बिहार में महिलाओं के लिए मोदी की दरियादिली न बन जाये आत्मघाती


मुफ्त की रेवड़ी बांटकर वोट बटोरने का कल्चर लाने की कोशिश हो रही है। रेवड़ी कल्चर वाले कभी नया एक्सप्रेस-वे नही बना पायेगें। नया एअरपोर्ट या डिफेंस कॉरीडोर नही बना पायेगें।
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
(कैथेरी जालौन में 16 जुलाई 2022 को बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के लोकार्पण पर जनसभा को संबोधन)
डबल इंजन की सरकारें मुफ्त की रेवड़ी बांटने का शार्टकट नही अपनाती बल्कि मेहनत करके राज्यों के भविष्य को बेहतर बनाने में जुटी हैं।
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
(16 जुलाई 2022 को ही उनका ट्वीट)
दिल्ली में 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली आदि सुविधाओं की घोषणा करके सिंहासन में पहुंचे अरविंद केजरीवाल जब सत्ता में अंगद की तरह अपने पांव जमाने का एहसास करा रहे थे उस समय उन्हें हराने के हर प्रयास में मिल रही नाकामी से खींझे महामानव मोदी राजनीति के रेवड़ी कल्चर पर शब्दवाणों की अंधाधुंध वर्षा कर रहे थे। उनके ये उदगार तब के हैं। लेकिन अब मोदी खुद रेवड़ी कल्चर के हामी हो गये हैं। पटना में उन्होंने गत 26 सितम्बर को मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत बिहार की 75 लाख महिलाओं के खाते में 10-10 हजार रुपये करके 7500 करोड़ रुपये की धनराशि झोंकी तो अब वे खुद सवालों के घेरे में आ गये हैं। सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर एम नागेश्वर राव ने इस मुददे पर चुनाव आयोग को चिटठी लिखकर इसे सरेआम सामूहिक रिश्वत बांटने का कृत्य करार दिया है और आयोग से मांग की है कि प्रधानमंत्री के इस कदाचरण को संज्ञान में लेकर वह बिहार विधान सभा का कार्यकाल पूरा होते ही उसे भंग करा दे और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करा दे। उन्होंने बिहार की नाजुक अर्थ व्यवस्था के लिए प्रधानमंत्री के चुनावी लालच के तहत दिखायी गयी इस दरियादिली को अत्यंत घातक कदम करार दिया है। यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग में जिसकी पहचान अब केचुआ के रूप में बन चुकी है इतना साहस नही है कि प्रधानमंत्री के किसी कदम का वह औपचारिकता भर का भी प्रतिवाद कर सके।


ललकार भरने वाले दानवीर अब किस बिल में जा दुबके
ऐसे मौके पर देश चलाने वाले महान दानवीर भी पता नही किस बिल में जा घुसे हैं जो अरविंद केजरीवाल के 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त के वायदे पर आपे से बाहर हुए जा रहे थे। उनका कहना का भाव यह था कि सरकार उनके द्वारा अदा किये जाने वाले टैक्स के टुकड़ों पर पलती है। उसे क्या अधिकार है कि हमारे टैक्स से जमा होने वाले सरकारी खजाने को भुखमरों के लिए लुटाये। बात यहां तक पहुंच चुकी थी कि नवोदय विद्यालय जैसी योजनाओं को भी नहीं बख्सा गया था क्योंकि राजीव गांधी द्वारा लागू की गयी इस योजना में देहातों के गरीब परिवारों के मेधावी बच्चों को सरकारी खर्च पर हॉस्टल की सुविधा देकर पढ़ाने का प्रावधान था जिससे उनके लिए हिकारत के योग्य इन परिवारों के बच्चें उनके साहबजादों को प्रतियोगी परीक्षाओं में पछाड़कर कलेक्टर, एसपी बनते जा रहे थे। होना तो यह चाहिए था कि इन मुंहजोरों का मुंह तोड़ दिया जाता पर गरीब संख्या में भले ही बहुत हों लेकिन संसाधनों के अभाव में उनका आत्मबल भी क्षीण हो जाता है इसलिए अपने हक की बात भी उनके मुंह से नही निकल पाती। अन्यथा बहुत साफ है कि टैक्सपेयी कहकर अपने पर इतराने वाले ज्यादातर लोग परले दर्जे के चोर हैं जो सरकार का एक लाख रुपये मारकर 1 हजार रुपये देते हैं और उसी में सबसे बड़े साहूकार बन जाना चाहते हैं। लेकिन रेवड़ी कल्चर के खिलाफ दायर याचिकाओं पर जब उच्चतम न्यायालय ने विचार किया तो कुछ भी राय देना उसे बहुत आसान नही लगा। 26 जुलाई 2022 को ऐसी ही एक याचिका पर तत्कालीन चीफ जस्टिस एनवी रमना ने सुनवाई करते हुए राजनीतिक दलों के तमाम लोक-लुभावन वायदों को गलत मानते हुए भी कहा कि लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के निर्वहन की दृष्टि से जो कदम उठाये जाते हैं जैसे यूनिवर्सल हैल्थ केयर, पीने के पानी की निःशुल्क उपलब्धता उन्हें फ्रीबीज की श्रेणी में गिना जाये या नहीं। इसी क्रम में 3 अगस्त 2022 को उच्चतम न्यायालय ने नीति आयोग और वित्त आयोग को यह याचिका संदर्भित करते हुए उनके सुझाव मांगे।


अमीरी का छदम उजाला भेद पायेगा दरिद्रता का अंधेरा
यह हवाले इसलिए प्रासंगिक हैं कि गरीबों के उत्थान को लेकर मोदी सरकार ने शुरू से कोई नीतिगत रुख नही अपनाया। उसने दुनियां के चोटी के अमीर आदमियों के पहाड़ अर्थ व्यवस्था की जमीन पर खड़े करने को सर्वोच्च लक्ष्य बनाकर कार्य किया। यही कारण है कि उसके गुलाबी आंकड़ों में खरबपतियों, अरबपतियों और करोड़पतियों की संख्या बढ़ने का जश्न तो मनाया जाता है लेकिन प्रति व्यक्ति आय में कोई खास वृद्धि न हो पाने की उसकी आर्थिक नीतियों की अक्षमता के मातम का उस पर कोई असर नही होता। उसके 2047 तक विकसित भारत बनाने का खाका भी कुछ इसी तरह का है। इस खाके में खरबपतियों की बढ़ती संख्या को दर्शाने की जगह तो होगी लेकिन आम जनता के अभावों के सागर में डूबते चले जाने की कोई फिक्र उसमें नही दिखेगी। मोदी सरकार का बड़ा अरमान है कि वह चंद अमीरों की समृद्धि के आंकड़ों का इस्तेमाल करके अपनी अर्थव्यवस्था का गुब्बारा इस तरह फुला सकें कि एक के बाद एक दुनियां का हर विकसित देश उससे पीछे होता दिखायी देने लगे। लेकिन उसे यह ख्याल नही है कि विकसित देश की परिभाषा में प्रत्येक नागरिक के लिए सम्मानजनक मासिक आय सुनिश्चित किया जाना, चिकित्सा, शिक्षा आदि आवश्यक सेवाओं, सुविधाओं और वस्तुओं की पूर्णतः या लगभग निःशुल्क व्यवस्था करना और वैज्ञानिक उन्नति के लाभों का औसत वितरण किया जाना प्रमुखता से शामिल हैं। पर क्या इन मानकों की कसौटी पर हमारी तथाकथित चौथी या तीसरी अर्थव्यवस्था दुनियां से आंखे मिला सकती है।


नेतृत्व की नीतिगत रतौंधी
देश के नेतृत्व की इसी नीतिगत रतौंधी का परिणाम है कि आपने सुगम यातायात के लिए बिना किसी शुल्क के बेहतर सड़कों के जिनमें एक्सप्रेस-वे भी शामिल हैं की व्यवस्था करने की बजाय इसे लोगों की जेब काटने के उपक्रम के रूप में तब्दील कर रखा है। पहले तो यह था कि टोल टैक्स केवल उस समय तक लिया जायेगा जब तक सड़क के निर्माण की लागत वसूल नही होती। लेकिन अब तो गडकरी साहब जिन सड़कों की लागत के बराबर टोल टैक्स वसूल हो चुका है उनके भी 30 साल आगे तक की वसूली के ठेके उठा रहे हैं। पहले कई सालों में पुल वैरियर की दरें बढ़ती थीं लेकिन अब तो हर साल बल्कि कुछ महीने में ही टोल की दरों में भारी वृद्धि कर दी जाती है। जब वाहनों से रजिस्ट्रेशन के समय ही रोड टैक्स वसूल कर लिया जाता है तो फिर टोल वैरियर स्थापित करना कौन सी नैतिकता है।


तलछट तक अभाव दूर करने के लिए बाध्य है सरकार
उच्चतम न्यायालय की दुविधा यही थी कि किस रियायत को रेवड़ी में गिना जाये और किस रियायत को सरकार की अनिवार्य जबावदेही में। जिस देश में प्रति व्यक्ति आय दुनियां के 50 देशों की पर कैप्टा इनकम से भी कम हो उस देश में चिकित्सा, शिक्षा, सड़क, सुरक्षा आदि तो सरकार को मुफ्त में देनी ही पड़ेगी रसोई गैस, बिजली, पानी आदि के लिए भी नाम मात्र के शुल्क पर संतोष करना पड़ेगा। केजरीवाल यह कर रहे थे तो मोदी की मूढ़मति पार्टी को यह रेवड़ी बांटना लग रहा था। सरकारी अस्पतालों और स्कूलों की दशा सुधारने के लिए वह इस कारण हाथ पैर नही हिलाना चाहती क्योंकि उसके अपने लोगों का मुनाफा प्रभावित होगा जो कॉन्वेंट स्कूल और बड़े नर्सिहोम चला रहे हैं। शिक्षा और चिकित्सा की दोहरी प्रणाली को खत्म करना तो उसके शब्दकोष में कहीं है ही नही। पर जब उसे लगा कि इन नीतियों की कलई खुलने से उसकी लोकप्रियता दरक रही है तो नीतिगत सुधार की बजाय वह खुद रेवड़ी कल्चर के दलदल में उतर पड़ी। कोरोना महामारी के समय मुफ्त खाद्यान्न वितरण की योजना ठीक थी लेकिन आज भी यह जारी है तो इसीलिए न कि भाजपा को समझ में आ गया है कि यह योजना थोक में वोटों का बंदोबस्त कर रही है। पर बिहार में तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सचमुच इंतहा कर दी। महिलाएं स्वतंत्र रूप से मतदान के लिए प्रवृत्त होने लगी हैं और चुनावी हार-जीत में उनका रुझान मुख्य रूप से गुल खिलाने लगा है। इसके बाद महिलाओं के लिए बढ़चढ़ कर रेवड़ियां बांटे जाने का चलन सामने आ गया। इस गंगा में पिछले कुछ चुनावों में सभी पार्टियों ने डुबकी लगायी। लेकिन कोई भी डेढ़-ढ़ाई हजार रुपये महीने से ज्यादा का एलान नही कर सका।


अंधाधुंध खातों में भेज डाली रकम
पर मोदी ने तो बिहार में सीधे 10 हजार रुपये महिलाओं के खाते में डलवा दिये। क्या उन्होंने इसके लिए वित्त आयोग से राय लेने की जरूरत समझी। क्या इस सहायता का कोई उत्पादक महत्व है। चुनावी जल्दबाजी में यह भी तय नही किया गया कि योजना के लाभ के लिए पात्रता क्या हो और योजना केवल एक किश्त भेजने तक सीमित है अथवा हर महीने नई सरकार बन जाने के बाद भी किश्त जाती रहेगी। यह स्पष्ट है कि सरकारी खजाना मोदी के घर की खेती नही है जिसे वे अपने जन्मदिन का विज्ञापन निकलवाने में लुटा दें या बिहार में महिलाओं के एक मुश्त वोट के लिए सरकारी खजाने का निर्मम दोहन कर डालें। सुप्रीम कोर्ट ने रेवड़ी कल्चर के विरुद्ध जिस याचिका को संज्ञान में लिया था उसमें मनरेगा का भी उल्लेख किया गया था। लेकिन मनरेगा एक उत्पादक गतिविधि थी श्रम के बदले उसमें भुगतान की व्यवस्था थी। इसलिए मनरेगा की तुलना महिला रोजगार योजना से नही की जा सकती। महिला रोजगार योजना का औचित्य किसी भी तरह से सिद्ध नही किया जा सकता इसलिए प्रधानमंत्री मोदी एक और जाल में फंस गये हैं। बिहार में वोट चोर, गददी छोड़ के नारे ने जिस तरह जोर पकड़ा लगता है कि उसके कारण उनका संतुलन गड़बड़ा गया और उन्होंने इतनी बड़ी खैरात इस नारे के काउंटर के लिए लुटा डालने का आत्मघाती निश्चय कर दिखाया। नरेंद्र मोदी ने 2022 में यह भी कहा था कि मुफ्त की रेवड़ी बांटने का कल्चर चलाने वाले लोग सोचते हैं कि वे इस तरीके से जनता को खरीद लेगें। हम लोगों को उनकी इस सोच को हराना है। क्या बिहार में वोट देते समय प्रधानमंत्री मोदी के ये सदविचार लोगों के दिमाग की घंटी में टनटनाते हुए भाजपा का ही अनर्थ कर डालेगें।

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