तत्व है और इस ओट में वे जाति के आधार पर लोगों के साथ अमानवीय और अन्यायपूर्ण व्यवहार का औचित्य प्रतिपादित करते हैं। यह बहुत स्पष्ट होना चाहिए कि ऐसे विचार और व्यवहार सभ्यता के उच्च मूल्यों के तो खिलाफ है हीं सनातन की भी मर्यादा के प्रतिकूल हैं जिसके आदि गुरु शंकराचार्य ने सभी जड़ चेतन में ब्रह्म का वास बताया है। वह ब्रह्म जो अत्यन्त पवित्र है जो सारी सृष्टि का एक मात्र सत्य है। तो उस एक जैसे पवित्र पुंज को धारण करने वाले ब्राह्मण और दलित में भेद कैसे किया जा सकता है। क्या आदिगुरु शंकराचार्य की इस स्थापना को झुठलाने वाले चोलाधारी संतों के खिलाफ योगी कोई कदम उठा सकते हैं जिसके लिए वे गोरखपीठ के अधिष्ठाता होने के नाते बाध्य भी हैं।

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