शुद्ध मतदाता सूची का यूटोपिया


मतदाता सूची शुद्धिकरण का काम देश भर में होना है लेकिन बिहार में इसकी नमूना किस्म की शुरूआत के अनुभव बहुत कसैले साबित हो रहे हैं। सरकार की कठपुतली के रूप में पहचान बना चुका देश का तथाकथित स्वायत्त चुनाव आयोग तमाम जददोजहद के बावजूद बिहार में एसआईआर करके ही माना। उसे अपने इस इरादे को कामयाब करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अखाड़े में बहुत उखाड़ पछाड़ झेलनी पड़ी। सुप्रीम कोर्ट एक ओर उसकी अधकचरी दलीलों की चूड़ी टाइट भी करता रहा दूसरी ओर उसने चुनाव आयोग की मर्यादा भी खूब बचायी। अगर सुप्रीम कोर्ट इस मामले में न्याय के लिए दो टूक रुख अपनाता तो चुनाव आयोग बुरी तरह जलील होकर रह जाता और हड़बड़ी में उसके द्वारा कराये जा रहे एसआईआर की साजिशी तस्वीर खुलकर सामने आ जाती जिसके नतीजे में देश की सबसे बड़ी अदालत उसकी हठधर्मिता को खारिज करके उसे एसआईआर से पीछे हटने के लिए मजबूर कर देती।


चोर चोरी से जाये, हेराफेरी से नही
लेकिन सुप्रीम कोर्ट से चुनाव आयोग के अन्याय के खिलाफ अपेक्षित संरक्षण न मिलने के बावजूद विपक्ष ने लड़ाई लड़ने में जो कटटरता दिखाई उससे आयोग को काफी हद तक मनमानी से बाज आकर काम करना पड़ा। पर कहावत है कि चोर चोरी से जाये पर हेरा फेरी से न जाये। चुनाव आयोग ने भी शायद कुछ ऐसा ही किया। एसआईआर का जो सच सामने निकलकर आ रहा है उससे यह स्पष्ट हो चुका है कि वर्तमान चुनाव आयोग में बूता नही है कि वह खालिस 24 कैरेट जैसी शुद्धता से परिपूर्ण मतदाता सूची तैयार करा सके। 30 सितम्बर को जारी किये गये बिहार के विशेष गहन मतदाता सूची पुनरीक्षण कार्यक्रम के आंकड़ों का विश्लेषण अभी चल रहा है। लेकिन आरंभिक पड़ताल में ही जाहिर होने लगा है कि इसमें बड़ी खामियां हैं। ऐसा नही है कि चुनाव आयोग को अन्य पक्षों की जांच के बाद इसका पता चल पाया हो। चुनाव आयोग को 30 सितम्बर को ही पता था कि उसका शुद्ध माल कितना मिलावटी है। इसीलिए चुनाव आयोग ने इसको ऐसे फार्मेट में लोड किया जो न आसानी से पढ़ने योग्य है और सर्च के योग्य तो बिल्कुल ही नही है।


स्वायत्त चुनाव आयोग वोटरों के प्रति जबावदेही से परे नहीं
चुनाव आयोग स्वायत्त जरूर है लेकिन उसको यह स्वायत्ता किसके जानिब मुहैया कराई गयी है यह भी स्पष्ट होना चाहिए। चुनाव आयोग सरकार के नियंत्रण से मुक्त रखा गया है लेकिन मतदाता जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में तंत्र के असली मालिक हैं उनके प्रति जबावदेही से चुनाव आयोग मुक्त नही हो सकता। लेकिन चुनाव आयोग तो चुनावी व्यवस्थाओं को अपनी खाला का घर मानकर मनमाने तरीके से प्रबंधित कर रहा है। वह अपने हर कदम को मतदाताओं के सामने पारदर्शी रखने के लिए बाध्य है। मतदाता सूची कोई वर्गीकृत दस्तावेज नही है जिसके कारण उसे मतदाताओं से इसकी पर्देदारी करने की जरूरत महसूस हुई हो। अगर उसका दामन पाक साफ है तो उसे गहन पुनरीक्षण के बाद तैयार की गयी अद्यतन मतदाता सूची को सुपठित प्रारूप में भी लोड करना चाहिए था और खोज योग्य प्रारूप में भी तांकि कोई भी पड़ताल कर उसकी शुद्धता की डिग्री नाप सकता। चुनाव आयोग ने कुछ अरसे से परम स्वतंत्र सिर पर न कोऊ का जो रवैया अपना रखा है वह संविधान की भावना के एकदम विरुद्ध है। उससे जब मतदान के निर्धारित समय के बाद के मतदान को बढ़ाचढ़ा कर बताने के लिए पोलिंग सेंटरों के वीडियो फुटेज मांगे गये तो उसने सरकार से मिली भगत कर एक नियम जारी कर दिया कि वोटिंग के इलेक्ट्रानिक साक्ष्य नही मांगे जा सकते। अदालत में इसके बचाव के लिए उसने जो तर्क दिये वे धृष्टता की पराकाष्ठा दिखाते हैं। उसका कहना था कि अगर हम वीडियो फुटेज सार्वजनिक कर देगें तो मतदान के लिए लाइन में लगी महिलाओं की प्राइवेसी भंग हो जायेगी। उसके इस तर्क का बहुत मखौल उड़ाया गया और उसके ढीठपन की जमकर आलोचना भी हुई। लेकिन चुनाव आयोग के जिम्मेदार चिकने घड़े हैं उन्हें कोई फर्क ही नही पड़ता।


दुरुह सूची की भी पोल खोल सर्च
फिर भी एसआईआर के डाटा को सर्च करने के लिए माथापच्ची की जा रही है। इससे गड़बड़ी की कई बानगियां सामने आईं हैं। पता चला है कि एक ही मकान नंबर में लगभग एक हजार वोटर पंजीकृत हैं। कई मतदाता ऐसे सामने लाये गये हैं जिन्हें मरा बताकर सूची से बाहर कर दिया गया लेकिन वे कह रहे हैं कि हम जिन्दा हैं। सबसे बड़ी गड़बड़ी तो यह है कि नाम जुड़वाने के लिए जो फार्म-6 दिया जाता है चुनाव आयोग ने उनकी संख्या जितनी बताई थी उससे 4 लाख 60 हजार से ज्यादा मतदाताओं को जोड़े जाने के आंकड़े दिये गये हैं, ऐसा कैसे हो सकता है। इसका कोई कारण भी नही बताया जा रहा।
कदम-कदम पर वोटरों को अंगूठा दिखाने की हिमाकत
एसआईआर के आंकड़े जारी करने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त ने मीडिया वार्ता क्यों नही बुलायी यह भी एक प्रश्न है। यह लोकतंत्र है या मतदाताओं को जलील करने का कोई तमाशा। मीडिया के माध्यम से सरकार आवश्यक जानकारियां लोगों को देती है। इसमें लोगों की जो जिज्ञासाये और संदेह हैं उनका भी निराकरण सरकार द्वारा मीडिया के माध्यम से किया जाता है। ऐसा करना सरकार की मेहरबानी नही उसका अनिवार्य फर्ज है। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री जी ही इस मामले में अलग लीक बना चुके हैं। अभी तक के अपने कार्यकाल में उन्होंने एक भी प्रेस कांफ्रेन्स नही की क्या यह अलोकतांत्रिक आचरण नही है। प्रेस कांफ्रेन्स तो क्या संसद को फेस करने में भी उन्हें तौहीन महसूस होती है। नेता प्रतिपक्ष के सवालों का कोई जबाव देने की वे जरूरत नही समझते। मणिपुर हिंसा के मामले में उन्होंने संसद को कमतर करने के लिए ही सत्र चलने के दौरान सदन के अंदर वक्तव्य देने का कर्तव्य निभाने की बजाय सदन से बाहर निकलकर मीडिया में वक्तव्य दिया। वह वक्तव्य भी बहुत संक्षिप्त था जिसकी कोई सार्थकता नही थी। चाहते तो प्रधानमंत्री मीडिया के सामने भी नही बोलते लेकिन औपचारिकता भर के लिए मीडिया के सामने इस कारण बोले तांकि देश के लोगों को संदेश चला जाये कि संसद के प्रति और प्रधानमंत्री अपनी जबावदेही महसूस करते होगें, अवतारी मोदी नही।
मानवीय भूल बताकर पा सकते थे माफी, पर………..
उनकी इस हेकड़ी का अनुकरण अन्य संस्थायें भी कर रहीं हैं। इसलिए एसआईआर के डाटा सार्वजनिक करने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त ने मीडिया कर्मियों को बुलाने की जरूरत नही समझी। ऐसे में संदेह से भरे इसके आंकड़े चुनाव आयोग की बचीखुची साख के ताबूत में अंतिम कील ठोकने वाले साबित हो रहे हैं। हो सकता है कि तमाम गड़बड़ियां मानवीय भूल का परिणाम हों, प्रेस कांफ्रेंस की गयी होती तो इसको स्पष्ट किया जा सकता था। तब चुनाव आयोग के प्रति अविश्वास या आक्रोश को जन्म नही मिलता। लेकिन उसके द्वारा ऐसा न किये जाने से यह प्रदर्शित किया गया है कि चुनाव आयोग न्यस्त स्वार्थों के हित साधन के लिए मतदाता सूचियों के शुद्धीकरण की बजाय योजनाबद्ध ढंग से उन्हें और अधिक दूषित करने में संलग्न है। ऐसे में उसका सारे देश में एसआईआर कराने का निश्चय देश के लोकतंत्र के लिए बड़े खतरे का वायस समझा जाने लगा है। इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए। सरकार ने चुनाव आयुक्तों के चयन की जो प्रक्रिया निर्धारित की है उसमें उसकी मनमानी को सफल करने की व्यवस्था है। होना तो यह चाहिए था कि जैसे ही इसके विरुद्ध याचिका दायर हुई थी सुप्रीम कोर्ट को सरकार के हाथ पकड़ लेने चाहिए थे। पर सुप्रीम कोर्ट अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए इस मामले में तारीख पर तारीख दिये जा रही है। जिसके चलते लोकसभा से लेकर तमाम राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव सरकार की मर्जी के अनुरूप निपटते जा रहे हैं। यह सुप्रीम कोर्ट के लिए भी बहुत बड़ा लांछन है।
लोकतंत्र की इमारत में लगातार सेंधमारी
चुनाव प्रणाली को दूषित किये जाने की धारणा को सरकार द्वारा उठाये जा रहे कदमों की निरंतरता में देखें तो और भी बहुत कुछ स्पष्ट होता जायेगा। चुनाव आयुक्तों के बारे में सरकार ने यह प्रावधान क्यों कराया कि उनके द्वारा पद पर रहते हुए जो फैसले किये गये, कार्य किये गये उनके आधार पर जीवन पर्यन्त उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नही की जा सकेगी। ऐसा अभयदान तो संविधान ने महामहिम राष्ट्रपति तक को नही दिया। सरकार लाख दावे करे और सीना चीर कर दिखाने का अभिनय करे लेकिन उसके सर्वाधिकारवादी निरंकुश रवैये पर इन तमाम फैसलों के मददे नजर कोई पर्दा डाला जाना संभव नही है।

Leave a comment

I'm Emily

Welcome to Nook, my cozy corner of the internet dedicated to all things homemade and delightful. Here, I invite you to join me on a journey of creativity, craftsmanship, and all things handmade with a touch of love. Let's get crafty!

Let's connect

Recent posts