
बिहार में विधान सभा के चुनाव में क्या एक नई राजनीति का उदय देखने को मिलेगा। दिल्ली में 2013 में जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने परंपरागत राजनीति का पासा पलट कर नया सूत्रपात किया था क्या वैसा ही बिहार में प्रशांत किशोर के माध्यम से घटित होने वाला है। ऐसे कई सवाल हैं जो बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव के मददेनजर राजनीतिक विश्लेषकों को मथ रहे हैं। लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि दिल्ली और बिहार के सामाजिक पर्यावरण में जमीन आसमान का अंतर है।

प्रशांत किशोर के करिश्मे का दम
प्रशांत किशोर 2014 के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक रणनीति के जादूगर के रूप में सुर्खियों में आये थे। माना गया था कि उन्होंने मोदी की सफलता के लिए जो नुस्खे दिये वे बहुत कारगर साबित हुए। मोदी और भाजपा की तब की बड़ी सफलता का सारा श्रेय कुछ समय के लिए प्रशांत किशोर ने बटोर लिया था। लेकिन भाजपा के साथ प्रशांत किशोर का हनीमून बहुत ज्यादा दिनों तक जारी नही रह सका। हालांकि पहले खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस पक्ष में थे कि प्रशांत किशोर के हुनर का स्थाई लाभ उठाने के लिए उन्हें स्थाई तौर पर अपनी टीम में शामिल करें। प्रशांत किशोर को पीएमओ से मंत्री बनने का ऑफर गया। लेकिन प्रशांत किशोर का लक्ष्य तो कुछ और ही था। सो उन्होंने यह ऑफर स्वीकार नही किया।

पीके की विजयी मुटठी
अगले वर्ष प्रशांत किशोर ने पाला बदल लिया। वे बिहार विधान सभा के लिए उस साल होने जा रहे चुनाव में जेडीयू के सारथी बन गये। इस चुनाव में जेडीयू, राजद और कांग्रेस का महा गठबंधन एक तरफ था दूसरी तरफ मुख्य रूप से भाजपा थी। उस समय मोदी के लिए दीवानगी जनता के सिर चढ़कर बोल रही थी। पर चुनाव नतीजे आये तो भाजपा को मुंह खानी पड़ गयी। इससे फिर इस बात को बल मिला कि 2014 में मोदी को जो कामयाबी मिली थी वह उनकी अपनी कम थी, उस कामयाबी के पीछे मुख्य तो प्रशांत किशोर थे। कहा गया कि इसी कारण एक साल बाद ही जब प्रशांत किशोर दूसरे खेमे में चले गये तो विजय पताका शिफ्ट होकर उस खेमे में फहराने लगी।

क्षणिक सम्मोहन का अंत
प्रशांत किशोर ने जीत है वहां पीके हैं जहां की धारणा को और बलवती करने के लिए 2017 में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को पुनसर््थापित करने का ठेका ले लिया। उनके परामर्श पर कांग्रेस ने ब्राह्मण चेहरा सामने रखकर चुनावी अखाड़े में ताल ठोकने की रणनीति बनायी। दिल्ली में तीन बार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित 2013 में अरविंद केजरीवाल के मुकाबले हार भले ही गयी हों लेकिन विकास के मामले में उन्होंने जो पहचान बनायी थी लोग उसके कायल थे। इसलिए कांग्रेस ने तय किया कि ब्राह्मण चेहरे की जरूरत के लिए उत्तर प्रदेश में अब शीला दीक्षित का इस्तेमाल किया जाये। पर पीके की यह तजबीज कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी। कांग्रेस ने यह करके अपने साथ-साथ समाजवादी पार्टी की भी लुटिया डुबो दी। दोनों पार्टियों ने गठबंधन में यह चुनाव लड़ा था। दरअसल हुआ यह कि अपने नाम के एलान के बाद शीला दीक्षित ने उत्तर प्रदेश में अपने जोरदार रोड शो के जरिये चुनाव अभियान के आगाज का ताना-बाना बुना। इस दौरान उम्र दराज शीला दीक्षित गर्मी के कारण रोड शो के दौरान बीच रास्ते में अपनी गाड़ी में गश खाकर गिर पड़ीं। धारणा यह बनी कि कांग्रेस देश के सबसे बड़े सूबे में उस चेहरे पर दांव लगा रही है जो बुढ़ापे के कारण चुकने की स्थिति में पहुंच गया है। इस धारणा ने कांग्रेस की फिजा बहुत ज्यादा खराब कर दी। उसके प्रति मतदाताओं की अरुचि का दुष्परिणाम गठबंधन में होने के कारण समाजवादी पार्टी को भी भुगतना पड़ा। पूरे गठबंधन को केवल 47 सीटें मिलीं जिनमें कांग्रेस को केवल 7 सीटें हाथ लग पायीं थीं। यह हार बहुत शर्मनाक थी।
सतही रणनीति की जब खुलने लगी कलई
उत्तर प्रदेश के इन चुनाव परिणामों ने प्रशांत किशोर की क्षमता के नये सिरे से आंकलन की आवश्यकता प्रतिपादित कर दी। इसके चलते प्रशांत किशोर की सीमाएं लोगों के सामने आ गयीं। अरविंद केजरीवाल हों या प्रशांत किशोर इनकी वर्ग चेतना मध्यम वर्गीय सफेदपोश लोगों की है। जिसे देश की जटिल सामाजिक परिस्थितियों की गहराई का कोई भान नही है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को इसलिए कामयाबी मिल गयी कि देश की राजधानी कास्मोपॉलिटिन महानगर है जिसके कारण सामाजिक द्वंद यहां राजनीतिक स्थितियों को प्रभावित नही कर पाते। 2013 में दिल्ली विधान सभा के चुनाव में उतरते-उतरते अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे के साथ मनमोहन सरकार के खिलाफ इंडिया अगेंस्ट करप्शन के बैनर तले जो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन छेड़ा था उससे देश भर में कांग्रेस की छवि की मटटी पलीद हो गयी थी। सीमित सांगठनिक कलेवर और सतही मुददों के कारण केजरीवाल केवल दिल्ली में इसके लाभार्थी बनकर रह गये जबकि इस स्थिति को भुनाने के लिए नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक स्थितियों के सभी आयामों को समेटते हुए देश व्यापी रणनीति बुनी। उन्होंने राष्ट्रवाद, हिंदूवाद के साथ-साथ सामाजिक न्याय के मुददे पर भी जमकर ललकार लगायी। कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर के एक साक्षात्कार के शब्दों को लपकते हुए उन्होंने बहुत ही भेदक ढंग से अस्मिता कार्ड खेला जिससे जाति व्यवस्था के चलते वंचना और अपमान का शिकार बनी देश की बहुसंख्यक आबादी उनके पीछे खड़ी हो गयी। कहने का मतलब यह है कि लोगों को उद्वेलित कर अपने पीछे लामबंद कर देने वाले मुददे मोदी के अपने थे जिसमें चाय पर चर्चा, थ्री डी रैलियां, रन फॉर यूनिटी और सोशल मीडिया के इस्तेमाल जैसे पीके के नुस्खों ने केवल बूस्टर की तरह योगदान दिया। इसके बाद 2015 में बिहार में जो हुआ वह भी मूल रूप से अस्मिता की राजनीति पर चुनाव के केंद्रित हो जाने का परिणाम था। इसमें सबसे बड़ा योगदान राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघ चालक मोहन भागवत का रहा जिन्होंने आरक्षण की समीक्षा का बयान देकर खुद ही भाजपा के लिए कब्र खोद दी। आरजेडी को इस मुददे पर पूरी आक्रामकता के साथ भाजपा पर हमले करने का अवसर मिल गया। आरजेडी ने प्रशांत किशोर को इंगेज नही किया था। लेकिन गठबंधन में उसे प्रशांत किशोर पोषित जेडीयू की तुलना में ज्यादा सीटें मिलीं। आरजेडी को 80 सीटें मिली थीं जबकि जेडीयू 71 सीटें ही प्राप्त कर सकी थी और इसमें भी बड़ा योगदान आरजेडी की प्रचार रणनीति का था जिससे दलित और पिछड़े भाजपा के प्रति काफी सशंकित हो गये थे।

नीतिश कुमार की सुग्रीव परंपरा की सियासत
फिर भी सुग्रीव और विभीषण की परंपरा के पिछड़े नेता होने के कारण नीतिश कुमार के बारे में पहले से ही यह धारणा बनी हुई है कि उनमें प्रखर वर्ग चेतना का अभाव है जिससे वे सामाजिक न्याय के मोर्चे पर फिसलने के लिए अभिशप्त रहे हैं। उनके ढुलमुल वर्ग चरित्र के कारण लालू-मुलायम स्टाइल पिछड़ा राजनीति के तात्कालिक विकल्प के रूप में यथा स्थितिवादी सामजिक शक्तियों का समर्थन उन्हें मिलता रहा है। बहरहाल सोच की इसी कमजोरी के कारण नीतिश कुमार पीके के मुरीद बाद में भी बने रहे। 2018 में उन्होंने पीके को जेडीयू में शामिल कर लिया। उन्हें अपना सलाहकार भी बना लिया। प्रशांत किशोर का पूरा नाम प्रशांत किशोर पांडेय है। स्पष्ट है कि सामाजिक न्याय की राजनीति का साथ वे आपाद धर्म के तौर पर कुछ समय तक ही दे सकते हैं। इस ग्रंथि के चलते प्रशांत किशोर के लिए बहुत ज्यादा दिनों तक पिछड़ी जाति के नेता को सिर पर बिठाना सहन नही हुुआ और जब उनकी हेकड़ी नीतिश कुमार के लिए नागवार बनने लगी तो नीतिश को उन्हें पार्टी से बाहर कर देना पड़ा। 2020 के चुनाव में नीतिश ने पीके का मोह छोड़कर जहाज का पंछी पुनि-पुनि जहाज पर आये मुहावरे की तर्ज पर काम करते हुए फिर भाजपा के साथ रिश्ता जोड़ लिया जिसे उन्होंने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री चुने जाने के कारण 2015 में छिटका दिया था।

सफेदपोश राजनीति का आकर्षण
इस बीच प्रशांत किशोर ने जन स्वराज आंदोलन छेड़ दिया। अब इसी को पार्टी का रूप देकर वे बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव में जोर आजमाइश के लिए तैयार हैं। इसके पूर्वाभ्यास के क्रम में आजकल वे व्हिसल ब्लोवर के अवतार में हैं। हालांकि वे नीतिश को साफ-सुथरा बता रहे हैं लेकिन उप मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, ग्रामीण विकास मंत्री अशोक चौधरी, स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल के कारनामों का ऐसा कच्चा चिटठा उन्होंने खोला है कि नीतिश की सरकार पस्त नजर आ रही है। उस पर तुर्रा यह है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री आरके सिंह भी इस मुददे पर उनके साथ आ गये हैं। उन्होंने भाजपा से कहा है कि पार्टी के लोगों पर प्रशांत किशोर द्वारा जड़े गये भयानक आरोपों का या तो तार्किक प्रतिवाद किया जाये अन्यथा इतनी गंदगी के साथ वे भाजपा में नही रह पायेगें। बिहार के आम लोगों में भी प्रशांत किशोर द्वारा किये जा रहे भंडाफोड़ की जबर्दस्त प्रतिक्रिया है जिससे प्रशांत किशोर एक बड़े वर्ग में हीरो की तरह देखे जा रहे हैं। प्रशांत किशोर की भी महत्वाकांक्षाएं अरविंद केजरीवाल की तरह दिखती हैं। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में मॉडल सरकार चलाकर सारे देश में अपनी पार्टी को विकल्प के रूप में स्थापित करने का ताना-बाना बुना था। इसमें उन्हें एक बड़ी सफलता दिल्ली के बाद पंजाब में सरकार बना लेने से मिली। लेकिन कुछ और राज्यों में उनकी गोटियां सफल हो पाती इसके पहले दिल्ली उनके हाथ से निकल चुकी है। केजरीवाल और उनके कई सहयोगी जेल जा चुके हैं। इन स्थितियों ने उन्हें काफी हद तक तोड़कर रख दिया है। अब उनमें पहले जैसे तेवर नजर नही आते। वे और संजय सिंह को छोड़कर उनके अन्य सिपहसलार निढाल हालत में हैं। मध्यवर्गीय सफेदपोश राजनीति का भारत में इस ढंग का हश्र पहले से तय है। लेकिन प्रशांत किशोर के तो मूल कार्य क्षेत्र की ही स्थितियां दूसरी हैं। उनके गृह राज्य में कमोवेश अस्मिता की राजनीति ही केंद्र में बनी हुई है जिसे उनकी पार्टी संबोधित नही कर रही। इसलिए हो सकता है कि पीके अपने प्रशंसकों का दायरा बढ़ा लें लेकिन उन्हें वोट के रूप में तब्दील कर पाना उनके बूते में शायद ही दिखे।
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