
आरएसएस के शताब्दी वर्ष के कार्यक्रमों की श्रंखला में अमरावती में आयोजित एक कार्यक्रम में उच्चतम् न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की मां कमल ताई के मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होने की खबर ने जबर्दस्त तूल पकड़ लिया था। आखिर कमल ताई रविवार को श्रीमती नरसम्मा महाविद्यालय में आयोजित हुए इस कार्यक्रम में न तो स्वयं पहुंची और न ही अभी तक की सूचना के अनुसार उन्होंने इसके लिए कोई संदेश भेजा। एक दिन पहले जब कमल ताई ने स्पष्ट रूप से घोषणा कर दी थी कि वे आरएसएस के कार्यक्रम में सम्मिलित नही होगीं तो उस समय इसके साथ आरएसएस के सूत्रों ने बताया था कि वे प्रस्तावित कार्यक्रम के लिए अपना संदेश भेजने को तैयार हैं पर यह समाचार सही साबित नही हुआ।

संघ की मान्यता बढ़ाने की रणनीति
आरएसएस लंबे समय तक समाज की मुख्य धारा से बहिष्कृत रहा इसलिए उसने मौका मिलने पर समाज के हर क्षेत्र में स्वीकृति हासिल करने का कोई मौका नही छोड़ा। पिछले 11 वर्षों से तो उसकी मानस संतान कही जाने वाली भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है और देश के अधिकांश राज्यों में भाजपा का ही प्रभुत्व है तो संघ के हर तरह से वारे-न्यारे हैं। आसानी से कोई उसका निमंत्रण अस्वीकार नही कर सकता। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी जैसी शख्सियतों ने उसके कार्यक्रम में पहुंचकर उसकी मान्यता को बहुत ऊचाई प्रदान कर दी है। भाजपा की सत्ता के सदुपयोग के इसी क्रम में प्रधान न्यायाधीश की मां को संबोधन के लिए बुलाया गया था। गवई परिवार की दलित होने के साथ-साथ बौद्ध होने के कारण अलग महत्ता है और अगर कमल ताई उसके यहां बौद्धिक कर जातीं तो आरएसएस की प्रतिष्ठा को चार चांद लग जाते। इसके गहरे निहितार्थ होते जिससे दलितों के बीच पैठ बढ़ाने में उसकी सहूलियत बढ़ जाती। भाजपा के लिए तो खैर यह आम के आम गुठलियों के दाम जैसा बोनस साबित होने वाला ही था।

सोशल मीडिया का रंग में भंग
लेकिन सोशल मीडिया की प्रतिक्रियाओं ने रंग में भंग कर दिया। प्रधान न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई अपनी जातिगत और बौद्ध पहचान को अपना सूचकांक बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना खूब जानते हैं। वे भारत के दूसरे प्रधान न्यायाधीश हैं जो दलित समाज से आये हैं। कभी उनकी पहचान अपमान का कारण थी लेकिन आज कई जगह यह पहचान पद आदि के गौरव में नये सितारे जोड़ने का कारण बन जाती है। गवई साहब अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के महिमा मंडन के क्रम में यह उल्लेख करना भी कई बार नही भूले कि कैसी गरीब और तिरस्कृत स्थितियों में उन्हें आगे बढ़ने के लिए संघर्ष करना पड़ा। इस मामले में वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पीछे नही हैं। लेकिन जब से सोशल मीडिया का युग शुरू हुआ है तब से बहुत चीर-फाड़ करने वाले सक्रिय हो गये हैं। हमारे प्रधान न्यायाधीश के परिवार का बहीखाता खोलकर ऐसे लोगों ने उन्हें शर्म से मुंह छुपाने की स्थिति में धकेल दिया। गो कि गवई साहब किसी मजदूर के बेटे नही हैं उनके पिता सूर्यभान गवई बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर के करीबी सहयोगियों में रहे थे। वे संसद के दोनो सदनों के सदस्य रहे। उन्होंने केरल और बिहार के राज्यपाल के रूप में और सिक्किम के कार्यवाहक राज्यपाल के रूप में अपनी सेवाएं दीं। हालांकि समाज के लिए उनके बड़े योगदान को नकारा नही जा सकता लेकिन यह बात मानने योग्य नही है कि हमारे प्रधान न्यायाधीश को ऐसे परिवार से संबंधित होने के बावजूद आम दलित की तरह गर्दिश भरी जिंदगी बचपन में या शुरूआत में गुजारनी पड़ी होगी। जीवन की स्थितियां बदलने से वर्ग चरित्र भी बदल जाता है और इलीट क्लास में दाखिले के बाद बहुत कम दलित भी बनावटीपन, प्रपंची तबियत और तमाम स्वांगपन से दूर रह पाते हैं। बदला हुआ वर्ग चरित्र क्रांतिकारी समाज के सदस्यों के विचारों को भी ढुलमुल और समझौतावादी बना देता है। इसलिए कमल ताई पहले ही दिन आरएसएस के निमंत्रण को अस्वीकार करने की न सोच सकीं तो यह स्वाभाविक ही है।

दलितों के गले नही उतरता हिन्दुत्व
सही बात तो यह है कि वे इस कार्यक्रम में बहुत फख्र के साथ पहुंचतीं अगर सोशल मीडिया ने उनके फैसले की इतनी लानत मलामत न की होती। अपने वर्ग चरित्र के कारण कमल ताई में पूरा सौजन्य है इसलिए उन्होंने कहा कि जब आरएसएस के लोग बहुत शिष्टतापूर्वक उनसे अपने कार्यक्रम में उपस्थित होने का आग्रह करने आये तो उन्होंने भी उनका सम्मान किया। यह बात उनको इसलिए बतानी पड़ी कि अब जब उन्हें मना करना पड़ रहा है तो उसमें कठोरता की कोई प्रतीति न उभरे। लेकिन सब होते हुए भी उन्होंने अपने पति के आरएसएस को लेकर रवैये के बारे में जो कहा उससे जाने-अनजाने में संघ को बेपर्दा करने का काम हो गया। उन्होंने कहा कि दादा साहब जो कि रामकृष्ण सूर्यभान गवई के लिए परिवार में आदर का संबोधन था वे भी संघ के कार्यक्रमों में शामिल हुए थे। लेकिन उन्होंने कभी हिन्दुत्व की विचारधारा के प्रति सहमति नही दर्शायी। इस तरह उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि हिन्दुत्व को चाहे जितने चित्ताकर्षक आवरण में पेश किया जाये पर दलित उसमें अपना भला कभी नही देख सकते। उन्होंने इसी में आगे चलकर कहा कि वे आरएसएस के प्लेटफार्म का उपयोग दलितों के मुददे उठाने के लिए करना चाहते थे और उनकी भी यही भावना थी। वे भी अगर अमरावती पहुंचती तो हिन्दू समाज के ध्वजा धारकों के सामने यही मुददे रखतीं। कमल ताई जता रहीं थी कि वे आरएसएस के लिए इस्तेमाल होने नही जा रहीं थीं उनका इरादा आरएसएस के मंच का उपयोग अपने एजेंडे के लिए करने का था। ऐसा ही कुछ गांधी और अंबेडकर के द्वंद में देखने को मिलता था। गांधी चाहते थे कि कांग्रेस के प्लेटफार्म को ही मुख्य प्लेटफार्म माना जाये। दलितों के लिए अलग प्लेटफार्म की जरूरत को मान्यता देना गांधी जी को गंवारा नही था। जबकि बाबा साहब कहते थे कि दलित पूरी तरह अधिकार विहीन जिंदगी जी रहे हैं तो उनकी समस्याओं पर अलग से चर्चा होना नितान्त आवश्यक है। आज भी इस घालमेल को बनाये रखने की कोशिश हो रही है। लोकतांत्रिक समाज में जब हर एक का वोट बराबर है तो हर एक के लिए अवसर बराबर क्यों नही होना चाहिए। अगर आप अवसर की बराबरी को सचमुच स्वीकार करते हैं तो आपको उन चोलाधारी संतों का बहिष्कार कर देना चाहिए जो कहते हैं कि हर जाति के लिए उसका काम ईश्वर के यहां से निश्चित होकर आया है इसलिए दलितों को अपने पूर्वजों की तरह अपवित्र पेशों में संलग्न रहना ही पड़ेगा और अपनी हीन स्थिति को स्वीकार करना ही पड़ेगा।

कर्म विभाजन के ईश्वरीय सिद्धांत का खोखलापन
अगर कर्म विभाजन ईश्वरीय होता तो आप मिथकीय युग को छोड़कर एतिहासिक युग को देखें। शिशुनाग, नंद, मौर्य सैकड़ों वर्षों तक क्षत्रियों की बजाय शूद्रों के राजवंश का शासन देश में चला जबकि वर्ण विधान के अनुसार शूद्रों का काम गददी पर बैठना नही सेवा करना निर्धारित किया गया है फिर किसने उन्हें गददी पर बैठने दिया। उनके राज्य संचालन की क्षमता में क्या कोई खोट रही। तो देखने को मिलेगा कि उनके पराक्रम और प्रजा वत्सलता में किसी तरह की कमी नही थी। शूद्रों के शासन का अंत हुआ तो शुंग और कण्व आदि ब्राह्मणों के वंश का शासन हो गया। शूद्र गये फिर भी क्षत्रिय नही आये। ब्राह्मणों के लिए आचार्य का दायित्व निर्धारित था तो फिर वे राजा कैसे बने और बने तो क्या वे शासन चलाने की क्षमता में कहीं कमतर साबित हुए। जाहिर है कि हर योग्यता और क्षमता व्यक्तिगत होती है उसे किसी समुदाय से नही बांधा जा सकता। इसलिए जाति की अवैज्ञानिक व्यवस्था का उन्मूलन हर सूरत में होना चाहिए। इसमें किसी की हठधर्मिता स्वीकार्य नही हो सकती चाहे कोई अपने को धर्माचार्य का बहुरूप धारण करके इसके लिए जबर्दस्ती करें। जाति व्यवस्था खत्म करके ही हिन्दुत्व का प्लेटफार्म इतना पूर्ण हो सकता है कि उसमें दलित या कोई समाज अपनी बात कहने के लिए अलग से कोई अवसर न ढूढ़ें। उत्तर प्रदेश में जाति पहचान से ऊपर उठने की कोशिश हुई है। हाईकोर्ट के निर्णय के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक शासनादेश जारी किया है हालांकि यह एक ट्रायल है। लेकिन उम्मीद करने वालों को भरोसा है कि यह प्रयोग मजबूती से स्थायित्व प्राप्त करेगा और सारे देश में इसका अनुकरण होगा। तब सचमुच नये भारत के निर्माण का नारा साकार देखा जा सकेगा।







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