अगर जस्टिस गवई दलित न होते तो……


माना कि चीफ जस्टिस भूषण राम गवई कोे खजुराहो की खंडित विष्णु प्रतिमा को लेकर दायर याचिका खारिज करते समय अतिरिक्त टिप्पणी नही करनी चाहिए थी, हांलाकि बाद में उन्होंने इस पर सफाई भी दे दी थी लेकिन मेरी उत्सुकता यह है कि अगर गवई साहब दलित न होते तो किसी आक्रोशित व्यक्ति के मन में उन पर जूता फेकने का विचार आता।
मुझे इस प्रश्न द्वारा कुरेदे जाने का कारण यह है कि अगर गवई साहब ने गुस्ताखी की थी तो उन पर गुबार फोड़ दिया जाता लेकिन ऐसा लग रहा है कि इस प्रसंग के मंचन के तार कहीं और जुड़े हुए हैं और उस सूत्रधार ने इसकी प्रतिक्रिया पहले से अनुमानित कर रखी थी। इस घटना का ताना-बाना दलितों के खिलाफ माहौल भड़काने के उद्दीपन के लिए बुना गया था। इसका मकसद एक किस्म के आतंकवाद का था जिससे दलितों को हद में रहने के लिए डराया जा सके। इसलिए मामला गवई साहब तक सीमित नही रहा इसके बहाने बाबा साहब अंबेडकर और सामाजिक व्यवस्था में दलितों को मिल रहे महत्व को लेकर संचित घृणा का विस्फोट किया जा रहा है।
सोशल मीडिया पर आ रहीं पोस्ट इसकी गवाह हैं। कहा जा रहा है कि अंबेडकर को कुछ लिखना-पढ़ना आता भी था कि उन्हें देश का संविधान लिखने का श्रेय दिया जा रहा है। लगता है कि संविधान लेखन किसी और की कापी-पेस्ट का मामला है। कुछ लोग नाम ढ़ूढ़ कर ला रहे है कि इन महाशय ने संविधान लिखा था। डा. अंबेडकर को तो खामख्वाह श्रेय दे दिया गया है। जस्टिस गवई के बारे में बताया जा रहा है कि वे केवल बीए थर्ड क्लास तक शिक्षित हैं। बेवकूफों को यह नही पता कि न्यायपालिका में आरक्षण नही है और खुद गवई ने संवैधानिक पदों पर आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का विरोध किया है जबकि तमाम दलित बुद्धिजीवी इसके लिए मुहिम चला रहे हैं। समूची दलित कौम को बुद्धिहीन, संस्कारहीन, सनातन विरोधी, असभ्य साबित करने की होड़ लगी हुई है। राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू और हाल ही में सामाजिक समरसता को लेकर संघ के कार्यक्रम में लच्छेदार भाषण करने वाले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को सोचना चाहिए कि इस तरह की धारणा का प्रसार उनके मान-सम्मान को भी कितनी ठेस पहुंचाता है।
वैसे मुझे व्यक्तिगत रूप से अपने मौजूदा चीफ जस्टिस से कोई सहानुभूति नही है। वे अपने को अंबेडकरवादी और बुद्धिस्ट कहते होंगे लेकिन अगर उनके कार्य व्यवहार को देखा जाये तो उनकी अंबेडकरवादिता मात्र फैशन परस्ती नजर आती है। सही बात यह है कि उनकी दलित चेतना का रूपांतरण इलीट चेतना में हो चुका है। इसलिए न्याय के मैदान में उनका पलड़ा विपरीत दिशा में झुक जाता है। उन्हें स्वाभिमान का प्रश्न इसी कारण बहुत नही कचोटता। चीफ जस्टिस बनने के बाद जब वे महाराष्ट्र गये तो राज्य के उच्चाधिकारी उन्हें रिसीव करने नही आये। चीफ जस्टिस की यह अवमानना उनके दलित होने के कारण थी। गवई साहब ने इसकी चर्चा जरूर की लेकिन अस्मितावादी दलित बुद्धिजीवियों की तरह उन्होंने इसका कोई आक्रामक प्रतिवाद नही किया, इसलिए कि उन्हें भय रहा होगा कि उनकी इलीट सदस्यता न छिन जाये। उत्तर प्रदेश में गवर्नर रहे सूरजभान की ऐसे मामलों में प्रतिक्रिया का ध्यान जिन लोगों को होगा वे गवई साहब के इस कमजोर पक्ष को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। उन्होंने दलित आरक्षण में क्रीमीलेयर प्रावधान को लागू करने की मांग का समर्थन कर दिया था तो दलित उनसे बहुत नाराज हो गये थे। भाजपा और संघ के लोगों से उनके मधुर संबंध रहे हैं। इसके चलते हाल ही में उनकी मां को संघ के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। उन्होंने पहले तो इसकी स्वीकृति दे दी थी लेकिन सोशल मीडिया पर जब वे बहुत ट्रोल हो गये तो उनकी मां को संघ के लोगों से असमर्थता प्रकट करनी पड़ी। यह भी उनके वैचारिक कच्चेपन का नमूना है। लददाख के पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी के खिलाफ उनकी पत्नी द्वारा दायर याचिका के लिए उन्होंने गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस अरविंद कुमार और जस्टिस एनवी अंजारिया की पीठ गठित कर दी। इस फैसले के लिए भी वे आलोचना के घेरे में हैं। लेकिन इतने उदार दलित न्यायाधीश को भी कटटरपंथी पचाने को तैयार नही हुए यह उनके चरमपंथी विचारों की इंतहा है। उस पर यह भी उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि जस्टिस गवई को इसी नवंबर महीने में रिटायर होना है। इतने कम दिनों के लिए भी ये लोग शांत न रह सके।
जस्टिस गवई ने अपने इसी ढुलमुल वर्ग चरित्र के कारण जूता फेकने की कोशिश करने वाले वकील राकेश किशोर को बड़प्पन दिखाने के लोभ में माफ कर दिया। लेकिन क्या उन्हें इसका अधिकार है। राकेश किशोर ने उनके साथ यह बेहूदगी अदालत के बाहर कही नही की। उन्होंने जब आला अदालत बैठी हुई थी तब यह हिमाकत की इसलिए यह जस्टिस गवई का व्यक्तिगत मामला नही है जो वे किसी को दंड देने या माफ करने के लिए स्वतंत्र हों। यह देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्था पर हमला है। सुप्रीम कोर्ट राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान, देश के राजकीय चिन्ह की कोटि का प्रतीक है जिसके माध्यम से अमूर्त राष्ट्र रूपायित होता है। आप जस्टिस गवई से नाराज हो सकते हैं लेकिन राकेश किशोर की इस गुस्ताखी को समर्थन देना कतई स्वीकार्य नही हो सकता। यह देश को जाने-अनजाने में अराजकता के गर्त में धकेलने जैसा कृत्य है। यह ठीक वैसे ही है जैसे नरेंद्र मोदी के हम कितने भी बड़े आलोचक क्यो न हो लेकिन स्वाधीनता दिवस के दिन जब वे लाल किले की प्राचीर पर संबोधन के लिए खड़े होते हैं तो पूरे देश की तस्वीर के बतौर होते हैं। उस समय उनके साथ किसी के द्वारा बेहूदगी का प्रयास देश के किसी नागरिक के लिए बर्दास्त के योग्य नही हो सकता। आश्चर्य यह है कि कर्नाटक के पूर्व आईपीएस अधिकारी भास्कर राव ने इस कृत्य के लिए राकेश किशोर की हौसला अफजाई की कोशिश की हालांकि बाद में उन्होंने इससे संबंधित पोस्ट को हटा लिया। लेकिन कानून व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसी से जुड़ा रहा आला अफसर तक का दिमाग विधि व्यवस्था को लेकर स्पष्ट नही है। यह सोचने का विषय है। इससे पता चलता है कि सड़े हुए विचारों का विष राष्ट्रीय धमनियों में कहां-कहां पहुंच चुका है।

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