क्या मोहन यादव मध्य प्रदेश के कल्याण सिंह साबित होगें। उनके खिलाफ मध्य प्रदेश में माहौल इस समय जबर्दस्त गर्म है। उन्हें हिन्दू द्रोही, सवर्ण द्रोही और राम द्रोही करार दिया जा रहा है। भाजपा की सवर्ण लॉबी ने उनके खिलाफ जमे मोर्चे की कमान संभाल रखी है। मोहन सिंह यादव ने राज्य में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत 14 से बढ़ाकर 27 करने का फैसला राज्य मंत्रिमंडल में पारित कराया है। इस बारे में उन्होंने सर्वानुमति कायम करने के लिए सभी दलों की बैठक बुलाकर उनकी भी सहमति ले ली थी। पर सवर्ण लॉबी को यह मंजूर नही हुआ। कोढ़ में खाज का काम किया इस मुददे के अदालत में पहुंचने के बाद मोहन यादव की सरकार द्वारा महाजन आयोग की रिपोर्ट को आधार बनाकर दिया गया शपथ पत्र। पिछड़ों के दमन को प्रमाणित करने के लिए महाजन आयोग ने मिथकीय आख्यानों को आधार बनाया था। यही अब बवाल का कारण बन गया है।

27 प्रतिशत आरक्षण के मुददे की नींव रखने वाले अर्जुन सिंह
पिछड़ी जाति के होने के कारण मोहन यादव के कदम को निशाने पर लिया जा रहा है वरना पिछड़ों को मध्य प्रदेश में 27 प्रतिशत आरक्षण दिये जाने की घोषणा मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बहुत पहले 1980 में सवर्ण मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने की थी। लेकिन मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को 36-37 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। जिसमें पिछड़े वर्ग का 27 प्रतिशत आरक्षण जुड़ जाने पर कुल आरक्षण 50 फीसदी की सीमा से पार हो जाता है। इसलिए अर्जुन सिंह के समय भी यह फैसला अदालत में पहुंचकर अटक गया था। उनके बाद भी कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों के अलग-अलग मुख्यमंत्रियों ने पिछड़ों को राज्य की सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण दिलाने की जो कोशिशे कीं वे या तो प्रदेश के राजभवन अथवा राष्ट्रपति भवन में जाकर दम तोड़ गयीं या अभी तक न्यायपालिका में लंबित हैं।

मोहन यादव की पीठ पर किसका हाथ
मोहन यादव को किन अप्रत्याशित परिस्थितियों में मुख्यमंत्री पद का मुकुट मिला यह तो सर्वविदित है। शिवराज सिंह का हटना तो तय था लेकिन भाजपा का हाईकमान उनके स्थान पर किसका नाम तय करेगा इनमें नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय जैसे दिग्गजों की चर्चा हो रही थी। खुद मोहन यादव नही सोचते थे कि पार्टी हाईकमान की कृपा उन पर होने वाली है। स्वाभाविक है कि ऐसे में उनके बारे में यह धारणा बनी हुई थी कि कृपा पात्र मुख्यमंत्री होने के कारण वे इस पद पर होने को अपना सौभाग्य समझकर अपने ही मन में रमे रहेगें। उनसे किसी साहसिक फैसले की आशंका भाजपा की धुरी समझे जाने वाले वर्ग ने कभी नही कर पाई थी। ऐसे में जब पिछड़ों के 27 प्रतिशत आरक्षण के मामले को उन्होंने जिंदा कर दिया तो उनकी जुर्रत पर यह वर्ग बौखला उठा। उनके खिलाफ इस कदम से बवंडर मच गया है। मोहन यादव धैर्य बनाये रखकर इस तमाशे को देख रहे हैं। क्रीज पर खड़े होने का वरदान तो उन्हें पार्टी के ऊपर के लोगों ने दिया लेकिन अब वे पारी जमाने के लिए अपना कौशल दिखा रहे हैं। उत्तर प्रदेश की तरह मध्य प्रदेश में पिछड़ी जातियों में न तो चेतना के स्तर तक प्रखरता है और न ही वैसा आत्मबल है। लेकिन इसके बावजूद वहां क्रिया की प्रतिक्रिया शुरू हो गयी है। पिछड़ी जातियों के सामाजिक कार्यकर्ता उनके पक्ष में मुखर होने लगे हैं। क्या इसके पीछे भारतीय जनता पार्टी के हाईकमान की ही कोई रणनीति है। क्या उन्हें अखिलेश के समानान्तर यादवों ही नहीं समूचे पिछड़े वर्ग के नये फायर ब्रांड नेता के रूप में तराशने की मशक्कत का परिणाम है यह पूरा घमासान।

अप्रत्याशित नही सुनियोजित है मोहन का पदार्पण
मोहन यादव महाकाल के बड़े भक्त हैं। जैसे कल्याण सिंह भगवान श्रीराम के भक्त थे। लेकिन कल्याण सिंह हो या उमा भारती उनके समय की परिस्थिति अलग थी। वीपी सिंह ने अगर मंडल आयोग लागू करके पिछड़ी जातियों के समूचे संसार को उद्वेलित न कर दिया होता तो 1991 में भाजपा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए कल्याण सिंह का नाम कभी न आता। पर वीपी सिंह ने जो चुनौती खड़ी कर दी थी उससे निपटने के लिए पिछड़ों को बरगलाने के तौर पर उनके बीच के नेता को देश के सबसे बड़े सूबे की गददी सौंपना अनिवार्य हो गया था। यह आपाद उपाय था जिसे अलंकारिक शब्दावली में आपाद धर्म के नाम से उल्लिखित किया जाता है। आपाद उपाय स्थाई नही होता। आपत्तिकाल बीता और पैसा हजम, खेल खत्म। कल्याण सिंह भी अंतरिम व्यवस्था के तौर पर स्वीकार किये गये थे। लेकिन जब भाजपा के नियंता वर्ग ने देखा कि वे तो अपनी प्रशासनिक प्रतिभा से जड़ पकड़ने लगे हैं तो उनको समय रहते उखाड़ फेकने के लिए यह वर्ग फंुफकार उठा। स्वर्गीय रामप्रकाश त्रिपाठी ने बख्शी का तालाब इलाके में विधायकों की बैठक आयोजित कर कल्याण सिंह के विरुद्ध शंखनांद की शुरूआत की। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि अगर कल्याण सिंह की पहली सरकार पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा कर लेती तो उत्तर प्रदेश में भाजपा अंगद के पांव की तरह दीर्घकाल के लिए जम जाती। पर उसे असमय बलि चढ़ जाने के लिए मजबूर कर दिया गया।

कल्याण सिंह को क्यों करनी पड़ी थी बगावत
कल्याण सिंह ने इसके बाद समझ लिया कि उनकी धर्म परायणता का अपनी पार्टी में कोई मूल्य नही है। 1996 में उन्होंने जब जातियों की संख्या के आधार पर उम्मीदवारों का अनुपात तय करने का फार्मूला रखा तो उन्हें बागी घोषित कर दिया गया। उन्हें कट साइज करने का यह अभियान यहां तक पहुंच गया कि उनका पार्टी से निष्कासन हो गया। कल्याण सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब वे बहुत कुछ बातों से अनजान थे। इसलिए मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने वाले वीपी सिंह से वे उसी तरह चिढ़ते थे जिस तरह सरदार पटेल संविधान सभा में भूमिका को देखने के पहले बाबा साहब अंबेडकर के प्रति तल्ख रहते थे। बाद में सरदार पटेल के विचार बाबा साहब के बारे में बदले तो जातिगत षणयंत्र के भुक्तभोगी होने के बाद कल्याण सिंह भी उन्हीं वीपी सिंह में पिछड़ों के मसीहा की तस्वीर देखने लगे थे। वीपी सिंह की जंयती पर लखनऊ में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में जयपुर से पहुंचकर कल्याण सिंह ने कहा था कि पिछड़ी जातियां वीपी सिंह का एहसान कभी नही भूलेगीं। उमा भारती को भी भाजपा मध्य प्रदेश में केवल एक वर्ष मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बर्दास्त कर पायी थी क्योंकि उन्होंने भाजपा में व्याप्त जातिगत भेदभाव की कलई खोलना शुरू कर दी थी।

मोदी के प्रति भी मोहभंग की नौबत
और तो छोड़िये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति भी भाजपा समर्थकों की यह लॉबी खिन्न हुए बिना नही रही थी। जब पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने बाबा साहब अंबेडकर के स्तुतिगान की झड़ी लगा दी थी, जब प्रधानमंत्री बाबा साहब को अपना सबसे बड़ा आराध्य प्रदर्शित करने लगे थे, मार्च 2018 में जब सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट का बधियाकरण कर दिया था तब प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में विधेयक पारित कराकर यह फैसला पलट डाला और जब मोदी जी दिवंगत मुलायम सिंह को अपनी पार्टी के नेताओं से भी ज्यादा महत्व देने लगे थे तो छले जाने जैसी भावना में घिरे पार्टी के कार्यकर्ताओं का यह वर्ग व्यक्तिगत चर्चाओं में उन पर सवर्ण विरोधी होने का आरोप लगाने लगा था। लेकिन मोदी के पिटारे में कई रक्षा यंत्र भरे पड़े हैं जिससे वे कठिन से कठिन स्थितियों में भी निरापद बने रहते हैं। कल्याण सिंह के समय परिवर्तन के लिए स्थितियां परिपक्व नहीं थी इसलिए उन्हें अंजाम पर पहंुचने के पहले फिसल जाना पड़ा। लेकिन मोदी ने परिवर्तन के लिहाज से पार्टी में लांचिंग पैड तैयार कर दिया है। इसी के मुताबिक नये-नये मोहरे ईजाद भी किये जा रहे हैं और सैट भी किये जा रहे है।

मोदी के चंद्रगुप्त हैं मोहन यादव
मोहन यादव की पीठ पर कहीं न कहीं मोदी का हाथ जरूर है। जानने वाले कह रहे हैं कि वे मोदी के चंद्रगुप्त हैं। मोहन यादव की सरकार ने पिछड़ों को 27 प्रतिशत आरक्षण के अपने फैसले के बचाव में जो हलफनामा दाखिल किया है उसमें शंबूक वध के कथानक से स्थापित किये गये दृष्टांत को आड़े हाथों लिया गया है और इसी आधार पर उन्हें रामद्रोही करार देने की चेष्टा की जा रही है। इस भयानक आरोप को मोदी संज्ञान तक लेने के लिए तैयार नही हैं। वह जानते है कि मोहन यादव भले ही पिछड़ी जाति के हों लेकिन राम द्रोही कैसे हो सकते है। कबीर और रविदास भी तो शूद्र थे लेकिन उन्होंने तो अपने को राम का ही दास घोषित किया। उनके आराध्य राम वे हैं जो न कभी जन्मते हैं न जिनकी कभी मौत होती है। अकाल, अजन्मा, निराकार, निर्गुण हैं राम लेकिन उन राम के गुणगान में शंबूक वध के माध्यम से अनर्थकारी उदाहरण सैट करने की चेष्टा स्वीकार्य कैसे हो सकती है। राम नाम की महिमा के तमाम मर्मज्ञ अब इस बात पर शोध कर रहे हैं कि शंबूक वध का प्रसंग सचमुच किसी मूल रामायण में है या षणयंत्रकारियों द्वारा अपने उददेश्य पूर्ति के लिए इसे ग्रंथों में प्रक्षिप्त कर दिया गया है। उन लोगों की यह धारणा तार्किक भी लगती है। वैदिक काल में सुदास सहित कई शूद्र राजाओं का उल्लेख है। ऐतिहासिक काल में भी शिशुनाग से लेकर मौर्य वंश तक शूद्र राजाओं के वृहत्तर साम्राज्य का उल्लेख मिलता है। ऐसा नही है कि अपवाद के लिए कुछ समय तक यह विपर्यास प्रभावी रहा हो बल्कि सदियों तक उनकी राज्य के अधिकारी कौम के रूप में मान्यता रही है। जो कौम सिंहासन पर बैठने के लिए स्वीकृत रही हो उस कौम को पूजा, तप, धर्म ग्रंथ पढ़ने से कैसे रोका गया होगा। इसलिए शंबूक वध की कहानी स्वीकार्य नही हो सकती।

मोहन यादव क्या भावी इतिहास के एक नायक बनेगें
स्पष्ट है कि सपोर्टिंग दस्तावेज के रूप में अदालत में दी गयी महाजन आयोग की रिपोर्ट में दर्ज शंबूक वध प्रसंग की आड़ लेकर मोहन यादव को राम द्रोही ठहराने का प्रयास कितना कच्चा है। मूल बात यह है कि मध्य प्रदेश में पिछड़ी जातियों की आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है और व्यवस्था में भागीदारी केवल 14 प्रतिशत यह कैसे चल सकता है। इसलिए पिछड़ों के आरक्षण का दायरा 27 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रयास करके मोहन यादव कोई पाप नही कर रहे हैं। इस मुददे की जड़े इतिहास में हैं। अब यह मुददा पिछड़ी जातियों का अपने पुरखों के राजसी अधिकार को फिर से हस्तगत करने की लड़ाई में तब्दील हो चुका है। अगर मोहन यादव इसके लिए कमर कसे रहते हैं तो वे दूसरी मंडल क्रांति के सूत्रधार बन सकते हैं। आने वाले इतिहास के एक नायक के रूप में उन्हें उभारे जाने का कयास कितना वास्तविक है इस पर निगाह रखनी होगी।
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