मुख्यमंत्री के शासनादेश में ब्रजेश का पलीता


मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा जातिगत पहचान के सार्वजनिक प्रदर्शन को संयमित करने के लिए हाल ही में एक शासनादेश जारी किया था जिसके तत्काल बाद उप मुख्यमंत्री बृजेश पाठक का अपने सजातीयों के कार्यक्रम में शामिल होना और विप्र कल्याण बोर्ड की गठन की मांग को बल देना क्या उनका यह आचरण औचित्यपूर्ण कहा जा सकता है। शासन का एक अंग ही अगर शासनादेश की अवमानना करने का दुस्साहस करने लगे तो उस सरकार का इकबाल क्या रह जायेगा। मुख्यमंत्री की सक्षमता पर भी यह प्रश्न चिन्ह है। वे मंत्रिमंडल के मुखिया होते हैं लेकिन उनकी नीतियों और फैसलों से अगर मंत्रिमंडल के ही कुछ सदस्य सहमत न हों तो कहना पड़ेगा कि उनका नेतृत्व कहीं न कहीं कमजोर है।


हाईकोर्ट से प्रेरित पहल का भी विरोध
वैसे शासनादेश मुख्यमंत्री ने अपनी मर्जी से जारी नही किया। हाईकोर्ट ने इसके बारे में सरकार को परामर्शनुमा निर्देश दिया था। जिसमें कहा गया था कि सरकारी दस्तावेजों में व्यक्ति की जाति का उल्लेख बंद किया जाये, पुलिस रिकार्ड में अनुसूचित जाति, जनजाति उत्पीड़न अधिनियम के मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में जातिगत पहचान को दर्ज किये जाने पर पाबंदी लगाई जाये, किसी इलाके को जाति विशेष की जागीर जैसा जताने वाले होर्डिंग, बोर्ड और बैनर हटवाये जायें और वाहनों पर जातिगत गौरव जताने वाले लेख और प्रतीक चिन्हों को रोका जाये। योगी आदित्यनाथ पर स्वयं जाति मोह से ग्रस्त होने के आरोप लगते रहते हैं। इसलिए हो सकता है कि उनमें यह भावना हो कि उनके इस रुझान को लांछन के बतौर लोगों में संज्ञान लिया जा रहा है जिसके कारण उनमें चेतन या अचेतन रूप से अपराध भावना घर कर रही हो। ऐसे में हाईकोर्ट का आदेश सामने आने पर कलंक प्रक्षालन की हड़बड़ी में उन्होंने तपाक से इसके अनुरूप एक शासनादेश जारी कर डाला हो। बिना यह अनुमान लगाये कि इससे उनको समाज और राजनीति में शाबाशी नही मिलेगी बल्कि उनको कई जटिलताओं का सामना करना पड़ जायेगा।


सहयोगी दलों की भी नाफरमानी
उनके शासनादेश की उदूली केवल ब्रजेश पाठक ने ही नही की, कैबिनेट मंत्री संजय निषाद ने भी कहा है कि जातिगत पहचान मिटाने से उनकी जैसी शोषित जातियों के साथ जिस सामाजिक न्याय का तकाजा है उसमें बाधा पड़ जायेगी। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री को यह शासनादेश जारी करने के बजाय हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील करनी चाहिए थी। अभी भी मुख्यमंत्री से वे यह करने की अपेक्षा रखते हैं। मुख्यमंत्री न करें तो वे खुद अपील करने का इरादा बनाये हुए हैं। पर ध्यान देने वाली बात यह है कि संजय निषाद भाजपा की नीतियों और अनुशासन से नही बंधे हैं। उनका दल अलग है इसलिए कई मामलों में वे असहमति प्रकट करने का अधिकार रखते हैं। ब्रजेश पाठक को ऐसी छूट हासिल नही है।


योगी का नारा मोदी की भी जुबान पर चढ़ा
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के समय एक नारा दिया था कि बटोगे तो कटोगे। यह नारा हिंदू समाज को एकजुट रहने की सीख देने वाला था। समूची भाजपा को यह नारा बहुत पसंद आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसे कुछ परमार्जित करते हुए अपनी स्वीकृति देने में संकोच नही किया। इस नारे के अमल की दृष्टि से हाईकोर्ट का आदेश न आता तो भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ऐसी पहल करनी चाहिए थी जिससे हिंदू गौरव के भाव में जातिगत पहचान को विलीन कर देने की प्रेरणा लोगों को मिलती। ऐसा होने पर ही इस नारे की सार्थकता सिद्ध हो सकती है। लेकिन जब जागों तभी सवेरा। हाईकोर्ट के आदेश के बाद मुख्यमंत्री ने इसकी संभाव्यता के लिए शासनादेश जारी करने की जो तत्परता दिखायी इस दृष्टि से उसे उचित ही कहा जायेगा। साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समर्थन मिल जाने के बाद जब इस नारे ने भाजपा की नीति का रूप ले लिया तो पार्टी का हर जिम्मेदार बाध्य है कि इस नीति को मजबूत करें न कि उसकी जड़ों में मटठा डाले।


जातिगत उत्पीड़न को झुठलाने की चतुरई
अभी भी घोड़ी चढ़े दलित दूल्हे को देखकर बीमार मानसिकता के लोग भड़क उठते हैं। पवित्र जगन्नाथ मंदिर में राष्ट्रपति पद पर होते हुए भी रामनाथ कोविद के प्रवेश पर पंडे आक्रोश दिखाते हैं। उन्हें धकिया दिया जाता है। क्या किसी सवर्ण के साथ जाति की वजह से इस तरह का तिरस्कार हो सकता है। फिर यह चतुरई दिखाने की कोशिश क्यों की जा रही है कि पीड़ित तो सभी है चाहे सवर्ण हो या दलित। बात सही है कि कई सवर्ण भी जुल्म के शिकार हो रहे हैं लेकिन इस कारण नही कि उनकी जाति नही है। उनका उत्पीड़न व्यक्तिगत है। जिसका कोई सामुदायिक आधार नही है। किसी यादव को विद्वान और सदाचारी होने के बावजूद ठाकुर-ब्राह्मणों के गांव में कथा बाचने के लिए अपनी जाति छुपाने की जरूरत पड़ सकती है लेकिन यादवों के गांव में कथा पढ़ने वाले ब्राह्मण को जाति छुपाने की कोई जरूरत नही है। इस सामाजिक हकीकत को माना जाना चाहिए और ईमानदारी की बात की जानी चाहिए। पुलिस और अदालतें ईमानदार हैं तो किसी व्यक्ति के साथ नाइंसाफी नही हो पायेगी। इसलिए संविधान निर्माताओं ने सवर्ण जातियों के लिए अलग से कोई बोर्ड बनाने की वकालत नही की थी। लेकिन अगर जाति व्यवस्था रहेगी तो ईमानदार पुलिस और अदालतें भी कई मामलों में न्याय करने से मुकर जाती हैं। जाति व्यवस्था के कारण हमारे देश में पदाधिकारी प्रोफेशनल नही हैं। एक जज तक यहां अपनी जाति के अपराधी को दंडित करने की बजाय उसके प्रति हमदर्दी की भावना से वशीभूत होकर फैसला करता है। ऐसी स्थितियों में देश में कोई भी व्यवस्था सफल नही हो सकती।


बदलाव की पहल का श्रेय भी सशक्त जातियों को
वे सशक्त जातियों के ही नेता और विद्वान थे जिन्होंने जाति व्यवस्था के बंधन शिथिल करने के लिए कमजोर जातियों के संरक्षण के प्रावधान किये। सशक्त जातियों के वे नेता जो अंतरात्मा से सशक्त हैं इसी लीक पर आज भी चल रहे हैं। उसमें भी कमजोर जातियों को बराबरी का स्थान दिलाने के लिए ब्राह्मण सबसे आगे रहे हैं और हैं। निश्चित रूप से ब्रजेश पाठक का कद उन महान ब्राह्मण नेताओं के बराबर नही आंका जा सकता इसलिए उनके सोच के लेविल में वह ऊंचाई होना संभव नही है। लेकिन हाईकोर्ट और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल को मजबूत किया जाना आज के समय की मांग है और ब्रजेश पाठक को भी अपनी भूल समझकर इधर-उधर भटकने की बजाय ब्राह्मण समाज को जाति विहीन समाज की रचना की अगुआई के लिए तैयार करना चाहिए जो कि उनकी ऐतिहासिक भूमिका के अनुरूप होगा। दूसरी ओर कमजोर जातियों के नेताओं में योगी की पहल को लेकर संदेह स्वाभाविक हैं। अतीत में उनके साथ कई बार छल हुआ है। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। इसलिए संजय निषाद और अन्य वंचित जातियों के नेताओं को इस पहल में अंदेशा दिखना अजीब नही है। पर योगी और ब्रजेश पाठक अगर यह दिखा सकें कि जातिगत पहचान के उत्साह को पीछे धकेलने से उनके प्रति अपेक्षित न्याय में कोई ढील नही होने दी जायेगी तो यह लोग भी सहर्ष उनके पीछे आ जायेगें।

Leave a comment

I'm Emily

Welcome to Nook, my cozy corner of the internet dedicated to all things homemade and delightful. Here, I invite you to join me on a journey of creativity, craftsmanship, and all things handmade with a touch of love. Let's get crafty!

Let's connect

Recent posts