सिरफिरे वकील राकेश किशोर की सुप्रीम कोर्ट की चलती कार्रवाई के दौरान चीफ जस्टिस बीआर गवई पर जूता उछालने की हरकत को शौर्य का रूप प्रदान कराने के बाद रफा-दफा किया जा चुका था अब उस मामले का बेताल फिर डाल पर आया देख लोग भौचक हैं। गुरुवार को अटॉर्नी जनरल आर वेंकट रमणी ने सर्वोच्च न्यायालय से दरख्वास्त की कि इस मामले में राकेश किशोर के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई शुरू की जाये। भावी चीफ जस्टिस सूर्यकांत की अगुवाई वाली पीठ ने इस दरख्वास्त की सुनवाई की। जस्टिस सूर्यकांत का कहना था कि जब चीफ जस्टिस बड़प्पन दिखाते हुए आरोपी वकील को क्षमा कर चुके हैं तो अब अवमानना की कार्रवाई की क्या जरूरत है। अटॉर्नी जनरल ने कहा कि मी-लार्ड सही फरमा रहे हैं लेकिन सोशल मीडिया पर जिस तरह से राकेश किशोर को हीरो के रूप में पेश करते हुए चीफ जस्टिस की प्रतिष्ठा धूमिल करने का अभियान चलाया गया उसके मददेनजर यह जरूरी है कि सिरफिरे वकील को सजा देकर ऐसा करने वाली गैंग के हौसले पस्त किये जायें। इस पर जस्टिस सूर्यकांत का कहना था कि सोशल मीडिया पर न्याय पालिका के खिलाफ जिस तरह से अभियान चलाया जा रहा है उसकी चिंता की जानी चाहिए और सोशल मीडिया के इस उत्साह पर रोक लगाने के लिए कुछ होना चाहिए। इसके बावजूद राकेश किशोर पर अवमानना की कार्रवाई शुरू करने के पहले उन्होंने पर्याप्त विचार करने की आवश्यकता जताते हुए अगली तारीख देकर फिलहाल अटॉर्नी जनरल की याचिका को टाल दिया है।
सिरफिरे वकील के महिमा मंडन का आनंद
लेकिन लोगों को हैरत इस बात पर है कि कल तक तो सरकार राकेश किशोर के खिलाफ कोई कदम उठाने के बजाय अप्रत्यक्ष रूप से उसके महिमा मंडन की कारगुजारी को प्रोत्साहित कर रही थी आज अचानक उसे कर्तव्यबोध क्यों हो उठा। यह मामला ऐसा था कि जिसमें पहले ही दिन सरकार को गंभीरता दिखानी चाहिए थी। संसद में गैर नुकसानदेह अतिचार करने वाले युवकों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने तपाक से ऐसी धाराएं ढूढ़ लीं कि आज घटना के दो वर्ष बाद भी उनकी जमानत नही हो पा रही है। दूसरी ओर संसद के समकक्ष सर्वोच्चता रखने वाली संस्था सुप्रीम कोर्ट भी है लेकिन उसकी प्रतिष्ठा और गरिमा की रक्षा के लिए सरकार को वैसी तड़प दिखाने की जरूरत महसूस नही हुई। दिल्ली पुलिस ने घटना के तत्काल बाद राकेश किशोर को पकड़ा लेकिन एक घंटे में ही उसे ससम्मान छोड़ दिया। दिल्ली पुलिस इस ममाले में निरुपाय क्यों हो गयी। उसे राकेश किशोर के खिलाफ देश की संप्रभुता को चुनौती देने की धाराएं और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून क्यों याद नही आया। अभूतपूर्व घटना के तत्काल बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कड़े शब्दों में इस कृत्य की निंदा कर देनी चाहिए थी लेकिन पता नही वे किस सोच में पड़े रहे और शाम को उन्होंने ऐसा करने की जहमत उठाई। विधि मंत्री अर्जुन मेघवाल का कार्यक्षेत्र तो सीधे सुप्रीम कोर्ट से जुड़ता है। इसलिए उनकी ओर से तो तत्काल सिरफिरे वकील की भर्त्सना का वक्तव्य जारी हो जाना चाहिए था पर जब प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया प्रसारित हो गयी उसके बाद अर्जुन मेघवाल अपनी प्रतिक्रिया देने का साहस दिखा सके।
कैसे बदला साहब बहादुर का मूड
अटॉर्नी जनरल को राकेश किशोर के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई के लिए कुछ वकील कई दिन पहले पत्र भेज चुके थे लेकिन वे चुप बैठे रहे। जाहिर है कि अटोर्नी जनरल ने तभी इसमें एक्शन लिया जब उन्होंने प्रधानमंत्री का रुख देख लिया। सरकार का मूड किसने बदला निश्चित रूप से अब इस पर चर्चा होनी चाहिए। सोचें तो साफ दिखाई देता है कि सिद्धांतहीन सरकार का जमीर इस मामले में बिहार विधानसभा के चुनाव की राजनैतिक स्थितियों के चलते जग सका है। दलितों में आक्रोश की अदृश्य लहर बलवती हो रही थी जिसके फीडबैक से सरकार विचलित हो गयी। अटॉर्नी जनरल को इसीलिए राकेश किशोर के खिलाफ अवमानना याचिका मूव करनी पड़ी। इसके पहले गवई के खिलाफ जो उग्र तेवर दिखाये जा रहे थे उनके पीछे एक ही मकसद था कि फैसले करने का काम कानून और अदालतों से छीनकर जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त धर्माचार्यों को सौंप दिया जाये। गवई का अकेला मामला नही है पिछले कुछ समय से हर प्रसंग में इस तरह की हठधर्मिता के प्रदर्शन का सिलसिला चल रहा था। सरकार इसे थामने की बजाय संरक्षण देने का काम कर रही थी। इसी के चलते गालियों के निशाने पर अकेल गवई साहब नही रह गये थे, बाबा साहब अंबेडकर भी बहुत अभद्र तरीके से इसमें चपेटे जा रहे थे। आरक्षण की व्यवस्था ने रूढ़िवादियों को बदले की भावना से पागल कर दिया था जो उनकी भाषा और व्यवहार में स्पष्ट रूप से परिलक्षित था। सरकार की नादानी थी कि वह आंकलन नही कर पा रही थी कि यह बहुत सीमित वर्ग की आक्रामकता है और इसमें बहुसंख्यक समाज को निशाने पर रखा जा रहा है। नादान सरकार को यह इल्म क्यों नही था कि ऐसे में बहुसंख्यक समाज में प्रतिक्रिया में आया उबाल अगर ज्यादा गर्मी पकड़ गया तो उसका तम्बू उखड़कर किस बियावान में जा गिरेगा। सरकार तो पुराने समय के मुगालते में थी जब समाज पर हुकूमत करने वाला तबका जहां चाहता था वहां बहुसंख्यकों को हांक देने की कुब्बत रखता था। उसे यह अंदाजा नही हो पाया कि पुराने जमाने से आज तक पटना में गंगा में कितना पानी बह चुका है। जब उसको इसका अंदाजा हुआ तो उसकी घिघ्घी बंध गयी और अटॉर्नी जनरल की अवमानना याचिका में यही प्रदर्शित हुआ है।
धार्मिक और राजनैतिक व्यवहार का फर्क
यह भी भ्रम टूट गया कि पिछले 10-11 वर्षों में बहुसंख्यकों समेत पूरे समाज में देश भर में भक्ति भावना का जो प्लावन हुआ है उससे दलित और पिछड़े भी सामाजिक न्याय का राग भूलकर राजनैतिक तौर पर भी भाजपा के साथ बहुत गहराई तक नत्थी हो चुके हैं। अगर यह बात सही होती तो हाल के वर्षों में उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें यादवों में धर्म के लिए समर्पण कितना बड़ा है। वे सवर्णों से ज्यादा मंदिर जाने लगे हैं, व्रत अनुष्ठान करने लगे हैं, कथा-भागवत कराने लगे हैं लेकिन राजनीति में उनके लिए अस्मिता के सवाल अभी भी महत्वपूर्ण है। अगर ऐसा न होता तो हाल के लोकसभा चुनाव में यादवों का लगभग पूरा वोट भाजपा के विरोध में कैसे पड़ जाता। भाजपा के नेतृत्व ने अब इस हकीकत को समझा है। अनुमान है कि उसकी सामाजिक नीतियों में इसके चलते बदलाव आयेगा।
विहिप की रणनीति
मुगलों के समय के पहले हिंदू धर्म क्लास का धर्म था। उसने शूद्रों और दलितों के मंदिर में प्रवेश तक पर रोक लगा रखी थी, उनका उपनयन संस्काार भी वर्जित था, उनको धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने और बांचने से भी प्रतिबंधित रखा गया था। ऐसे में खासतौर से दलित सामाजिक गुलामी से छुटकारा पाने के लिए तेजी से धर्मांतरण कर रहे थे। यह सिलसिला चलता तो व्यापक स्तर पर देश की डेमोग्राफी बदल गयी होती। लेकिन रामानुज आदि ने धर्म की कुछ खिड़कियां मास के लिए खोल दी जिससे भक्ति आंदोलन की बयार बह चली। अनेक दलित और शूद्र संत समाज में समादृत हुए जिन्होंने अपने समुदायों को हिंदू धर्म में रोके रखने के लिए तटबंध का काम किया। कालांतर में रामजन्म भूमि आंदोलन के समय देखें तो विश्व हिंदू परिषद ने मास यानी दलित पिछड़े संतों को आगे किया, सिर पर बिठाया और उनके जरिये इन वर्गों में भाजपा की पैठ को स्थापित किया। मंडल आयोग के बाद सामाजिक न्याय के आंदोलन का जो तूफान मचला था उससे भाजपा को सुरक्षित करने में विश्व हिंदू परिषद की यह रणनीति बहुत कारगर रही। देखें तो आश्चर्य होगा कि धर्म के कोटे से भाजपा ने जो सांसद, विधायक निर्वाचित कराये उनमें सभी गैर ब्राह्मण थे।
अपनी सक्सेज स्टोरी को उलटने में लगी भाजपा
लेकिन आज भाजपा अपनी ही सक्सेज स्टोरी की उल्टी गिनती में लगी है। आज पिछड़े वर्ग के कथावाचक को पीटकर उसकी जाति के लोगों को बताया जा रहा है कि तुम्हें किसी धर्म कथा को बांचने का अधिकार नही है। यह काम उल्टी गंगा बहायी जाने की तरह है। किसी भी जाति का विद्वान धर्म के बारे में बोलने और व्याख्या करने का अधिकार रखता है। आदि गुरू शंकराचार्य ने जड़-चेतन सभी में पवित्र ब्रह्म को अवस्थित कहा है। उन्होंने कोई भेद नही किया कि दलित में जो ब्रह्म हैं वह कम डिग्री का है और सवर्णों में उसकी डिग्री अधिक है। फिर किसी को धार्मिक क्रिया करने या सम्पादित कराने से क्यों रोका जाये। यह अतार्किक हैं, अवैज्ञानिक है और अनैतिक भी है। जातिग्रस्त मानसिकता से संत धर्म के मामले में विशेषाधिकार की थ्योरी पर बल देते हैं। शासन और व्यवस्था कानून और संविधान से चलती हैं जिसमें तथाकथित संतों का दखल अनधिकृत है। उन्हें अपनी महिमा को प्रदर्शित करना है तो मूल कार्य करें और वह कार्य है लोगों को सदाचरण के लिए प्रेरित करना। समाज में बढ़ रहे भ्रष्टाचार, लोभ, लालच और विलासिता से लोगों को उबारना। मानव मात्र में बंधुत्व की भावना का प्रसार करना।
ब्राह्मणों के अग्रणी गुण
इस तरह की व्यवस्था की वकालत को अपनी जाति के विरुद्ध षणयंत्र के रूप में देखने वाले ब्राह्मण यह प्रतीत करातें हैं कि उनमें आत्मविश्वास की कमी है। संपूर्णतः पक्षपात रहित व्यवस्था कायम होने पर भी ब्राह्मणों की सर्वोपरिता कायम रहनी ही है क्योंकि उनका आत्मबल पुश्तैनी तौर पर मजबूत है जो बहुत सारी क्षमताओं का कारक बनता है। इसके अलावा अध्यवसाय, शोध, ज्ञान को अद्यतन करने और न्याय बुद्धि यह उनके गुणों में सहज रूप से विद्यमान हैं। सामाजिक व्यवस्था को बदलने वाले अग्रदूतों में सर्वाधिक संख्या ब्राह्मणों की रही है। न्याय संगत व्यवस्था के लिए काम करते समय अग्रदूत ब्राह्मणों के मन में कभी यह विचार नही आता कि ऐसा करके वे अपने ही हितों के खिलाफ काम कर रहे हैं। धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों से केवल वे ब्राह्मण और सवर्ण भयभीत हैं जो क्षमता रहित होने के बावजूद अभी तक की सामाजिक व्यवस्था में सम्मान और अन्य पुरस्कारों से लाभान्वित बने हुए हैं। चीफ जस्टिस पर जूता फेके जाने के मामले की परिणति जो हो सो हो लेकिन इसकी आड़ में जिस विमर्श को हवा दी गयी उसका उपसंहार करने में समाज की बड़प्पन की भावना सामने आनी चाहिए।
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